Monday 21 January 2019

सन्तकी चिन्ता भगवान् में प्रतिफलित होती है"

.     ।।श्रीहरिः।।    

"सन्तकी चिन्ता भगवान् में प्रतिफलित होती है"
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             बात पुरानी है। परमपूज्य श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार "श्रीभाईजी" अपने रोग के निदान के लिये दिल्ली गये हुए थे कि एक वृद्ध वैश्य उनके कमरे में प्रविष्ट हुआ। अभिवादन के पश्चात् वैश्य बन्धु ने अपनी राम कहानी सुनायी। उसने बताया--'मैं राजस्थान के बिसाऊ नगर का रहने-वाला हूँ। दो महीने पूर्व मैंने अपनी द्वितीय कन्या का विवाह किया था। पास में पैसा न होने से बड़ी विवाहिता कन्या का गहना लेकर छोटी कन्या को विवाह के अवसर पहना दिया गया। अब बड़ी कन्या के ससुराल लौटने का समय हो गया है। उधर छोटी कन्या का गौना होने वाला है। बड़ी कन्या का गहना वापस न दिया जाय तो वह अपने ससुराल क्या मुँह लेकर जायेगी और छोटी कन्या को यदि बिना गहने के विदा किया जायेगा तो उसके ससुराल वाले उसे तथा मुझे क्या कहेंगे ? इज्ज्त का प्रश्न है। कई व्यक्तियों से रुपये माँगे, पर किसी ने सहयोग नहीं दिया। आखिर एक सज्जन ने आपका नाम बताया। मैं आपसे मिलने रतनगढ़ गया, पर ज्ञात हुआ कि आप उपचार के लिये दिल्ली गये हैं और अमुक स्थान पर ठहरे हैं। अतएव मैं यहाँ आया हूँ। मेरी आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर है कि यहाँ तक आने का किराया भी एक व्यक्ति से उधार लिया है।आठ-दस दिनों में दोनों कन्याओं को विदा करना है। किसी प्रकार आप मेरी इज्जत बचा लीजिए।' -- यों कहते-कहते वे बन्धु रोने लगे। श्रीमान भाईजी ने बड़ी ही सहानुभूति के साथ उनकी बात सुनी, पर उनके पास पैसे की व्यवस्था नहीं थी। उन्होंने आर्त बन्धु को सान्त्वना देते हुये कहा-- 'इस समय तो मेरे पास आपको देने के लिये कुछ भी नहीं है । भगवान् ने बाद में कुछ व्यवस्था की तो मैं आपको बीमा से रुपये भिजवा दूँगा।आने-जाने के किराये के रुपये मैं आपको दे देता हूँ'। पर 'रहत न आरत के चित चेतू' -- वृद्ध वैश्य ने रोते हुए श्रीभाईजी के चरण पकड़ लिये और प्रार्थना की-- 'दोनों लड़कियों को दस दिन बाद विदा करना है, यदि दस दिनों में रुपयों की व्यवस्था न हुई तो मैं मुँह दिखाने योग्य नहीं रहूँगा। आप जैसे भी रुपयों की व्यवस्था एक-दो दिन में कीजिये।'
          उस बन्धु के व्यथा भरे शब्दों ने श्रीभाईजी के ह्रदय को भी द्रवित कर दिया। वे सजल नेत्रों से बड़ी हि विनम्रता के साथ उन्हें समझाने लगे-- 'इस समय मेरे पास आपकी सहायता करने की व्यवस्था नहीं है और न मैं जिन स्वजन के यहाँ ठहरा हूँ, उन्हें इस सम्बन्ध में कुछ कह सकता हूँ। मैं किसी को भी रुपयों के लिए प्रायः नहीं कहता। आपके कष्ट के साथ मेरी आन्तरिक सहानुभूति है। आप भगवान् को पुकारिये, वाले विश्वम्भर हैं, वे आपकी प्रार्थना अवश्य सुनेंगे। मैं ह्रदय से चाहता हूँ कि आपका कष्ट दूर हो।'
        श्रीभाईजी के सान्त्वनपूर्ण शब्दों का आर्त बन्धु पर कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ। वे उसी प्रकार रोते-रोते अपनी माँग की पूर्ति की प्रार्थना करते रहे। श्रीभाईजी बार-बार यही समझाते रहे--'भगवान को पुकारिये, उनकी कृपा पर विश्वास कीजिये'। इसी बीच कमरे में एक महिला ने प्रवेश किया। श्रीभाईजी ने उन्हें देखते ही आश्चर्यचकित हो कहा--'भाभीजी ! आप यहाँ कहाँ ?' आगन्तुक महिला रतनगढ़ के सम्भ्रान्त अजितसरिया परिवार की थीं और श्रीभाईजी का उस परिवार से बड़ा ही आत्मीयता का सम्बन्ध था। उनके पतिदेव श्रीभाईजी से बड़े थे, इस नाते श्रीभाईजी उन्हें'भाभीजी' के रूप में मानते थे। भाभीजी का शब्दों से स्वागत करने के साथ ही श्रीभाईजी ने वृद्ध वैश्य बन्धु से कहा-- 'मुझे इनसे मिलना है, आप धीरज रखिये और कुछ देर बाहर बैठिये।'
