Sunday 30 June 2019

Sri Aurobindo on the Islam Problem

Sri Aurobindo on the Islam Problem
Let us see what Sri Aurobindo had to say on the Hindu–Muslim problem.
In the course of a conversation, a disciple observed: “There is also the question of
Hindu–Muslim unity which the non-violence school is trying to solve on the basis of
their theory”.
Sri Aurobindo replied: “You can live amicably with a religion whose principle is
toleration. But how is it possible to live with a religion whose principle is ‘I will not
tolerate?’ How are you going to have unity with these people? Certainly Hindu-Muslim
unity cannot be arrived at on the basis that Muslims will go on converting Hindus while
Hindus shall not convert Mohammedans. You can’t build unity on such basis. Perhaps
the only way of making the Mohammedans harmless is to make them lose their faith in
their religion”.1
Later he said:
“The attempt to placate the Mohammedans was a false diplomacy. Instead of trying to
achieve Hindu-Muslim unity directly, if the Hindus had devoted themselves to national
work, the Mohammedans would have gradually come of themselves…. This attempt to
patch up a unity has given too much importance to the Muslims and it has been the root
of all these troubles”.2
Again in 1923 Sri Aurobindo remarked:
“I am sorry they are making a fetish of this Hindu-Muslim unity. The best solution
would be to allow the Hindus to organize themselves and the Hindu-Muslim unity
would take care of itself, it would automatically solve the problem. Otherwise we are
lulled into a false sense of satisfaction that we have solved a difficult problem when in
fact we have only shelved it”.3
In 1926, Sri Aurobindo remarked:
“Look at Indian politicians: all ideas, ideas-they are busy with ideas. Take the Hindu-
Muslim problem: I don’t know why our politicians accepted Gandhi’s Khilafat agitation.
With the mentality of the ordinary Mahomedan it was bound to produce the reaction it
has produced: you fed the force, it gathered power and began to make demands which
the Hindu mentality had to rise up and reject. That does not require Supermind to find
out, it requires common sense. Then, the Mahomedan reality and the Hindu reality
began to break heads at Calcutta. (This refers to the riots in Calcutta the previous
month). The leaders are busy trying to square the realities with their mental ideas
instead of facing them straight”.4

Thursday 13 June 2019

सकारात्मक सोच

*एक राजा के पास कई हाथी थे,*
*लेकिन एक हाथी बहुत शक्तिशाली था, बहुत आज्ञाकारी,समझदार व युद्ध-कौशल में निपुण था।*
*बहुत से युद्धों में वह भेजा गया था और वह राजा को विजय दिलाकर वापस लौटा था*
*इसलिए वह महाराज का सबसे प्रिय हाथी था।*

*समय गुजरता गया  ..*

*और एक समय ऐसा भी आया, जब वह वृद्ध दिखने लगा।*

                    
*अब वह पहले की तरह कार्य नहीं कर पाता था।*
*इसलिए अब राजा उसे युद्ध क्षेत्र में भी नहीं भेजते थे।*

*एक दिन वह सरोवर में जल पीने के लिए गया, लेकिन वहीं कीचड़ में उसका पैर धँस गया और फिर धँसता ही चला गया।*

*उस हाथी ने बहुत कोशिश की, लेकिन वह उस कीचड़ से स्वयं को नहीं निकाल पाया।*

*उसकी चिंघाड़ने की आवाज से लोगों को यह पता चल गया कि वह हाथी संकट में है।*

*हाथी के फँसने का समाचार राजा तक भी पहुँचा।*

                       *राजा समेत सभी लोग हाथी के आसपास इक्कठा हो गए और विभिन्न प्रकार के शारीरिक प्रयत्न उसे निकालने के लिए करने लगे।*

