Saturday, 20 February 2021

शनिदेव आध्यात्मिक एवं ज्योतिषीय दृष्टिकोण

शनिदेव आध्यात्मिक एवं ज्योतिषीय दृष्टिकोण... 
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सभी नौ ग्रहों में शनिदेव का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, शनि को न्यायाधीश का पद प्राप्त है,इस कारण से शनि ही हमारे कर्मों का शुभ-अशुभ फल प्रदान करते हैं,जिस व्यक्ति के जैसे कर्म होते हैं ठीक वैसे ही फल शनि प्रदान करते हैं।

शास्त्रों के अनुसार 
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हिन्दी पंचांग के ज्येष्ठ मास में आने वाली अमावस्या की रात में शनिदेव का जन्म हुआ था। शनिदेव को सूर्य का पुत्र माना गया है, इनकी माता का नाम छाया है,सूर्य की पत्नी छाया के पुत्र होने के कारण इनका रंग काला है,मनु और यमराज शनि के भाई हैं तथा यमुनाजी इनकी बहन हैं,
ऐसा माना जाता है कि शनि का विवाह 
चित्ररथ (गंधर्व) की कन्या से हुआ था,यदि किसी व्यक्ति के कर्म पवित्र हैं तो शनि सुखी-समृद्धि जीवन प्रदान करते है,
किसानों के लिए शनि मददगार होते हैं,गरीब और असहाय लोगों पर शनि की विशेष कृपा रहती है,जो लोग किसी गरीब को परेशान करते हैं उन्हें शनि के कोप का सामना करना पड़ता है। शनि पश्चिम दिशा के स्वामी हैं, वायु इनका तत्व है।साथ ही शनि व्यक्ति के शारीरिक बल को भी प्रभावित करता है। यदि आपका वैवाहिक जीवन नीरस है,जीवनसाथी से नही बनती 
या झगड़े होते हो तो समझ लीजिएगा आपका जीवन शनि से प्रभावित हो रहा है और आपकी कुंडली में शनि की स्थिति अच्छी नही है, शनि की स्थिति से भी गृहस्थ जीवन में सुख नही मिल पाता।
जीवन साथी से विचार नही मिलते या जीवन साथी किसी न किसी बीमारी से पीडित रहता है।

ब्रह्मवैवर्त पुराण की कथा
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गणेशजी का जन्म होने पर सभी ग्रह उनका दर्शन करने के लिए कैलाश पर्वत पर पहुँचे। जैसे ही शनि ने भगवान गणेशजी के चेहरे पर नज़र डाली तो 
उनका मस्तक कट कर धरती पर गिर गया। बाद में हाथी का सिर उनके धड़ पर लगाकर बालक गणेश को जीवित किया गया।शास्त्रों की यही बातें ज्योतिष में भी प्रतिबिम्बित होती हैं। ज्योतिष में शनि को ठण्डा ग्रह माना गया है जो बीमारी शोक और आलस्य का कारक है। लेकिन यदि शनि शुभ हो तो  व्यक्ति को ऊंचाइयों तक भी ले जाता है।

शनि-प्रसन्नता हेतु शनि साधना
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साधना कर शनिदेव को प्रसन्न और करे शनि शान्ति साधना करे 
 
साधना के नियम
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👉 साधना-शनिअमावस्या शनिवार या शनि जयन्ती से आरम्भ करें।
👉 साधना-समय सूर्योदय के पूर्व या सूर्यास्त के बाद
👉 पुरुष सफेद या नीला वस्त्र करके
👉 स्त्री नीला वस्त्र धारण करके 
👉 मुख की दिशा दक्षिण 
👉 लकड़ी की चौकी पर सवा मीटर काला वस्त्र बिछा कर चारो किनारे पर कील लगा दे, ध्यान रहे [ बर्तन स्टील या लोहे का ही प्रयोग करे ] एक बड़ी थाली या परात में सवा किलो काला [ खड़ा ] उड़द और सवा किलो काला तिल रख लें, 
अब सवा सौ ग्राम सरसों का तेल उडद और तिल में मिला दें, अब पुनः एक स्टील के पात्र में शनिदेव की प्रतिमा या शनि यंत्र रख दे, अब आप शनि यंत्र या प्रतिमा पर कुंकुम केसर अष्टगंध से तिलक करे 
और फिर कुंकुम अष्टगंध से उस परात या थाली में "श्रीं" लिख दें अब 
सामाग्री सहित यंत्र या प्रतिमा स्थापित कर दे।

