Monday, 28 June 2021

देवरहा बाबा एक महान संत योगिराज

#देवरहा बाबा एक ऐसे महान संत योगिराज जिनके चरण अपने सिर पर रखवा कर आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए देश ही नहीं विदेशों के राष्ट्राध्यक्ष तक लालायित रहते थे। वह यूपी के देवरिया जिले के रहने वाले थे। 

मंगलवार, 19 जून सन् 1990 को योगिनी एकादशी के दिन अपना प्राण त्यागने वाले इस बाबा के जन्म के बारे में संशय है। उनकी उम्र के बारे में भी एक मत नहीं है। कुछ लोगों का तो यहाँ तक मानना है कि बाबा 900 वर्ष की आयु तक जीवित रहे (बाबा के संपूर्ण जीवन के बारे में अलग-अलग मत है, कुछ लोग उनका जीवन 250 साल तो कुछ लोग 500 साल मानते हैं.)।

भारत के उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद में एक योगी, सिद्ध महापुरुष एवं सन्तपुरुष थे देवरहा बाबा। डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद, महामना मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तमदास टंडन, जैसी विभूतियों ने पूज्य देवरहा बाबा के समय-समय पर दर्शन कर अपने को कृतार्थ अनुभव किया था। पूज्य महर्षि पातंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग में पारंगत थे।

श्रद्धालुओं के कथनानुसार बाबा अपने पास आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से बड़े प्रेम से मिलते थे और सबको कुछ न कुछ प्रसाद अवश्य देते थे। प्रसाद देने के लिए बाबा अपना हाथ ऐसे ही मचान के खाली भाग में रखते थे और उनके हाथ में फल, मेवे या कुछ अन्य खाद्य पदार्थ आ जाते थे। जबकि मचान पर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं रहती थी।

श्रद्धालुओं को कौतुहल होता था कि आखिर यह प्रसाद बाबा के हाथ में कहाँ से और कैसे आता है। जनश्रूति के मुताबिक, वह खेचरी मुद्रा की वजह से आवागमन से कहीं भी कभी भी चले जाते थे। उनके आस-पास उगने वाले बबूल के पेड़ों में कांटे नहीं होते थे, चारों तरफ सुंगध ही सुंगध होता था।

लोगों में विश्वास है कि बाबा जल पर चलते भी थे और अपने किसी भी गंतव्य स्थान पर जाने के लिए उन्होंने कभी भी सवारी नहीं की और ना ही उन्हें कभी किसी सवारी से कहीं जाते हुए देखा गया। बाबा हर साल कुंभ के समय प्रयाग आते थे।

यमुना के किनारे वृन्दावन में वह 30 मिनट तक पानी में बिना सांस लिए रह सकते थे। उनको जानवरों की भाषा समझ में आती थी। खतरनाक जंगली जानवारों को वह पल भर में काबू कर लेते थे।

लोगों का मानना है कि बाबा को सब पता रहता था कि कब, कौन, कहाँ उनके बारे में चर्चा हुई। वह अवतारी व्यक्ति थे। उनका जीवन बहुत सरल और सौम्य था। वह फोटो कैमरे और टीवी जैसी चीजों को देख अचंभित रह जाते थे। 

वह उनसे अपनी फोटो लेने के लिए कहते थे, लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि उनका फोटो नहीं बनता था। वह नहीं चाहते तो रिवाल्वर से गोली नहीं चलती थी। उनका निर्जीव वस्तुओं पर नियंत्रण था।

अपनी उम्र, कठिन तप और सिद्धियों के बारे में देवरहा बाबा ने कभी भी कोई चमत्कारिक दावा नहीं किया। लेकिन उनके इर्द-गिर्द हर तरह के लोगों की भीड़ ऐसी भी रही जो हमेशा उनमें चमत्कार खोजते देखी गई। अत्यंत सहज, सरल और सुलभ बाबा के सानिध्य में जैसे वृक्ष, वनस्पति भी अपने को आश्वस्त अनुभव करते रहे। भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें अपने बचपन में देखा था।

देश-दुनिया के महान लोग उनसे मिलने आते थे और विख्यात साधू-संतों का भी उनके आश्रम में समागम होता रहता था। उनसे जुड़ीं कई घटनाएं इस सिद्ध संत को मानवता, ज्ञान, तप और योग के लिए विख्यात बनाती हैं।

कोई 1987 की बात होगी, जून का ही महीना था। वृंदावन में यमुना पार देवरहा बाबा का डेरा जमा हुआ था। अधिकारियों में अफरातफरी मची थी। प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बाबा के दर्शन करने आना था। प्रधानमंत्री के आगमन और यात्रा के लिए इलाके की मार्किंग कर ली गई।

आला अफसरों ने हैलीपैड बनाने के लिए वहां लगे एक बबूल के पेड़ की डाल काटने के निर्देश दिए। भनक लगते ही बाबा ने एक बड़े पुलिस अफसर को बुलाया और पूछा कि पेड़ को क्यों काटना चाहते हो? 