*लेकिन बहुत देर तक प्रयास करने के उपरांत कोई मार्ग नही निकला..*

*तभी गौतम बुद्ध मार्गभ्रमण कर रहे थे। राजा और सारा मंत्रीमंडल तथागत गौतम बुद्ध के पास गये और अनुरोध किया कि आप हमे इस बिकट परिस्थिति मे मार्गदर्शन करे. गौतम बुद्ध ने सबके घटनास्थल का निरीक्षण किया और फिर राजा को सुझाव दिया कि सरोवर के चारों और युद्ध के नगाड़े बजाए जाएँ।*

*सुनने वालो को विचित्र लगा कि भला नगाड़े बजाने से वह फँसा हुआ हाथी बाहर कैसे निकलेगा। जैसे ही युद्ध के नगाड़े बजने प्रारंभ हुए, वैसे ही उस मृतप्राय हाथी के हाव-भाव में परिवर्तन आने लगा।*

*पहले तो वह धीरे-धीरे करके खड़ा हुआ और फिर सबको हतप्रभ करते हुए स्वयं ही कीचड़ से बाहर निकल आया।*
*गौतम बुद्ध ने सबको स्पष्ट किया कि हाथी की शारीरिक क्षमता में कमी नहीं थी, आवश्यकता मात्र उसके अंदर उत्साह के संचार करने की थी।*

*जीवन में उत्साह बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य सकारात्मक चिंतन बनाए रखे और निराशा को हावी न होने दे।*
*कभी – कभी निरंतर मिलने वाली असफलताओं से व्यक्ति यह मान लेता है कि अब वह पहले की तरह कार्य नहीं कर सकता, लेकिन यह पूर्ण सच नहीं है.*

*"सकारात्मक सोच ही आदमी को "आदमी" बनाती है....*
*उसे अपनी मंजिल  तक ले जाती है...।।*
*आप हमेशा सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण , स्वस्थ एवं प्रसन्न रहें*

Tuesday 11 June 2019

महाभारत के युद्ध में भोजन प्रबंधन

महाभारत की कथा
  एक बार अवश्य पढ़ें

यह कथा मैंने पहली बार पढ़ी है संभव है आपके लिए भी नई हो।
         🍁  महाभारत के युद्ध में भोजन प्रबंधन🍁
       
