Sunday, 21 May 2023

ब्रह्म मुहूर्त

ब्रह्म मुहूर्त में जगे बिना कुंडली सुधर ही नहीं सकती ।

सूर्योदय से पहले का समय जिसे अमृतवेला या ब्रह्म मुहूर्त भी कहते हैं। सभी प्राचीन ग्रंथों में ब्रह्म मुहूर्त की बड़ी महिमा बखान की गई है। 

ब्रह्म मुहूर्त में हमारे सभी विचार सोए हुए होते हैं, उस समय जो भी मुख्य विचार जागृत होता है वह रानी मक्खी की तरह होता है, उसी के पीछे सारे विचार चलते हैं, जैसे रानी मक्खी के पीछे सारी मक्खियां चलना शुरू हो जाती हैं। परमात्मा के उसी सात्विक विचार के प्रभाव के तले हमारे सारे विचार होते हैं, जिस से वे पवित्रता की ओर जाते रहते हैं। इस से हमसे दिनभर पवित्र कर्म ही होते रहते हैं।
क्योंकि जैसे विचार होते हैं, वैसे ही कर्म होते हैं।

सूरज उगने के बाद भी जो सोए रहते हैं उनका तेज खत्म हो जाता है।
उद्यन्त् सूर्यं इव सुप्तानां द्विषतां वर्च आददे। -अथर्ववेद- 7/16/२

ब्रह्ममुहूर्त की निद्रा पुण्य का नाश करने वाली होती है।
“ब्रह्ममुहूर्ते या निद्रा सा पुण्यक्षयकारिणी।"

ब्रह्म मुहूर्त में जगने से व्यक्ति को सुंदरता, लक्ष्मी, बुद्धि, स्वास्थ्य, आयु आदि की प्राप्ति होती है। ऐसा करने से शरीर कमल की तरह सुंदर हो जाता है।
"वर्णं कीर्तिं मतिं लक्ष्मीं स्वास्थ्यमायुश्च विदन्ति।
ब्राह्मे मुहूर्ते संजाग्रच्छि वा पंकज यथा॥"

अंग्रेज़ी में भी कहा गया है Early to bed and early to rise. 
makes a man healthy wealthy and wise. 
मगर early to rise तभी संभव होगा, जब early to bed होगा। क्योंकि जब तक जल्दी सोएंगे नहीं, नींद पूरी होगी नहीं। और नींद पूरी होगी नहीं, तो जलदी उठ नहीं पाएंगे।

ब्रह्म महूर्त में हमें परमात्मा का नाम, कथा,भजन आदि श्रवण करना चाहिए।
ब्रह्म महूर्त में की गई भक्ति, उपासना का प्रभाव कई हज़ार गुना अधिक होता है।

रात्री 9 से 11 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से रीढ़ की हड्डी में स्थित मेरुरज्जु में होती है। इस समय की नींद सर्वाधिक विश्रांति प्रदान करती है । इस समय का जागरण शरीर व बुद्धि को थका देता है । यदि इस समय भोजन किया जाय तो वह सुबह तक जठर में पड़ा रहता है, पचता नहीं और उसके सड़ने से हानिकारक द्रव्य पैदा होते हैं जो अम्ल (एसिड) के साथ आँतों में जाने से रोग उत्पन्न करते हैं। इसलिए इस समय भोजन करना खतरनाक है।

शाम 5 से 7 -- इस समय जीवनी-शक्ति विशेष रूप से गुर्दे में होती है । इस समय भोजन कर लेना चाहिए । शाम को सूर्यास्त से 40 मिनट पहले भोजन कर लेना उत्तम रहेगा। सूर्यास्त के 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक (संध्याकाल) भोजन न करे।

                          Jai Gurudev

Tuesday, 9 May 2023

Joyful Shiva and Playful Parvati

Bhairava after teaching the Vijyan Bhairav Tantra to Bhairavi : “My beloved, I have taught you the most exotic and esoteric secrets of consciousness. What will you do now?”
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Bhairavi: “I am going to do the exact opposite of what you have taught!”