अफसर ने कहा, प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए जरूरी है। बाबा बोले, तुम यहां अपने पीएम को लाओगे, उनकी प्रशंसा पाओगे, पीएम का नाम भी होगा कि वह साधु-संतों के पास जाता है। लेकिन इसका दंड तो बेचारे पेड़ को भुगतना पड़ेगा।

वह मुझसे इस बारे में पूछेगा तो मैं उसे क्या जवाब दूंगा? नही! यह पेड़ नहीं काटा जाएगा। अफसरों ने अपनी मजबूरी बताई कि यह दिल्ली से आए अफसरों का है। इसलिए इसे काटा ही जाएगा और फिर पूरा पेड़ तो नहीं कटना है, इसकी एक टहनी ही काटी जानी है। मगर बाबा जरा भी राजी नहीं हुए। 

उन्होंने कहा कि यह पेड़ होगा तुम्हारी निगाह में, मेरा तो यह सबसे पुराना साथी है, दिन रात मुझसे बतियाता है, यह पेड़ नहीं कट सकता।

इस घटनाक्रम से बाकी अफसरों की दुविधा बढ़ती जा रही थी। आखिर बाबा ने ही उन्हें तसल्ली दी और कहा कि घबड़ा मत, अब पीएम का कार्यक्रम टल जाएगा, तुम्हारे पीएम का कार्यक्रम मैं कैंसिल करा देता हूं। 

आश्चर्य कि दो घंटे बाद ही पीएम आफिस से रेडियोग्राम आ गया कि प्रोग्राम स्थगित हो गया है, कुछ हफ्तों बाद राजीव गांधी वहां आए, लेकिन पेड़ नहीं कटा। इसे क्या कहेंगे चमत्कार या संयोग।

बाबा की शरण में आने वाले कई विशिष्ट लोग थे। उनके भक्तों में जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री , इंदिरा गांधी जैसे चर्चित नेताओं के नाम हैं। उनके पास लोग हठयोग सीखने भी जाते थे। सुपात्र देखकर वह हठयोग की दसों मुद्राएं सिखाते थे। 

योग विद्या पर उनका गहन ज्ञान था। ध्यान, योग, प्राणायाम, त्राटक समाधि आदि पर वह गूढ़ विवेचन करते थे। कई बड़े सिद्ध सम्मेलनों में उन्हें बुलाया जाता, तो वह संबंधित विषयों पर अपनी प्रतिभा से सबको चकित कर देते।

लोग यही सोचते कि इस बाबा ने इतना सब कब और कैसे जान लिया। ध्यान, प्रणायाम, समाधि की पद्धतियों के वह सिद्ध थे ही। धर्माचार्य, पंडित, तत्वज्ञानी, वेदांती उनसे कई तरह के संवाद करते थे। उन्होंने जीवन में लंबी लंबी साधनाएं कीं। जन कल्याण के लिए वृक्षों-वनस्पतियों के संरक्षण, पर्यावरण एवं वन्य जीवन के प्रति उनका अनुराग जग जाहिर था।

देश में आपातकाल के बाद हुए चुनावों में जब इंदिरा गांधी हार गईं तो वह भी देवरहा बाबा से आशीर्वाद लेने गईं। उन्होंने अपने हाथ के पंजे से उन्हें आशीर्वाद दिया। वहां से वापस आने के बाद इंदिरा ने कांग्रेस का चुनाव चिह्न हाथ का पंजा निर्धारित कर दिया। इसके बाद 1980 में इंदिरा के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रचंड बहुमत प्राप्त किया और वह देश की प्रधानमंत्री बनीं।

वहीं, यह भी मान्यता है कि इन्दिरा गांधी आपातकाल के समय कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती से आर्शीवाद लेने गयीं थी। वहां उन्होंने अपना दाहिना हाथ उठाकर आर्शीवाद दिया और हाथ का पंजा पार्टी का चुनाव निशान बनाने को कहा।

बाबा महान योगी और सिद्ध संत थे। उनके चमत्कार हज़ारों लोगों को झंकृत करते रहे। आशीर्वाद देने का उनका ढंग निराला था। मचान पर बैठे-बैठे ही अपना पैर जिसके सिर पर रख दिया, वो धन्य हो गया। पेड़-पौधे भी उनसे बात करते थे। उनके आश्रम में बबूल तो थे, मगर कांटेविहीन। यही नहीं यह खुशबू भी बिखेरते थे।

उनके दर्शनों को प्रतिदिन विशाल जनसमूह उमड़ता था। बाबा भक्तों के मन की बात भी बिना बताए जान लेते थे। उन्होंने पूरा जीवन अन्न नहीं खाया। दूध व शहद पीकर जीवन गुजार दिया। श्रीफल का रस उन्हें बहुत पसंद था।

देवरहा बाबा को खेचरी मुद्रा पर सिद्धि थी, जिस कारण वे अपनी भूख और आयु पर नियंत्रण प्राप्त कर लेते थे।