महाभारत को हम सही मायने में विश्व का प्रथम विश्वयुद्ध कह सकते हैं क्योंकि शायद ही कोई ऐसा राज्य था जिसने इस युद्ध में भाग नहीं लिया।
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आर्यावर्त के समस्त राजा या तो कौरव अथवा पांडव के पक्ष में खड़े दिख रहे थे। श्रीबलराम और रुक्मी ये दो ही व्यक्ति ऐसे थे जिन्होंने इस युद्ध में भाग नहीं लिया।
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कम से कम हम सभी तो यही जानते हैं। किन्तु एक और राज्य ऐसा था जो युद्ध क्षेत्र में होते हुए भी युद्ध से विरत था। वो था दक्षिण के "उडुपी" का राज्य।
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जब उडुपी के राजा अपनी सेना सहित कुरुक्षेत्र पहुँचे तो कौरव और पांडव दोनों उन्हें अपनी ओर मिलाने का प्रयत्न करने लगे।
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उडुपी के राजा अत्यंत दूरदर्शी थे। उन्होंने श्रीकृष्ण से पूछा - "हे माधव ! दोनों ओर से जिसे भी देखो युद्ध के लिए लालायित दिखता है किन्तु क्या किसी ने सोचा है कि दोनों ओर से उपस्थित इतनी विशाल सेना के भोजन का प्रबंध कैसे होगा ?
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इस पर श्रीकृष्ण ने कहा - महाराज ! आपने बिलकुल उचित सोचा है। आपके इस बात को छेड़ने पर मुझे प्रतीत होता है कि आपके पास इसकी कोई योजना है। अगर ऐसा है तो कृपया बताएं।
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इसपर उडुपी नरेश ने कहा - "हे वासुदेव ! ये सत्य है। भाइयों के बीच हो रहे इस युद्ध को मैं उचित नहीं मानता इसी कारण इस युद्ध में भाग लेने की इच्छा मुझे नहीं है।
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किन्तु ये युद्ध अब टाला नहीं जा सकता इसी कारण मेरी ये इच्छा है कि मैं अपनी पूरी सेना के साथ यहाँ उपस्थित समस्त सेना के भोजन का प्रबंध करूँ।
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इस पर श्रीकृष्ण ने हर्षित होते हुए कहा - "महाराज ! आपका विचार अति उत्तम है। इस युद्ध में लगभग ५०००००० (५० लाख) योद्धा भाग लेंगे और अगर आप जैसे कुशल राजा उनके भोजन के प्रबंधन को देखेगा तो हम उस ओर से निश्चिंत ही रहेंगे।
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वैसे भी मुझे पता है कि सागर जितनी इस विशाल सेना के भोजन प्रबंधन करना आपके और भीमसेन के अतिरिक्त और किसी के लिए भी संभव नहीं है।
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भीमसेन इस युद्ध से विरत हो नहीं सकते अतः मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप अपनी सेना सहित दोनों ओर की सेना के भोजन का भार संभालिये।" इस प्रकार उडुपी के महाराज ने सेना के भोजन का प्रभार संभाला।
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पहले दिन उन्होंने उपस्थित सभी योद्धाओं के लिए भोजन का प्रबंध किया। उनकी कुशलता ऐसी थी कि दिन के अंत तक एक दाना अन्न का भी बर्बाद नहीं होता था।
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जैसे-जैसे दिन बीतते गए योद्धाओं की संख्या भी कम होती गयी। दोनों ओर के योद्धा ये देख कर आश्चर्यचकित रह जाते थे कि हर दिन के अंत तक उडुपी नरेश केवल उतने ही लोगों का भोजन बनवाते थे जितने वास्तव में उपस्थित रहते थे।