ॐ श्री शनिदेवाय नमो नमः
ॐ श्री शनिदेवाय शान्ति भव:
ॐ श्री शनिदेवाय शुभम फल:
ॐ श्री शनिदेवाय फल: प्राप्ति फल:।

हाथ जोड़कर ध्यान करे
ॐ भगभवाय विदमहे मृत्यु रूपाय धीमहि तन्नो शौरि: प्रचोदयात। ध्यान के बाद पंचोपचार विधि से शनिदेव का पुजन करें इसके बाद तिल-लड्डू गुड का भोग लगाये
और 

ॐ स्वः भुव:  ॐ स: खों खीं खां ॐ शनैश्चराय नमः 

या 

ॐ शं शनि शनैश्चराय नमः 
मन्त्र का अपने सुविधानुसार जप करे।

शनि देव के लिये सप्तधान्य 
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मूंगी, उड़द, गेहूं, काले-चने, जौ, धान्य "तंदुल" कंगनी आदि शनिदेवको अर्पण कर दान करें।

अष्टगंध धूप 
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अगर, छरीला, जटामासी, कर्पूर-कचरी, गुग्गल, देव दारू, गोघृत, सफ़ेद चन्दन आदि की धूप से पूजन करें।

अष्टगंध
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अगर, कस्तूरी, कुकुम, कर्पूर, चन्दन, लौंग, देवदारु, गुग्गुल आदि अष्टगंध का प्रयोग पूजा में करें।

शनिदेव की प्रंसन्नता के उपाय
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शनि देव के वैदिक और लौकिक अनेकों उपाये हैं।जिनके करने पर जीव को शांति प्राप्त होती है। शनि देव स्थूल भाव से चलन, वलन, निरोध, और आकुंचन पर प्रभाव होता है और शून्य भाव के अनुसार व्यान, समान, उड़ान, अपान और प्राण वायु पर प्रभाव होता है, शनि देव की जब तक दशा चलती रहे तब तक शनि को ३० मोदक का भोग लगाना या दान देना शुभ होता है। शनि देव को नारियल और पेठे की बलि देनी चाहिये।

शनि गायत्री मन्त्र 
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ॐ सूर्यपुत्राय विद्महे मृत्युरूपाय धीमहि तन्न सौरि प्रचोदयात।
शनि गायत्री मन्त्र 
सब से उत्तम कहा गया है।

शनिदेव का तंत्रोक्त मन्त्र 
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ॐ प्रां प्रीं प्रों स: शनये नम:।

शनि देव का पौराणिक मन्त्र
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ॐ नीलांजणसभाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम।
छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।।

शनि वैदिक मन्त्र
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ॐ खां खीं खौं स: ॐ भूर्भव: स्व: ॐ शन्नो देवीरभिष्टय आपो भन्तु पीतये शं योरभिस्त्रवन्तु न:
ॐ स्व: भुव: भू: ॐ स: खौं खीं खां ॐ शनैश्चराय नम: ||

शनिदेव सदा हमारे अंदर वायुरूप में स्थित रहते हैं प्रसन्न हो जाएँ तो तीनों तापों से मुक्ति यदि न हो तो तीन ताप मनुष्य को घेर लेते हैं शनि के स्वभाव में बदलाव ग्रहों की युति के अनुसार भी होता रहता है शनि को मंगल ही रास्ते पर लाता है,शनि
वायु तो मंगल अग्नि है।