ख्याति इतनी कि जार्ज पंचम जब भारत आया तो अपने पूरे लाव लश्कर के साथ उनके दर्शन करने देवरिया जिले के दियारा इलाके में मइल गांव तक उनके आश्रम तक पहुंच गया। दरअसल, इंग्लैंड से रवाना होते समय उसने अपने भाई से पूछा था कि क्या वास्तव में इंडिया के साधु संत महान होते हैं।

प्रिंस फिलिप ने जवाब दिया- हां, कम से कम देवरहा बाबा से जरूर मिलना। यह सन 1911 की बात है। 

जार्ज पंचम की यह यात्रा तब विश्वयुद्ध के मंडरा रहे माहौल के चलते भारत के लोगों को बरतानिया हुकूमत के पक्ष में करने की थी। उससे हुई बातचीत बाबा ने अपने कुछ शिष्यों को बतायी भी थी, लेकिन कोई भी उस बारे में बातचीत करने को आज भी तैयार नहीं।

डाक्टर राजेंद्र प्रसाद तब रहे होंगे कोई दो-तीन साल के, जब अपने माता-पिता के साथ वे बाबा के यहां गये थे। बाबा देखते ही बोल पड़े- यह बच्चा तो राजा बनेगा। बाद में राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने बाबा को एक पत्र लिखकर कृतज्ञता प्रकट की और सन 54 के प्रयाग कुंभ में बाकायदा बाबा का सार्वजनिक पूजन भी किया।

बाबा देवरहा 30 मिनट तक पानी में बिना सांस लिए रह सकते थे। उनको जानवरों की भाषा समझ में आती थी। खतरनाक जंगली जानवरों को वह पल भर में काबू कर लेते थे।

उनके भक्त उन्हें दया का महासमुंदर बताते हैं। और अपनी यह सम्पत्ति बाबा ने मुक्त हस्तज लुटाई। जो भी आया, बाबा की भरपूर दया लेकर गया। वितरण में कोई विभेद नहीं। वर्षाजल की भांति बाबा का आशीर्वाद सब पर बरसा और खूब बरसा। मान्यता थी कि बाबा का आशीर्वाद हर मर्ज की दवाई है।

कहा जाता है कि बाबा देखते ही समझ जाते थे कि सामने वाले का सवाल क्या है। दिव्यदृष्ठि के साथ तेज नजर, कड़क आवाज, दिल खोल कर हंसना, खूब बतियाना बाबा की आदत थी। याददाश्त इतनी कि दशकों बाद भी मिले व्यक्ति को पहचान लेते और उसके दादा-परदादा तक का नाम व इतिहास तक बता देते, किसी तेज कम्प्युटर की तरह।

हां, बलिष्ठ कदकाठी भी थी। लेकिन देह त्याहगने के समय तक वे कमर से आधा झुक कर चलने लगे थे। उनका पूरा जीवन मचान में ही बीता। लकड़ी के चार खंभों पर टिकी मचान ही उनका महल था, जहां नीचे से ही लोग उनके दर्शन करते थे। जल में वे साल में आठ महीना बिताते थे। कुछ दिन बनारस के रामनगर में गंगा के बीच, माघ में प्रयाग, फागुन में मथुरा के मठ के अलावा वे कुछ समय हिमालय में एकांतवास भी करते थे।

खुद कभी कुछ नहीं खाया, लेकिन भक्तनगण जो कुछ भी लेकर पहुंचे, उसे भक्तों पर ही बरसा दिया। उनका बताशा-मखाना हासिल करने के लिए सैकड़ों लोगों की भीड़ हर जगह जुटती थी। और फिर अचानक ११ जून १९९० को उन्होंने दर्शन देना बंद कर दिया।

लगा जैसे कुछ अनहोनी होने वाली है। मौसम तक का मिजाज बदल गया। यमुना की लहरें तक बेचैन होने लगीं। मचान पर बाबा त्रिबंध सिद्धासन पर बैठे ही रहे। डॉक्टरों की टीम ने थर्मामीटर पर देखा कि पारा अंतिम सीमा को तोड़ निकलने पर आमादा है। १९ तारीख को मंगलवार के दिन योगिनी एकादशी थी।

आकाश में काले बादल छा गये, तेज आंधियां तूफान ले आयीं। यमुना जैसे समुंदर को मात करने पर उतावली थी। लहरों का उछाल बाबा की मचान तक पहुंचने लगा। और इन्हीं सबके बीच शाम चार बजे बाबा का शरीर स्पंदनरहित हो गया। भक्तों की अपार भीड़ भी प्रकृति के साथ हाहाकार करने लगी।।।।

Wednesday, 23 June 2021

A wonderful conversation from the Gospel of Sri Ramakrishna

A wonderful conversation from the Gospel of Sri Ramakrishna. Hope you will enjoy it, even though a bit lengthy.

SRI RAMAKRISHNA(To Pratap): "You have been to England. Tell us what you saw there."  

PRATAP: "The English people worship what you call 'gold'. Of course, there are also some good people in England, those who live an unattached life. But generally one finds there a great display of rajas in everything. I saw the same thing in America."