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किसी को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उन्हें ये कैसे पता चल जाता है कि आज कितने योद्धा मृत्यु को प्राप्त होंगे ताकि उस आधार पर वे भोजन की व्यवस्था करवा सकें।
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इतने विशाल सेना के भोजन का प्रबंध करना अपने आप में ही एक आश्चर्य था और उसपर भी इस प्रकार कि अन्न का एक दाना भी बर्बाद ना हो, ये तो किसी चमत्कार से कम नहीं था।
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अंततः युद्ध समाप्त हुआ और पांडवों की जीत हुई। अपने राज्याभिषेक के दिन आख़िरकार युधिष्ठिर से रहा नहीं गया और उन्होंने उडुपी नरेश से पूछ ही लिया
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हे महाराज ! समस्त देशों के राजा हमारी प्रशंसा कर रहे हैं कि किस प्रकार हमने कम सेना होते हुए भी उस सेना को परास्त कर दिया जिसका नेतृत्व पितामह भीष्म, गुरु द्रोण और हमारे ज्येष्ठ भ्राता कर्ण जैसे महारथी कर रहे थे।
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किन्तु मुझे लगता है कि हम सब से अधिक प्रशंसा के पात्र आप है जिन्होंने ना केवल इतनी विशाल सेना के लिए भोजन का प्रबंध किया अपितु ऐसा प्रबंधन किया कि एक दाना भी अन्न का व्यर्थ ना हो पाया। मैं आपसे इस कुशलता का रहस्य जानना चाहता हूँ।
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इसपर उडुपी नरेश ने हँसते हुए कहा - "सम्राट ! आपने जो इस युद्ध में विजय पायी है उसका श्रेय किसे देंगे ?
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इसपर युधिष्ठिर ने कहा "श्रीकृष्ण के अतिरिक्त इसका श्रेय और किसे जा सकता है ? अगर वे ना होते तो कौरव सेना को परास्त करना असंभव था।
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तब उडुपी नरेश ने कहा "हे महाराज ! आप जिसे मेरा चमत्कार कह रहे हैं वो भी श्रीकृष्ण का ही प्रताप है।" ऐसा सुन कर वहाँ उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए।
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तब उडुपी नरेश ने इस रहस्य पर से पर्दा उठाया और कहा - "हे महाराज! श्रीकृष्ण प्रतिदिन रात्रि में मूँगफली खाते थे।
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मैं प्रतिदिन उनके शिविर में गिन कर मूँगफली रखता था और उनके खाने के पश्चात गिन कर देखता था कि उन्होंने कितनी मूंगफली खायी है।
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वे जितनी मूँगफली खाते थे उससे ठीक १००० गुणा सैनिक अगले दिन युद्ध में मारे जाते थे। अर्थात अगर वे ५० मूँगफली खाते थे तो मैं समझ जाता था कि अगले दिन ५०००० योद्धा युद्ध में मारे जाएँगे।
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उसी अनुपात में मैं अगले दिन भोजन कम बनाता था। यही कारण था कि कभी भी भोजन व्यर्थ नहीं हुआ।" श्रीकृष्ण के इस चमत्कार को सुनकर सभी उनके आगे नतमस्तक हो गए।
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ये कथा महाभारत की सबसे दुर्लभ कथाओं में से एक है। कर्नाटक के उडुपी जिले में स्थित कृष्ण मठ में ये कथा हमेशा सुनाई जाती है।
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ऐसा माना जाता है कि इस मठ की स्थापना उडुपी के सम्राट द्वारा ही करवाई गयी थी जिसे बाद में ‌श्री माधवाचार्य जी ने आगे बढ़ाया।