अरिष्ट शनि की शान्ति के उपाय
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👉शनिवार का व्रत रखे।
👉 नीला या सफेद रंग का वस्त्र धारण करे।
👉 बाल्टी मांज कर जल भर कर पश्चिम दिशा की ओर मुख कर स्नान करे।
👉 स्नान के पूर्व सरसों के तेल की पूरे शरीर पर लगायें।
👉 33 दिनों तक कौओ की रोटी खिलाएं।
👉 लोहा या काली खड़ी उड़द का दान करे।
👉 सरसों के तेल में अपना मुख देख कर दान करे।
👉 स्पेस वाला लोहे का रिंग मध्यमा में पहने।
👉 नीलम ( चेक करने के उपरान्त )किसी ज्योतिषी की सलाह पर ही धारण करे या जमुनियां या कटैला मध्यमा में धारण करे।
👉 शनिवार को सांयकाल पीपल वृक्ष के पास सरसों का दीपक धूपबत्ती जला कर 7 बार श्रीहनुमान चलीसा का पाठ कर स्टील के बर्तन में जल में काला तिल डाल कर पीपल पर अर्पित कर दीपक से 7 बार आरती उतार कर 7 बार पीपल की परिक्रमा करे।
👉 मंगलवार की शाम को घर में श्रीसुन्दरकाण्ड का पाठ करे।

शनिवार व्रत कथा
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एक समय स्वर्गलोक में सबसे बड़ा कौन के प्रश्न को लेकर सभी देवताओं में वाद-विवाद प्रारम्भ हुआ और फिर परस्पर भयंकर युद्ध की स्थिति बन गई. सभी देवता देवराज इंद्र के पास पहुंचे और बोले, देवराज! आपको निर्णय करना होगा कि नौ ग्रहों में सबसे बड़ा कौन है? देवताओं का प्रश्न सुनकर देवराज इंद्र उलझन में पड़ गए. और कुछ देर सोच कर बोले, देवगणों! मैं इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हूं.

पृथ्वीलोक में उज्ज्यिनी नगरी में राजा विक्रमादित्य का राज्य है. हम राजा विक्रमादित्य के पास चलते हैं क्योंकि वह न्याय करने में अत्यंत लोकप्रिय हैं. उनके सिंहासन में अवश्य ही कोई जादू है कि उस पर बैठकर राजा विक्रमादित्य दूध का दूध और पानी का पानी अलग करने का न्याय करते हैं.

देवराज इंद्र के आदेश पर सभी देवता पृथ्वी लोक में उज्ज्यिनी नगरी में पहुंचे. देवताओं के आगमन का समाचार सुनकर स्वयं राजा विक्रमादित्य ने उनका स्वागत किया. महल में पहुंचकर जब देवताओं ने उनसे अपना प्रश्न पूछा तो राजा विक्रमादित्य भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे. क्योकि सभी देवता अपनी-अपनी शक्तियों के कारण महान शक्तिशाली थे. किसी को भी छोटा या बड़ा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुंच सकती थी.

तभी राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं- स्वर्ण, रजत, कांसा, तांबा, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक, व लोहे के नौ आसन बनवाए. धातुओं के गुणों के अनुसार सभी आसनों को एक-दूसरे के पीछे रखवा कर उन्होंने देवताओं को अपने-अपने सिंहासन पर बैठने को कहा, सब देवताओं के बैठने के बाद राजा विक्रमादित्य ने कहा, आपका निर्णय तो स्वयं हो गया. जो सबसे पहले सिंहासन पर विराजमान है, वही सबसे बड़ा है. राजा विक्रमादित्य के निर्णय को सुनकर शनि देवता ने सबसे पीछे आसन पर बैठने के कारण अपने को छोटा जानकर क्रोधित होकर कहा, राजन! तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है.

तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो. मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा, सूर्य एक राशि पर एक महीने, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, वृहस्पति तेरह महीने रहते हैं लेकिन मैं किसी राशि पर साढ़े सात वर्ष रहता हूं. बड़े-बड़े देवताओं को मैंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है. राम को साढ़े साती के कारण ही वन में जाकर रहना पड़ा और रावण को साढ़े साती के कारण ही युद्ध में मृत्यु का शिकार बनना पड़ा. 