Secret of work
SRI RAMAKRISHNA (to Pratap): "It is not in England alone that one sees attachment to worldly things. You see it everywhere. But remember that work is only the first step in spiritual life. God cannot be realized without sattva-love, discrimination, kindness, and so on. It is the very nature of rajas to involve a man in many worldly activities. That is why rajas degenerates into tamas. If a man is entangled in too many activities he surely forgets God. He becomes more and more attached to 'woman and gold'.

"But it is not possible for you to give up work altogether. Your very nature will lead you to it whether you like it or not. Therefore the scriptures ask you to work in a detached spirit, that is to say, not to crave the work's results. For example, you may perform devotions and worship, and practise austerities, but your aim is not to earn people's recognition or to increase your merit.

"To work in such a spirit of detachment is known as karmayoga. But it is very difficult. We are living in the Kaliyuga, when one easily becomes attached to one's actions. You may think you are working in a detached spirit, but attachment creeps into the mind from nobody knows where. You may worship in the temple or arrange a grand religious festival or feed many poor and starving people. You may think you have done all this without hankering after the results. But unknown to yourself the desire for name and fame has somehow crept into your mind. Complete detachment from the results of action is possible only for one who has seen God."

The path of bhakti for this age
A DEVOTEE: "Then what is the way for those who have not seen God? Must they give up all the duties of the world?"

SRI RAMAKRISHNA: "The best path for this age is bhaktiyoga, the path of bhakti prescribed by Nārada: to sing the name and glories of God and pray to Him with a longing heart, 'O God, give me knowledge, give me devotion, and reveal Thyself to me!' The path of karma is extremely difficult. Therefore one should pray: 'O God, make my duties fewer and fewer; and may I, through Thy grace, do the few duties that Thou givest me without any attachment to their results! May I have no desire to be involved in many activities!'

"It is not possible to give up work altogether. Even to think or to meditate is a kind of work.

As you develop love for God, your worldly activities become fewer and fewer of themselves. And you lose all interest in them. Can one who has tasted a drink made of sugar candy enjoy a drink made of ordinary molasses?"

First God and then worldly duties
A DEVOTEE: "The English people always exhort us to be active. Isn't action the aim of life then?"

 

SRI RAMAKRISHNA: "The aim of life is the attainment of God. Work is only a preliminary step; it can never be the end. Even unselfish work is only a means; it is not the end.

"Sambhu Mallick once said to me, 'Please bless me, sir, that I may spend all my money for good purposes, such as building hospitals and dispensaries; making roads, and digging wells.' I said to him: 'It will be good if you can do these things in a spirit of detachment. But that is very difficult. Whatever you may do, you must always remember that the aim of this life of yours is the attainment of God and not the building of hospitals and dispensaries. Suppose God appeared before you and said to you, "Accept a boon from Me." Would you then ask Him, "O God, build me some hospitals and dispensaries"? Or would you not rather pray to Him: "O God, may I have pure love at Your Lotus Feet! May I have Your uninterrupted vision!"? Hospitals, dispensaries, and all such things are unreal. God alone is real and all else unreal. Furthermore, after realizing God one feels that He alone is the Doer and we are but His instruments. Then why should we forget Him and destroy ourselves by being involved in too many activities? After realizing Him, one may, through His grace, become His instrument in building many hospitals and dispensaries.'

"Therefore I say again that work is only the first step. It can never be the goal of life. Devote yourself to spiritual practice and go forward. Through practice you will advance more and more in the path of God. At last you will come to know that God alone is real and all else is illusory, and that the goal of life is the attainment of God."

— THE GOSPEL OF SRI RAMAKRISHNA, 15 JUNE 1884

Sunday, 20 June 2021

Two birds are sitting on the same tree

Two birds are sitting on the same tree, one on the top, the other below, both of most beautiful plumage. The one eats the fruits, while the other remains, calm and majestic, concentrated in its own glory. The lower bird is eating fruits, good and evil, going after sense-enjoyments; and when it eats occasionally a bitter fruit, it gets higher and looks up and sees the other bird sitting there calm and majestic, neither caring for good fruit nor for bad, sufficient unto itself, seeking no enjoyment beyond itself. It itself is enjoyment; what to seek beyond itself? The lower bird looks at the upper bird and wants to get near. It goes a little higher; but its old impressions are upon it, and still it goes about eating the same fruit. Again an exceptionally bitter fruit comes; it gets a shock, looks up. There the same calm and majestic one! It comes near but again is dragged down by past actions, and continues to eat the sweet and bitter fruits. Again the exceptionally bitter fruit comes, the bird looks up, gets nearer; and as it begins to get nearer and nearer, the light from the plumage of the other bird is reflected upon it. Its own plumage is melting away, and when it has come sufficiently near, the whole vision changes. The lower bird never existed, it was always the upper bird, and what it took for the lower bird was only a little bit of a reflection.