And She ran away, laughing at Bhairava’s predicament!
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What do you understand from this?
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You can never fathom the real nature of Shakti for She is the ever playful. You can be that infinitely joyful Shiva as He lay under Her feet while She dances around and weaves Her web of Maya all around Him!
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Aadesh Aadesh… Joi Maa

Wednesday, 3 May 2023

धन्य हुई वैशाख पूर्णिमा

⚪ धन्य हुई वैशाख पूर्णिमा! ⚪
     🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷 

वर्ष - महाशाक्य-राजसंवत, 68
ऋतु - ग्रीष्म
मास - वैशाख
दिवस - शुक्रवार
तिथि - पूर्णिमा
नक्षत्र - विशाखा
समय - ऊषाकाल ब्रह्म मुहूर्त 
ग्रीष्म के ताप से उत्तप्त हुई धरती को सारी रात शुद्ध शीतल शर्वरी (ज्योत्स्ना) से नहला कर पूर्णिमा का चांद विश्राम के लिए पश्चिमी क्षितिज की ओर बढ़ रहा है। पूर्वी क्षितिज पर बाल रवि के शुभागमन का संदेश लिए हुए, ऊषाकुमारी गगनांगन में प्रकाशकण बिखेर रही है और संसार को दैनंदिन जीवनदान दे रही है। 

स्थानः द्वीपों में श्रेष्ठ जंबूद्वीप के बीचोबीच स्थित मज्झिम देश का मध्य-उत्तरी भाग; उत्तुंग हिमगिरि के चरणांचल में बसा शाक्य प्रदेश । एक ओर शाक्य राजवंश की राजधानी कपिलवस्तु और दूसरी ओर शाक्यों की ही एक शाखा कोलीय राजवंश की राजधानी देवदह । दोनों के बीच सुषुमाश्री संपन्न लुंबिनी शालवन, जो दोनों राज्यों के नागरिकों के आमोद प्रमोद के लिए आरक्षित-सुरक्षित है। 

अवसर: कपिलवस्तु के शाक्य-गणराज्य के महासम्मत महाराज शुद्धोदन की अग्र राजमहिषी देवी महामाया दस महीने का गर्भ धारण किये हुए प्रसवहेतु पतिगृह से पितृगह देवदह के लिए यात्रा कर रही हैं। साथ अनेक सैनिक संरक्षक हैं और राजसी दास-दासियां। स्वर्ण-पालकी में बैठी राजरानी का ध्यान सुरम्य वनश्री के चित्तरंजन ऐश्वर्य की ओर आकर्षित होता है। लुंबिनी के शालवृक्षों की डालियां रंगबिरंगे सुंदर फूलों से लदी हुई हैं। इन फूलों के मधुर गंधपराग से समस्त वायुमंडल सुरभित है। 

भौरों के झुंड के झुंड चारों ओर गुंजार कर रहे हैं। नाना रंग-रूप वाले खगकुल अपने मधुर कूजन-कलरव और चहचहाट-भरे वाद्यवृंद से वातावरण को मुखरित कर रहे हैं। तरुशाखाओं को शिखरपताकाओं की तरह प्रकंपित करने वाला लुभावना समीर यात्रिओं को आमंत्रित कर रहा है। 

महारानी महामाया की इच्छा हुई कि कुछ देर इस नंदनवन-सदृश लुंबिनी वनस्थली की सैर करे। पालकी रुकवा कर वह उतरी और निसर्ग के वैभव का आनंद लेने के लिए वन-वीथि पर टहलने लगी। जैसे तेल से लबालब भरे प्याले को हथेली पर रख कर कोई बहुत सजग होकर चले, जिससे कि तेल की एक बूंद भी छलक न पावे, ऐसे ही अपने गर्भ में स्थित दिव्य बालक का ध्यान रखते हुए, वह धीमे कदमों से टहलने लगी। 

समीप के एक शाल-वृक्ष पर नजर पड़ी और उसकी झूमती हुई पुष्प-पल्लवित डाल के आह्वान-संकेत ने महारानी को आकर्षित, आमंत्रित किया। वह उस शाल वृक्ष के नीचे गयी। डाल पकड़ने के लिए पंजों के बल जरा ऊंची हुई तो हवा के झोंके से वह डाल स्वतः झुक आयी। महामाया ने उसे अपने दाहिने हाथ से पकड़ा और कुछ क्षण प्रकृति के निश्छल, निर्मल सौंदर्य को देखती रह गयी। पश्चिम में चांद डूबता जा रहा था। पूरब में बाल-रवि अपनी अरुण किरणें बिखराता हुआ उदय हो रहा था। 