उसके वंश का सर्वनाश हो गया. राजा! अब तू भी मेरे प्रकोप से नहीं बच सकेगा. राजा विक्रमादित्य शनि देवता के प्रकोप से थोड़ा भयभीत तो हुए, लेकिन उन्होंने मन में विचार किया, मेरे भाग्य में जो लिखा होगा, ज्यादा से ज्यादा वही तो होगा. फिर शनि के प्रकोप से भयभीत होने की आवश्यकता क्या है?

उसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ वहां से चले गए, लेकिन शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहां से विदा हुए. राजा विक्रमादित्य पहले की तरह ही न्याय करते रहे. उनके राज्य में सभी स्त्री पुरुष बहुत आनंद से जीवन-यापन कर रहे थे. कुछ दिन ऐसे ही बीत गए. उधर शनिदेवता अपने अपमान को भूले नहीं थे. विक्रमादित्य से बदला लेने के लिए एक दिन शनिदेव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोड़ों के साथ उज्ज्यिनी नगरी में पहुंचे.

राजा विक्रमादित्य ने राज्य में किसी घोड़े के व्यापारी के आने का समाचार सुना तो अपने अश्वपाल को कुछ घोड़े खरीदने के लिए भेजा. अश्वपाल ने वहां जाकर घोड़ों को देखा तो बहुत खुश हुआ. लेकिन घोड़ों का मूल्य सुन कर उसे बहुत हैरानी हुई. घोड़े बहुत कीमती थे. अश्वपाल ने जब वापस लौटकर इस संबंध में बताया तो राजा ने स्वयं आकर एक सुंदर व शक्तिशाली घोड़े को पसंद किया.

घोड़े की चाल देखने के लिए राजा उस घोड़े पर सवार हुआ तो वह घोड़ा बिजली की गति से दौड़ पड़ा. तेजी से दौड़ता हुआ घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर राजा को वहां गिराकर जंगल में कहीं गायब हो गया. राजा अपने नगर को लौटने के लिए जंगल में भटकने लगा. 

लेकिन उसे लौटने का कोई रास्ता नहीं मिला. राजा को भूख-प्यास लग आई. बहुत घूमने पर उसे एक चरवाहा मिला. राजा ने उससे पानी मांगा. पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अंगूठी दे दी. फिर उससे रास्ता पूछकर वह जंगल से बाहर निकलकर पास के नगर में पहुंचा.

राजा ने एक सेठ की दुकान पर बैठकर कुछ देर आराम किया. उस सेठ ने राजा से बातचीत की तो राजा ने उसे बताया कि मैं उज्ज्यिनी से आया हूं. राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठजी की बहुत बिक्री हुई. सेठ ने राजा को बहुत भाग्यवान समझा और उसे अपने घर भोजन के लिए ले गया. सेठ के घर में सोने का एक हार खूंटी पर लटका हुआ था. राजा को उस कमरे में अकेला छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर गया.

तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी. राजा के देखते-देखते सोने के उस हार को खूंटी निगल गई, सेठ ने कमरे में लौटकर हार को गायब देखा तो चोरी का सन्देह राजा पर ही किया, क्योंकि उस कमरे में राजा ही अकेला बैठा था. सेठ ने अपने नौकरों से कहा कि इस परदेसी को रस्सियों से बांधकर नगर के राजा के पास ले चलो. राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसके देखते ही देखते खूंटी ने हार को निगल लिया था.

इस पर राजा ने क्रोधित होकर चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटने का आदेश दे दिया, राजा विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटकर उसे नगर की सड़क पर छोड़ दिया गया. कुछ दिन बाद एक तेली उसे उठाकर अपने घर ले गया और उसे अपने कोल्हू पर बैठा दिया. राजा आवाज देकर बैलों को हांकता रहता. इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा. शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने पर वर्षा ॠतु प्रारम्भ हुई.