Such is the nature of the soul. This human soul goes after sense-enjoyments, vanities of the world; like animals it lives only in the senses, lives only in momentary titillations of the nerves. When there comes a blow, for a moment the head reels, and everything begins to vanish, and it finds that the world was not what it thought it to be, that life was not so smooth. It looks upward and sees the infinite Lord a moment, catches a glimpse of the majestic One, comes a little nearer, but is dragged away by its past actions. Another blow comes, and sends it back again. It catches another glimpse of the infinite Presence, comes nearer, and as it approaches nearer and nearer, it begins to find out that its individuality — its low, vulgar, intensely selfish individuality — is melting away; the desire to sacrifice the whole world to make that little thing happy is melting away; and as it gets gradually nearer and nearer, nature begins to melt away. When it has come sufficiently near, the whole vision changes, and it finds that it was the other bird, that this infinity which it had viewed as from a distance was its own Self, this wonderful glimpse that it had got of the glory and majesty was its own Self, and it indeed was that reality. The soul then finds That which is true in everything. That which is in every atom, everywhere present, the essence of all things, the God of this universe — know that thou art He, know that thou art free.

Wednesday, 16 June 2021

! वृन्दावन के चींटें !


! वृन्दावन के चींटें !

एक सच्ची घटना सुनिए, एक संत की
वे एक बार वृन्दावन गए, वहाँ कुछ दिन घूमे फिरे दर्शन किए !
जब वापस लौटने का मन किया तो, सोचा भगवान् को भोग लगा कर कुछ प्रसाद लेता चलूँ..
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संत ने रामदाने के कुछ लड्डू ख़रीदे मंदिर गए.. प्रसाद चढ़ाया और आश्रम में आकर सो गए.. सुबह ट्रेन पकड़नी थी
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अगले दिन ट्रेन से चले.. सुबह वृन्दावन से चली ट्रेन को मुगलसराय स्टेशन तक आने में शाम हो गयी..
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संत ने सोचा.. अभी पटना तक जाने में तीन चार घंटे और लगेंगे.. भूख लग रही है.. मुगलसराय में ट्रेन आधे घंटे रूकती है.. 
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चलो हाथ पैर धोकर संध्या वंदन करके कुछ पा लिया जाय..!
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संत ने हाथ पैर धोया और लड्डू खाने के लिए डिब्बा खोला..!
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उन्होंने देखा लड्डू में चींटे लगे हुए थे.. उन्होंने चींटों को हटाकर एक दो लड्डू खा लिए..!
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बाकी बचे लड्डू प्रसाद बाँट दूंगा ये सोच कर छोड़ दिए.!
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पर कहते हैं न, संत ह्रदय नवनीत समाना !
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बेचारे को लड्डुओं से अधिक उन चींटों की चिंता सताने लगी..!
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सोचने लगे.. ये चींटें वृन्दावन से इस मिठाई के डिब्बे में आए हैं..!
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बेचारे इतनी दूर तक ट्रेन में मुगलसराय तक आ गए.!
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कितने भाग्यशाली थे.. इनका जन्म वृन्दावन में हुआ था, 
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अब इतनी दूर से पता नहीं कितने दिन या कितने जन्म लग जाएँगे, इनको वापस पहुंचने में..!
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पता नहीं ब्रज की धूल इनको फिर कभी मिल भी पाएगी या नहीं..!!
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मैंने कितना बड़ा पाप कर दिया.. इनका वृन्दावन छुड़वा दिया
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नहीं मुझे वापस जाना होगा..
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और संत ने उन चींटों को वापस उसी मिठाई के डिब्बे में सावधानी से रखा.. और वृन्दावन की ट्रेन पकड़ ली।
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उसी मिठाई की दूकान के पास गए डिब्बा धरती पर रखा.. और हाथ जोड़ लिए.!
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मेरे भाग्य में नहीं कि, तेरे ब्रज में रह सकूँ तो, मुझे कोई अधिकार भी नहीं कि, जिसके भाग्य में ब्रज की धूल लिखी है, उसे दूर कर सकूँ.!
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दूकानदार ने देखा तो आया..!
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महाराज चीटें लग गए तो, कोई बात नहीं आप दूसरी मिठाई तौलवा लो..!
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संत ने कहा.. भईया मिठाई में कोई कमी नहीं थी..!
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इन हाथों से पाप होते होते रह गया उसी का प्रायश्चित कर रहा हूँ..!
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दुकानदार ने जब सारी बात जानी तो, उस संत के पैरों के पास बैठ गया.. भावुक हो गया..!
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इधर दुकानदार रो रहा था... उधर संत की आँखें गीली हो रही थीं  !!
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बात भाव की है.. बात उस निर्मल मन की है.. बात ब्रज की है.. बात मेरे वृन्दावन की है..!
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बात मेरे नटवर नागर और उनकी राधारानी की है.. बात मेरे कृष्ण की राजधानी की है।

बूझो तो बहुत कुछ है.. नहीं तो बस पागलपन है..!
 बस एक कहानी !