Monday 21 January 2019

सन्तकी चिन्ता भगवान् में प्रतिफलित होती है"

.     ।।श्रीहरिः।।    

"सन्तकी चिन्ता भगवान् में प्रतिफलित होती है"
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             बात पुरानी है। परमपूज्य श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार "श्रीभाईजी" अपने रोग के निदान के लिये दिल्ली गये हुए थे कि एक वृद्ध वैश्य उनके कमरे में प्रविष्ट हुआ। अभिवादन के पश्चात् वैश्य बन्धु ने अपनी राम कहानी सुनायी। उसने बताया--'मैं राजस्थान के बिसाऊ नगर का रहने-वाला हूँ। दो महीने पूर्व मैंने अपनी द्वितीय कन्या का विवाह किया था। पास में पैसा न होने से बड़ी विवाहिता कन्या का गहना लेकर छोटी कन्या को विवाह के अवसर पहना दिया गया। अब बड़ी कन्या के ससुराल लौटने का समय हो गया है। उधर छोटी कन्या का गौना होने वाला है। बड़ी कन्या का गहना वापस न दिया जाय तो वह अपने ससुराल क्या मुँह लेकर जायेगी और छोटी कन्या को यदि बिना गहने के विदा किया जायेगा तो उसके ससुराल वाले उसे तथा मुझे क्या कहेंगे ? इज्ज्त का प्रश्न है। कई व्यक्तियों से रुपये माँगे, पर किसी ने सहयोग नहीं दिया। आखिर एक सज्जन ने आपका नाम बताया। मैं आपसे मिलने रतनगढ़ गया, पर ज्ञात हुआ कि आप उपचार के लिये दिल्ली गये हैं और अमुक स्थान पर ठहरे हैं। अतएव मैं यहाँ आया हूँ। मेरी आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर है कि यहाँ तक आने का किराया भी एक व्यक्ति से उधार लिया है।आठ-दस दिनों में दोनों कन्याओं को विदा करना है। किसी प्रकार आप मेरी इज्जत बचा लीजिए।' -- यों कहते-कहते वे बन्धु रोने लगे। श्रीमान भाईजी ने बड़ी ही सहानुभूति के साथ उनकी बात सुनी, पर उनके पास पैसे की व्यवस्था नहीं थी। उन्होंने आर्त बन्धु को सान्त्वना देते हुये कहा-- 'इस समय तो मेरे पास आपको देने के लिये कुछ भी नहीं है । भगवान् ने बाद में कुछ व्यवस्था की तो मैं आपको बीमा से रुपये भिजवा दूँगा।आने-जाने के किराये के रुपये मैं आपको दे देता हूँ'। पर 'रहत न आरत के चित चेतू' -- वृद्ध वैश्य ने रोते हुए श्रीभाईजी के चरण पकड़ लिये और प्रार्थना की-- 'दोनों लड़कियों को दस दिन बाद विदा करना है, यदि दस दिनों में रुपयों की व्यवस्था न हुई तो मैं मुँह दिखाने योग्य नहीं रहूँगा। आप जैसे भी रुपयों की व्यवस्था एक-दो दिन में कीजिये।'
          उस बन्धु के व्यथा भरे शब्दों ने श्रीभाईजी के ह्रदय को भी द्रवित कर दिया। वे सजल नेत्रों से बड़ी हि विनम्रता के साथ उन्हें समझाने लगे-- 'इस समय मेरे पास आपकी सहायता करने की व्यवस्था नहीं है और न मैं जिन स्वजन के यहाँ ठहरा हूँ, उन्हें इस सम्बन्ध में कुछ कह सकता हूँ। मैं किसी को भी रुपयों के लिए प्रायः नहीं कहता। आपके कष्ट के साथ मेरी आन्तरिक सहानुभूति है। आप भगवान् को पुकारिये, वाले विश्वम्भर हैं, वे आपकी प्रार्थना अवश्य सुनेंगे। मैं ह्रदय से चाहता हूँ कि आपका कष्ट दूर हो।'
        श्रीभाईजी के सान्त्वनपूर्ण शब्दों का आर्त बन्धु पर कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ। वे उसी प्रकार रोते-रोते अपनी माँग की पूर्ति की प्रार्थना करते रहे। श्रीभाईजी बार-बार यही समझाते रहे--'भगवान को पुकारिये, उनकी कृपा पर विश्वास कीजिये'। इसी बीच कमरे में एक महिला ने प्रवेश किया। श्रीभाईजी ने उन्हें देखते ही आश्चर्यचकित हो कहा--'भाभीजी ! आप यहाँ कहाँ ?' आगन्तुक महिला रतनगढ़ के सम्भ्रान्त अजितसरिया परिवार की थीं और श्रीभाईजी का उस परिवार से बड़ा ही आत्मीयता का सम्बन्ध था। उनके पतिदेव श्रीभाईजी से बड़े थे, इस नाते श्रीभाईजी उन्हें'भाभीजी' के रूप में मानते थे। भाभीजी का शब्दों से स्वागत करने के साथ ही श्रीभाईजी ने वृद्ध वैश्य बन्धु से कहा-- 'मुझे इनसे मिलना है, आप धीरज रखिये और कुछ देर बाहर बैठिये।'