राजा विक्रमादित्य एक रात मेघ मल्हार गा रहा था कि तभी नगर के राजा की लड़की राजकुमारी मोहिनी रथ पर सवार उस तेली के घर के पास से गुजरी. उसने मेघ मल्हार सुना तो उसे बहुत अच्छा लगा और दासी को भेजकर गानेवाले को बुला लाने को कहा. दासी ने लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया.

राजकुमारी उसके मेघ मल्हार पर बहुत मोहित हुई थी. अत:उसने सब कुछ जानकर भी अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय कर लिया. राज कुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वे हैरान रह गये. राजा को लगा कि उसकी बेटी पागल हो गई है. रानी ने मोहिनी को समझाया, बेटी! तेरे भाग्य में तो किसी राजा की रानी होना लिखा है. फिर तू उस अपंग से विवाह करके अपने पांव पर कुल्हाड़ी क्यों मार रही है?

राजा ने किसी सुंदर राजकुमार से उसका विवाह करने की बात कही. लेकिन राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी. अपनी जिद पूरी कराने के लिए उसने भोजन करना छोड़ दिया और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया. आखिर राजा, रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पडा. विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे. उसी रात स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा, आज! तुमने मेरा प्रकोप देख लिया. मैंने तुम्हें अपने अपमान का दण्ड दिया है.

राजा ने शनिदेव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की, हे शनिदेव! आपने जितना दु:ख मुझे दिया है, अन्य किसी को न देना, शनिदेव ने कुछ सोचते हुए कहा, अच्छा! मैं तेरी प्रार्थना स्वीकार करता हूं. जो कोई स्त्री-पुरुष मेरी पूजा करेगा, शनिवार को व्रत कर के मेरी कथा सुनेगा, उस पर मेरी अनुकम्पा बनी रहेगी. उसे कोई दुख नहीं होगा.

शनिवार को व्रत करने और चींटियों को आटा डालने से मनुष्य की सभी मनोकामनाएं पूरी होंगी. प्रात:काल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पांव देखकर राजा को बहुत खुशी हुई. उसने मन-ही-मन शनिदेव को प्रणाम किया. राजकुमारी भी राजा के हाथ-पांव सही सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई. तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनिदेव के प्रकोप की सारी कहानी कह सुना.

सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौड़ता हुआ तेली के घर पहुंचा और राजा के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा. राजा ने उसे क्षमा कर दिया, क्योकि यह सब तो शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था. सेठ राजा को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया. भोजन करते समय वहां एक आश्चर्यजनक घटना घटी. सबके देखते-देखते उस खूंटी ने वह हार उगल दिया. सेठजी ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण-आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया.

राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मोहिनी और सेठ की बेटी के साथ उज्ज्यिनी पहुंचे तो नगरवासियों ने हर्ष से उनका स्वागत किया. उस रात उज्ज्यिनी नगरी में दीप जलाकर लोगों ने दीवाली मनाई. अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा करवाई, च्शनिदेव सब देवों में सर्वश्रेष्ठ हैं.

 प्रत्येक स्त्री पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रत कथा अवश्य सुनें. राजा विक्रमादित्य की घोषणा से शनिदेव बहुत प्रसन्न हुए. शनिवार का व्रत करने और कथा सुनने के कारण सभी लोगों की मनोकामनाएं शनिदेव की अनुकम्पा से पूरी होने लगीं. सभी लोग आनन्दपूर्वक रहने लगे।
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Monday, 8 February 2021

Swami Vivekanand and Jamshedji Tata

In 1893, in a boat that sailed from Yokohama to Vancouver, two great Indians, one, a monk and the other, an industrialist met for the first time. The monk was Swami Vivekananda, who was to take and interpret to the West, more effectively than anyone else, the religious and philosophical tradition of India. The industrialist was Jamshedji Tata, the father of Indian industry. As they got talking, Vivekananda explained his mission of preaching in the US, the universality of all religions. Jamshedji said he was in search of equipment and technology that would build the steel industry and make India a strong industrial nation. Vivekananda blessed Jamshedji, and remarked “How wonderful it would be if we could combine the scientific and technological achievements of the West with the asceticism and humanism of India!”
They never met after that journey. But these words struck a chord in Jamshedji’s heart. Five years later, Jamshedji’s response came in a letter to Vivekananda.