          घर से जब भी बाहर जाये
 तो घर में विराजमान अपने प्रभु से जरूर   
                 मिलकर जाएं
                       और
 जब लौट कर आए तो उनसे जरूर मिले
                    क्योंकि
 उनको भी आपके घर लौटने का इंतजार     
                    रहता है.!
"घर" में यह नियम बनाइए की जब भी आप घर से बाहर निकले तो घर में मंदिर के पास दो घड़ी खड़े रह कर कहें !
               "प्रभु चलिए..
        आपको साथ में रहना हैं"..!
     ऐसा बोल कर ही घर से निकले 
            क्यूँकिआप भले ही
"लाखों की घड़ी" हाथ में क्यूँ ना पहने हो        
                      पर
  * "समय" तो "प्रभु के ही हाथ" में हैं न
                 🙏🏻🙏🏻  -साभार

Tuesday, 15 June 2021

गोस्वामी तुलसीदास और पुरी जगन्नाथ जी

एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज‌ को किसी संत ने बताया  की पुरी जगन्नाथ जी में तो साक्षात भगवान ही दर्शन देते हैं। बस फिर क्या था सुनकर तुलसीदास जी महाराज तो बहुत ही प्रसन्न हुए और अपने इष्टदेव का दर्शन करने श्री जगन्नाथ पुरी को चल दिए। महीनों की कठिन और थका देने वाली यात्रा के उपरांत जब जगन्नाथ पुरी पहुंचे तो मंदिर में भक्तों की भीड़ देखकर प्रसन्नमन से अंदर प्रविष्ट हुए। जगन्नाथ जी का दर्शन करते ही उन्हें बड़ा धक्का सा लगा, वे बडे निराश हो गये और विचार किया कि यह हस्तपादविहीन देव, जगत के सबसे सुंदर और नेत्रों को सुख देने वाले मेरे इष्ट श्री राम नहीं हो सकते।

इस प्रकार दुखी मन से बाहर निकल कर दूर एक वृक्ष के तले बैठ गये। सोचा कि इतनी दूर आना व्यर्थ हुआ। क्या गोलाकार नेत्रों वाला हस्तपादविहीन दारुदेव मेरा राम हो सकता है ? कदापि नहीं। रात्रि हो गयी, थके-माँदे, भूखे-प्यासे तुलसी का अंग टूट रहा था। अचानक एक आहट हुई, वे ध्यान से सुनने लगे।

बालक - अरे बाबा !
तुलसीदास जी - कौन है ?

एक बालक हाथों में थाली लिए पुकार रहा था। तुलसीदास जी ने सोचा साथ आए लोगों में से शायद किसी ने पुजारियों को बता दिया होगा कि तुलसीदास जी भी दर्शन करने को आए हैं इसलिये उन्होने प्रसाद भेज दिया होगा। उठते हुए बोले -

हाँ भाई ! मैं ही हूँ तुलसीदास।
बालक ने कहा, 'अरे ! आप यहाँ है ? मैं बड़ी देर से आपको खोज रहा हूँ। लीजिए, जगन्नाथ जी ने आपके लिए प्रसाद भेजा है।'
तुलसीदास जी बोले - भैया कृपा करके इसे वापस ले जाये।
बालक ने कहा, - आश्चर्य की बात है, 'जगन्नाथ का भात-जगत पसारे हाथ' और वह भी स्वयं महाप्रभु ने भेजा और आप अस्वीकार कर रहे हैं। कारण ?
तुलसीदास जी बोले, - 'अरे भाई ! मैं बिना अपने इष्ट को भोग लगाये कुछ ग्रहण नहीं करता, फिर यह जगन्नाथ का जूठा प्रसाद जिसे मैं अपने इष्ट को समर्पित न कर सकूँ, यह मेरे किस काम का ?'
बालक ने मुस्कराते हुए कहा अरे, - बाबा ! आपके इष्ट ने ही तो भेजा है।
तुलसीदास जी बोले - यह हस्तपादविहीन दारुमूर्ति मेरा इष्ट नहीं हो सकता।
बालक ने कहा - फिर आपने अपने "श्रीरामचरितमानस" में यह किस रूप का वर्णन किया है -

*"बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना।*
*कर बिनु कर्म करइ बिधि नाना।।*
*आनन रहित सकल रस भोगी।*
*बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।"*

अब तुलसीदास जी की भाव-भंगिमा देखने लायक थी। नेत्रों में अश्रु-बिन्दु, मुख से शब्द नहीं निकल रहे थे।

थाल रखकर बालक यह कहकर अदृश्य हो गया कि "मैं ही तुम्हारा राम हूँ। मेरे मंदिर के चारों द्वारों पर हनुमान का पहरा है, विभीषण नित्य मेरे दर्शन को आता है। कल प्रातः तुम भी आकर दर्शन कर लेना।"

तुलसीदास जी की स्थिति ऐसी की रोमावली रोमांचित थी नेत्रों से अश्रुधार अविरल बह रही थी और शरीर की कोई सुध ही नहीं उन्होंने बड़े ही प्रेम से प्रसाद ग्रहण किया।