         वे धोती से नेत्र पोंछते हुए बाहर चले गये। भाभीजी ने आते ही श्रीभाईजी से उनके स्वास्थ्य के सम्बन्ध में प्रश्न किया। श्रीभाईजी ने पूछा--'आप यहाँ कैसे आयीं और आपको मेरी अस्वस्थता के सम्बन्ध में कैसे जानकारी हुई! !' भाभीजी ने बताया--'मैं कलकत्ता से रतनगढ़ जाने के लिए सुबह दिल्ली पहुंची। रतनगढ़ के लिये शाम को गाड़ी मिलेगी। दिनभर प्लेटफार्म पर रहना था। वहाँ एक व्यक्ति ने प्रसंगवश बताया कि आप अस्वस्थ हैं और उपचार के लिये दिल्ली आये हुए हैं। आपसे मिले काफी दिन भी हो गये थे। अतएव मिलने चली आयी।' श्रीभाईजी ने अपने स्वास्थ्य के विषय में जानकारी दी। भाभीजी पुनः बोलीं--'ये सज्जन, जो रोते हुए बाहर गये हैं, कौन हैं और क्यों रो रहे हैं !' श्रीभाईजी ने बात को टालते हुए कहा--'भाभीजी !  मेरे पास बहुत प्रकार के लोग आते हैं और उनके तरह-तरह के दुःख होते हैं।' पर भाभीजी को इससे संतोष नहीं हुआ वे सही बात बताने के लिये आग्रह करने लगीं। श्रीभाईजी ने वृद्ध वैश्य की पूरी व्यथा भाभीजी से कह दी। ज्यों ही श्रीभाईजी ने बोलना बंद किया कि भाभीजी ने अपने कब्जे से रुमाल में बँधी हुई एक छोटी पोटली निकाली। पोटली खोलते हुए उन्होंने कहा--'भाईजी ! ये कुछ रुपये हैं, उन दुःखी भाई के काम में ले लीजिये।' श्रीभाईजी महिलाओं से इस प्रकार का सम्बन्ध रखने में सदा विशेष संकोच करते थे। फिर भाभीजी उनसे मिलने आयी थीं। इस स्थिति में उनसे रूपये स्वीकार करने में श्रीभाईजी को संकोच होना स्वभाविक था। पर भाभीजी ने आग्रह किया रूपये स्वीकार करने का। उन्होंने बताया--'घर में त्यौहार आदि पर बहुओं से जो कुछ मिलता रहता है, उसे मैं अलग रखती हूँ। थोड़ा-थोड़ा करते इतने रुपये हो गये। मैंने सोचा--देश जा रही हूँ, किसी की आवश्यकता पर काम आयेंगे। भगवान् की कृपा से पात्र यहीं मिल गया, इससे अच्छा उपयोग इन रुपयों का और क्या होगा ? आप संकोच न करें, रुपये उसे अवश्य दे दें।' भाभीजी के आग्रह को श्रीभाईजी टाल न सके। उन्होंने रुपये हाथ में लिये और गिने--२७००/-रुपये थे। श्रीभाईजी ने भाभीजी से कहा--'उस भाई को भी २७००/- की ही आवश्यकता है। भगवान् ने आपके रूप में यह व्यवस्था की है। मैंने उसे यही कहा था--भगवान् पर विश्वास कीजिये उनके हाथ बहुत लम्बे हैं, वे विश्वम्भर हैं, सबका भरण-पोषण करते हैं उन्हें पुकारिये। मेरा ह्रदय भी उनकी व्यथा के कारण व्यथित था।भगवान् ने सुन ली।'
          श्रीभाईजी ने बाहर से वृद्ध सज्जन को बुलाया और २७००/- रुपये उन्हें देते हुए कहा-- 'देखें भगवान् किस प्रकार व्यवस्था करते हैं ! आपको जितने रुपये की आवश्यकता थी, उतने ही रुपये भाभीजी लेकर कल कलकत्ते से चलीं। घर जाकर रुपयों से लड़की का गहना बनवा लें। आने-जाने में जो खर्च लगा है, उसके लिये इतने रुपये मैं अपने पास से दे रहा हूँ।' यों कहते हुए श्रीभाईजी ने रुपयों का पुलिन्दा वृद्ध वैश्य भाई के हाथ में थमा दिया। श्रीभाईजी के रूप में कल्पवृक्ष को प्राप्त कर वृद्ध बन्धु के नेत्र बरस पड़े; पहले उनके आँसू दुःख के थे, अब हर्ष और कृतज्ञता के।

                         "जय जय श्री राधे"

THE LAST DAYS OF MRINALINI DEVI AND SRI AUROBINDO’S LETTER TO HIS FATHER-IN-LAW

THE LAST DAYS OF MRINALINI DEVI AND SRI AUROBINDO’S LETTER TO HIS FATHER-IN-LAW This is the last of the posts we have published ...