I reproduce that letter below:

Esplanade House, Bombay.
23rd Nov. 1898

Dear Swami Vivekananda,

I trust, you remember me as a fellow- traveller on your voyage from Japan to Chicago. I very much recall at this moment your views on the growth of the ascetic spirit in India, and the duty, not of destroying, but of diverting it into useful channels.
I recall these ideas in connection with my scheme of Research Institute of Science for India, of which you have doubtless heard or read. It seems to me that no better use can be made of the ascetic spirit than the establishment of monasteries or residential halls for men dominated by this spirit, where they should live with ordinary decency and devote their lives to the cultivation of sciences –natural and humanistic. I am of opinion that ,if such a crusade in favour of an asceticism of this kind were undertaken by a competent leader, it would greatly help asceticism, science, and the good name of our common country; and I know not who would make a more fitting general of such a campaign than Vivekananda. Do you think you would care to apply yourself to the mission of galvanizing into life our ancient traditions in this respect? Perhaps, you had better begin with a fiery pamphlet rousing our people in this matter. I would cheerfully defray all the expenses of publication.

With kind regards, I am, dear Swami

Yours faithfully,

Jamshedji Tata

                                     *     *   *  

Vivekananda was busy starting the Ramakrishna Mission and could not accept the offer but he promptly sent Sister Nivedita who met Jamshedji and his advisor, Mr Padsa. A detailed plan formulated by them was promptly suppressed by the Viceroy, Lord Curzon. However Tatas persevered and continued to work on their plans.

On July 1902 Swamiji gone , Jamshedji did not live long either. In 1904, he died unaware that his vision would be realised five years later. The Indian Institute of Science, a gift from the Tatas, was born in 1909 & started functioning in Bangalore in 1911.

Friday, 5 February 2021

The Miracle in Cairo

The Miracle in Cairo

It was the year 1942. I was then living in Cairo, Egypt, with my parents. Around June or July that year, when I was thirteen years old, I contracted a persistent fever with a very high temperature. The doctors diagnosed it as typhoid. 

My illness came as a terrible shock to my family. Typhoid at that time was a dreaded disease. The survival rate of patients with this disease was less than fifty percent. Generally, had the fever continued for forty days or more, the chances of survival would be extremely poor. It was summer in Egypt at that time, and the risk of dehydration was high. This added factor made the prospects of my recovery rather bleak. 

I had to remain in bed all the time and lie on my back with an ice bag on my head. I was so weak that I could hardly get up and go to the bathroom. I was completely bedridden. The only food I was allowed to take was a watery chicken soup and lemonade; and my only medicine was aspirin. Chloromycetin, the wonder drug which has saved the life of countless typhoid patients, was not available at that time. 

We belong to the Roman Catholic Church. My parents were devout Catholics. In this calamity they felt totally helpless; and all they could do was to pray to God for my recovery. They  also put at the head of my bed an icon of the virgin Mary holding the baby Jesus in her arms. 

The small icon, painted on wood, was of Turkish origin and was very old, so old that it had lost most of its details. Yet the faces of Virgin Mary and baby Jesus remained clearly visible. This ancient relic, for its protection, was put inside a box fitted with a glass door. 

The icon had been with our family for many generations and some miraculous stories were associated with it. It still belongs to our family and is now with my brother who lives in Sao Paulo, Brazil. 

We believed that, among other things, the icon also had the power to heal sickness. During my illness I would look at the icon off and on. and beg the Virgin Mary to forgive me for whatever wrong things I might have done knowingly or unknowingly in my life. I would do that with all yearning of a thirteen-years-old boy stricken with a life-threatening illness. 