प्रातः मंदिर में जब तुलसीदास जी महाराज दर्शन करने के लिए गए तब उन्हें जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के स्थान पर श्री राम, लक्ष्मण एवं माता जानकी के भव्य दर्शन हुए। भगवान ने भक्त की इच्छा पूरी की।

जिस स्थान पर तुलसीदास जी ने रात्रि व्यतीत की थी, वह स्थान 'तुलसी चौरा' नाम से विख्यात हुआ। वहाँ पर तुलसीदास जी की पीठ 'बड़छता मठ' के रूप में प्रतिष्ठित है।
जय श्री कृष्ण
जय श्री राम

Friday, 11 June 2021

🌿 ग्वारिया बाबा

🌿 ग्वारिया बाबा 
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एक थे ग्वारिया बाबा। वृन्दावन में ही रहते थे। बिहारी जी को अपना यार कहते थे। सिर्फ कहते नहीं, मानते भी थे। 
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नियम था बिहारी जी को नित्य सायं शयन करवाने जाते थे। 
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एक बार शयन आरती करवाने जा रहे थे। बिहारी जी की गली में बढ़िया मोदक बन रहे थे। 
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अच्छी खुशबू आ रही थी। चार मोदक मांग लिए बिहारी जी के लिए ! 
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वृन्दावन के लोग बिहारी जी के भक्तों का बड़ा आदर करते है। उन्होंने मना नहीं किया। एक डोने में बांध दिये साथ में। 
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बाबा भीतर गए तो बिहारी जी के भोग के पट आ चुके थे। 
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ग्वारिया बाबा जी ने वही बैठकर अपना कम्बल बिछाया और उस पर बैठकर अपने मन के भाव में खो गए। 
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वहाँ बिहारी जी की आरती का समय हुआ तो श्री गौसाई जी बड़ा प्रयास कर रहे हैं लेकिन ठाकुर जी के मंदिर का पट नहीं खुल रहा। 
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बड़े हैरान इधर उधर देख रहें। एक संत कोने में बैठे सब दृश्य आरंभ से देख रहें थे। 
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पुजारी जी ने लाचारी से देखा तो संत बोले उधर ग्वारिया बाबा बैठे हैं उनसे पूछो वो बता देंगे। 
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गौसाईं जी ने बाबा से कहा, रे बाबा तेरे यार तो दरवाजा ही न खोल रहियो ? बाबा हड़बड़ा कर उठे। 
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रोम रोम पुलकित हो रहा था बाबा का। 
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बाबा ने कहा जय जय ! अब जाओ ! और बाबा ने पुजारी से कहा अब खोलो। 
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पुजारी जी ने जब दरवाजा खोलने का प्रयास किया। हल्का सा छूते ही दरवाजा खुल गया। 
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पुजारी जी ने आरती की और बिहारी जी को शयन करवा दिया। 
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लेकिन आज पुजारी जी के मन में यह बात लगी है की आज मैं प्रयास करके हार गयो लेकिन दरवाजा नहीं खुला। लेकिन बाबा ने कहा और दरवाजा खुल गया। 
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पुजारी जी ग्वारिया बाबा के पास गए और कहा, बाबा आज तुझे तेरे यार की सौगंध है। साँची साँची कह दें, आज तेरे यार ने क्या खेल खेलो। 
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ग्वारिया बाबा हंस दिए। कहते जय जय ! जब आप भोग के लिए दरवाजा खोल रहे थे। तब बिहारी जी मेरे पास मोदक खा रहे थे। 
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अभी मैंने उनका मुँह भी नहीं धुलाया था की आपने आवाज दे दी। उनका मुँह साफ कर देना। 
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जाईये उनका मुख तो धुला दीजिये उनके मुख पर झूठन लगी है। 
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गौसाईं जी ने स्नान किया मंदिर में गए तो देखा की ठाकुर जी के मुख पर तो मोदक का झूठन लगी थी। 
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सच में रहस्य रस है ठाकुर जी की सेवा में ! अधिकार रखिये श्री ठाकुर जी पर। 
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सर्वस्व न्यौछावर करके उनकी सेवा में सुख मिलता है। अनहोनी होती है फिर सेवा की कृपा से। 
इसे सिर्फ श्री कृष्ण भक्त ही समझ सकते हैं। दूसरों को ऐसी बातें समझ नहीं आती। 
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कृष्ण भक्त तो ठाकुर जी की हरेक कथा को अपने मन की आँखों से साक्षात् देख लेते है। उसी में आनंद लेते है। फिर दुनिया की भी परवाह नहीं करते।  
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ठाकुर जी की तरफ जो सच्चे मन से बढ़ता है फिर ठाकुर जी भी उसके जीवन में ऐसा खेल खेलते है कि जिसे वो अपना समझता है और जिन्दगी भर अपना समझना चाहता है और सच में जो सच्चे मन से ठाकुर जी की शरण आ गयो उसे फिर संसार की चिंता नहीं रहती। उसकी चिंता फिर ठाकुर जी स्वयं करते है |

🙏🏻श्री कुंज बिहारी श्री हरिदास 🙏🏻

हनुमान - रामजी

हनुमान जी जब पर्वत लेकर लौटते है तो भगवान से कहते है.