         वे धोती से नेत्र पोंछते हुए बाहर चले गये। भाभीजी ने आते ही श्रीभाईजी से उनके स्वास्थ्य के सम्बन्ध में प्रश्न किया। श्रीभाईजी ने पूछा--'आप यहाँ कैसे आयीं और आपको मेरी अस्वस्थता के सम्बन्ध में कैसे जानकारी हुई! !' भाभीजी ने बताया--'मैं कलकत्ता से रतनगढ़ जाने के लिए सुबह दिल्ली पहुंची। रतनगढ़ के लिये शाम को गाड़ी मिलेगी। दिनभर प्लेटफार्म पर रहना था। वहाँ एक व्यक्ति ने प्रसंगवश बताया कि आप अस्वस्थ हैं और उपचार के लिये दिल्ली आये हुए हैं। आपसे मिले काफी दिन भी हो गये थे। अतएव मिलने चली आयी।' श्रीभाईजी ने अपने स्वास्थ्य के विषय में जानकारी दी। भाभीजी पुनः बोलीं--'ये सज्जन, जो रोते हुए बाहर गये हैं, कौन हैं और क्यों रो रहे हैं !' श्रीभाईजी ने बात को टालते हुए कहा--'भाभीजी !  मेरे पास बहुत प्रकार के लोग आते हैं और उनके तरह-तरह के दुःख होते हैं।' पर भाभीजी को इससे संतोष नहीं हुआ वे सही बात बताने के लिये आग्रह करने लगीं। श्रीभाईजी ने वृद्ध वैश्य की पूरी व्यथा भाभीजी से कह दी। ज्यों ही श्रीभाईजी ने बोलना बंद किया कि भाभीजी ने अपने कब्जे से रुमाल में बँधी हुई एक छोटी पोटली निकाली। पोटली खोलते हुए उन्होंने कहा--'भाईजी ! ये कुछ रुपये हैं, उन दुःखी भाई के काम में ले लीजिये।' श्रीभाईजी महिलाओं से इस प्रकार का सम्बन्ध रखने में सदा विशेष संकोच करते थे। फिर भाभीजी उनसे मिलने आयी थीं। इस स्थिति में उनसे रूपये स्वीकार करने में श्रीभाईजी को संकोच होना स्वभाविक था। पर भाभीजी ने आग्रह किया रूपये स्वीकार करने का। उन्होंने बताया--'घर में त्यौहार आदि पर बहुओं से जो कुछ मिलता रहता है, उसे मैं अलग रखती हूँ। थोड़ा-थोड़ा करते इतने रुपये हो गये। मैंने सोचा--देश जा रही हूँ, किसी की आवश्यकता पर काम आयेंगे। भगवान् की कृपा से पात्र यहीं मिल गया, इससे अच्छा उपयोग इन रुपयों का और क्या होगा ? आप संकोच न करें, रुपये उसे अवश्य दे दें।' भाभीजी के आग्रह को श्रीभाईजी टाल न सके। उन्होंने रुपये हाथ में लिये और गिने--२७००/-रुपये थे। श्रीभाईजी ने भाभीजी से कहा--'उस भाई को भी २७००/- की ही आवश्यकता है। भगवान् ने आपके रूप में यह व्यवस्था की है। मैंने उसे यही कहा था--भगवान् पर विश्वास कीजिये उनके हाथ बहुत लम्बे हैं, वे विश्वम्भर हैं, सबका भरण-पोषण करते हैं उन्हें पुकारिये। मेरा ह्रदय भी उनकी व्यथा के कारण व्यथित था।भगवान् ने सुन ली।'
          श्रीभाईजी ने बाहर से वृद्ध सज्जन को बुलाया और २७००/- रुपये उन्हें देते हुए कहा-- 'देखें भगवान् किस प्रकार व्यवस्था करते हैं ! आपको जितने रुपये की आवश्यकता थी, उतने ही रुपये भाभीजी लेकर कल कलकत्ते से चलीं। घर जाकर रुपयों से लड़की का गहना बनवा लें। आने-जाने में जो खर्च लगा है, उसके लिये इतने रुपये मैं अपने पास से दे रहा हूँ।' यों कहते हुए श्रीभाईजी ने रुपयों का पुलिन्दा वृद्ध वैश्य भाई के हाथ में थमा दिया। श्रीभाईजी के रूप में कल्पवृक्ष को प्राप्त कर वृद्ध बन्धु के नेत्र बरस पड़े; पहले उनके आँसू दुःख के थे, अब हर्ष और कृतज्ञता के।

                         "जय जय श्री राधे"

THE LAST DAYS OF MRINALINI DEVI AND SRI AUROBINDO’S LETTER TO HIS FATHER-IN-LAW

THE LAST DAYS OF MRINALINI DEVI AND SRI AUROBINDO’S LETTER TO HIS FATHER-IN-LAW This is the last of the posts we have published ...