During my illness my aunt used to visit me and would often give me some coins which I would offer to the virgin Mary. I cannot explain how one of those coins got stuck to the glass door of the box in which the icon was enclosed. And it remained stuck during the entire period of my illness. 

One day, as I was lying in my bed praying, I distinctly heard three tapping sounds coming from the boxed up icon as though it was responding to my prayer. Also, every Friday around noon, a strange fragrance of incense would fill my entire room and overpower the odour of the disinfectant that was regularly used to clean the floor. I was not able to explain how all those things happen. 

On the fortieth day of my illness, my condition had deteriorated so much that my parents and other members of our family were present by my bedside expecting the worst to happen. I was lying on my back in the bed as usual when I suddenly saw a lady of humble appearance standing beside my bed. She resembled one of those Bedouin women of interior Egypt. She was wearing a long white dress, part of which covered her hair like a veil. 

Her complexion was tanned and she stood next to my bed quietly without saying anything. Somehow, a thought came to my mind that she might perhaps give me some medicine, so I suddenly sat up just for a few seconds. I was surprised that I was able to do that because of my prolonged illness had sapped all my strength, leaving me extremely weak. Suddenly I had a bout of sneezing and my nose started bleeding profusely. Strangely enough, from that moment onward I started to improve and feel better. 

I had never seen that Lady before, and she surely did not look like any picture of the Virgin Mary I had ever seen. Within a few days I completely recovered from my illness, but the memory of the vision of that humble brown-
complexioned lady with the long white dress lingered on in my mind. I could never forget her. It was years later that I came to know who she was. 

Christians were a minority in Egypt, and years later, owing to the changed political situation, we started having difficulties living and earning our livelihood there. By that time I had married and was working as a salesman in oriental rugs in Cairo. 

Therefore I decided to move with my wife to Brazil and start a new life in the city of Sao Paulo. There I started working as salesman for a foundry company. 

In 1973 a friend invited me to go with him and visit one of his friends in the Ramakrishna Ashrama of Sao Paulo. This was the first time I visited an Ashrama associated with Sri Ramakrishna and Vivekananda. 

As I entered the foyer of the building I suddenly noticed a small photograph sitting on a bookshelf with other pictures. All my attention was drawn to that photograph and I stood looking at it in the greatest wonder. It was the picture of the lady who had appeared to me thirty one years earlier in Cairo and saved my life as I lay dying of typhoid! 

With great emotion and eagerness, I asked the friend, who had taken me there, "Who is this lady in the photograph?" And he told me that she was Sri Sarada Devi, the divine consort of Sri Ramakrishna. 

He asked me why I look so surprised and startled. Then I related to him the story of how she appeared before me in Cairo and saved my life when I was thirteen years old. 

For the second time in my life, I was in front of the same humble lady of tanned face who was wearing the same dress and standing in exactly the same way as I had seen years before in Cairo! It was my second meeting with the Holy Mother Sarada Devi! From that moment onward I started walking a new path of understanding, devotion and love toward her. 

In the year 1974, I was initiated by Swami Paratparananda of the Ramakrishna Order. Since then, the Holy Mother has always protected me from all dangers. Once when I was on a business trip in the interior of Sao Paulo state, it started raining very hard. The road was slick and dangerous. Suddenly I lost control of my car. It flipped over twice and then stopped with its belly up. Eventually the police came and pulled me out of the car, they first thought that I must have either died or been critically hurt. But, miraculously, I didn't even have a scratch on me. 

I had put a magnetic picture of the Holy Mother on my car. Dislodged by the accident, it was resting on my head when the police rescued me. Glory to the Holy Mother. 

-Nirvana

अफजल खां का वध

20 नवम्बर, 1659 ई. - अफजल खां का वध :- बीजापुर की तरफ से अफजल खां को छत्रपति शिवाजी महाराज के खिलाफ भेजा गया। अफजल खां 10 हज़ार क...