प्रभु आपने मुझे संजीवनी बूटी लेने नहीं भेजा था.

आपने तो मुझे मेरी मूर्छा दूर करने के लिए भेजा था.

 "सुमिरि पवनसुत पावन नामू। 
  अपने बस करि राखे रामू"

हनुमान्‌जी ने पवित्र नाम का स्मरण करके श्री रामजी को अपने वश में कर रखा है,

प्रभु आज मेरा ये भ्रम टूट गया कि मै ही सबसे बड़ा भक्त,राम नाम का जप करने वाला हूँ.

भगवान बोले कैसे ? 

हनुमान जी बोले - वास्तव में तो भरत जी संत है और उन्होंने ही राम नाम जपा है.   

आपको पता है जब लक्ष्मण जी को शक्ति लगी तो मै संजीवनी लेने गया पर जब मुझे भरत जी ने बाण मारा और मै गिरा,  तो  भरत जी ने, न तो संजीवनी मंगाई, न वैध बुलाया. कितना भरोसा है उन्हें आपके नाम पर, आपको पता है उन्होंने क्या किया.

"जौ मोरे मन बच अरू काया,
प्रीति राम पद कमल अमाया"

तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला,
जौ मो पर रघुपति अनुकूला 

सुनत बचन उठि बैठ कपीसा,
कहि जय जयति कोसलाधीसा"

यदि मन वचन और शरीर से श्री राम जी के चरण कमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो तो यदि रघुनाथ जी मुझ पर प्रसन्न हो तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाए. 

यह वचन सुनते हुई मै श्री राम, जय राम, जय-जय राम कहता हुआ उठ बैठा. मै नाम तो लेता हूँ पर भरोसा भरत जी जैसा नहीं किया, वरना मै संजीवनी लेने क्यों जाता,

बस ऐसा ही हम करते है हम नाम तो भगवान का लेते है पर भरोसा नही करते, 

बुढ़ापे में बेटा ही सेवा करेगा,  बेटे ने नहीं की तो क्या होगा?

उस समय हम भूल जाते है कि जिस       भगवान का नाम हम जप रहे है वे है न, पर हम भरोसा नहीं करते. 

बेटा सेवा करे न करे पर भरोसा हम उसी पर करते है.

2. - दूसरी बात प्रभु! 
बाण लगते ही मै गिरा, पर्वत नहीं गिरा, क्योकि पर्वत तो आप उठाये हुए थे और मै अभिमान कर रहा था कि मै उठाये हुए हूँ.  
मेरा दूसरा अभिमान टूट गया, 

इसी तरह हम भी यही सोच लेते है कि  गृहस्थी के बोझ को मै उठाये हुए हूँ,

3. - फिर हनुमान जी कहते है -

और एक बात प्रभु ! आपके तरकस में भी ऐसा बाण नहीं है जैसे बाण भरत जी के पास है. 

आपने सुबाहु मारीच को बाण से बहुत दूर गिरा दिया, आपका बाण तो आपसे दूर गिरा देता है, पर भरत जी का बाण तो आपके चरणों में ला देता है. मुझे बाण पर बैठाकर आपके पास भेज दिया.

भगवान बोले - हनुमान जब मैंने ताडका को मारा और भी राक्षसों को मारा तो वे सब मरकर मुक्त होकर मेरे ही पास तो आये, 

इस पर हनुमान जी बोले प्रभु आपका बाण तो मारने के बाद सबको आपके पास लाता है पर भरत जी का बाण तो जिन्दा ही भगवान के पास ले आता है. 

भरत जी संत है और संत का बाण क्या है?  

संत का बाण है उसकी वाणी 

लेकिन हम करते क्या है,  

हम संत वाणी को समझते तो है पर  सटकते नहीं है, और औषधि सटकने पर ही फायदा करती है.

4. - हनुमान जी को भरत जी ने पर्वत सहित अपने बाण पर बैठाया तो उस समय हनुमान जी को थोडा अभिमान हो गया कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा ? 

परन्तु जब उन्होंने रामचंद्र जी के प्रभाव पर विचार किया तो वे भरत जी के चरणों की वंदना करके चले है.

इसी तरह हम भी कभी-कभी संतो पर संदेह करते है, 

कि ये हमें कैसे भगवान तक पहुँचा देगे, संत ही तो है जो हमें सोते से जागते है जैसे हनुमान जी को जगाया, 

क्योकि उनका मन,वचन,कर्म सब भगवान में लगा है. 

अरे उन पर भरोसा तो करो तुम्हे तुम्हारे बोझ सहित भगवान के चरणों तक पहुँचा देगे. 

जय जय श्री राम 

🙏🙏🙏🙏🙏

अफजल खां का वध

20 नवम्बर, 1659 ई. - अफजल खां का वध :- बीजापुर की तरफ से अफजल खां को छत्रपति शिवाजी महाराज के खिलाफ भेजा गया। अफजल खां 10 हज़ार क...