इसी समय परिपक्व गर्भ का उत्थान हुआ। साथ आयी परिचारिकाओं ने सहारा दिया। कुछ सेवकों ने वहीं कनात तान दी और दूर हट गये। कुछ क्षणों के लिए मुखर प्रकृति निःशब्द हो गई। चंचल निसर्ग अचल, अडोल हो गया। सारे वातावरण में मौन उत्सुकता छा गयी। किसी अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना घटने की संभावना से सारे दृश्य-अदृश्य प्राणी स्तब्ध-सजग हो गये। 

सचमुच उस समय एक ऐसी महत्त्वपूर्ण घटना घटी, जो सदियों में कभी-कभार ही घट पाती है। माता महामाया ने वहीं खड़े-खड़े प्रसव किया। बुद्धांकुर महासत्त्व माता के उदर से खड़े-खड़े ही जन्मा। नवजात शिशु के पांव धरती पर लगे। और ... 

🌷🙏🌷 धरती धन्य हुई, पावन हुई। 🌷🙏🌷 

समस्त पृथ्वी हर्षविभोर हो प्रकंपित हो उठी। सारा चक्रवाल (सौरमंडल) पुलक-रोमांच से प्रकंपित हो उठा और इस चक्रवाल के समीपवर्ती दस सहस्र चक्रवाल प्रसन्नता की तरंगों से तरंगित हो गये। निरभ्र आकाश में गड़गड़ाहट हुई मानो देव-दुंदुभी बजी। प्रमुदित पेड़ों के प्रफुल्लित सुमन बोधिसत्त्व के सम्मान-सत्कार के लिए बिखर-बिखर कर धरती को आह्लादित करने लगे। सारी प्रकृति देव-पुष्पों की दिव्य पराग- सुरभि से गमक उठी। 

बोधिसत्त्व ने किसी राजमहल के बंद कक्ष में जन्म नहीं लिया। समस्त प्रकृति के सारे रहस्यों का अनुसंधान और उद्घाटन करने वाला यह सत्यान्वेषी महामानव खुली प्रकृति में, खुले आकाश के नीचे, रुक्खमूल के समीप, वनप्रदेश की खुली धरती पर जन्मा। सचमुच धरती धन्य हुई। परम पावन हुई। जन-जन द्वारा पूज्य हुई। 

धर्मराज अशोक ने इस धरती के पूजन के लिए धर्मयात्रा की और इस लगभग तीन सौ वर्ष पश्चात भारत-सम्राट देवानांप्रिय प्रियदर्शी स्थल पर एक राजसी धर्मस्तंभ की स्थापना की। आज तक कृतज्ञता-विभोर मानव-समाज इस धरती का दर्शन करके, इसे शीष नवा कर, यहां की पावन धर्मतरंगों से लाभान्वित होता रहा है। भविष्य में भी सदियों तक ऐसा ही होता रहेगा। और..... 

माता महामाया धन्य हुई! उसकी पुरातन धर्म-कामना फलीभूत हुई। इक्यानवे कल्प पूर्व भगवान विपश्यी सम्यक संबुद्ध के समय वह राजा बंधुमा की ज्येष्ठ राजकुमारी थी। पिता के साथ भगवान सम्यक संबुद्ध के दर्शन करने और उनके धर्मप्रवचन सुनने गयी। भगवान के आकर्षक व्यक्तित्त्व को देख कर और उनका कल्याणकारी धर्मोपदेश सुन कर अत्यंत भाव-विभोर हो उठी। ओह! धन्य है वह माता! जिसने ऐसा सपूत जना, जो अत्यंत करुण चित्त से असंख्य दुखियारे प्राणियों को भवबंधन से नितांत विमुक्त हो सकने का मंगल-मार्ग दिखा रहा है। मैं भी ऐसी ही भाग्यशालिनी बनूं। ऐसे ही सुवर्णवर्ण तेजस्वी बोधिसत्त्व को गर्भ में धारण कर बुद्धमाता होने का सौभाग्य प्राप्त करूं। 

परंतु बोधिसत्त्व के अंतिम जीवन में उसे जन्म देने वाली जननी बनने के लिए अनेक कल्पों तक पुण्य-पारमिताओं को पूर्ण करना होता है। अनेक कष्ट झेलने पड़ते हैं। मैं इन सबके लिए प्रस्तुत हूं। सम्यक संबुद्ध भगवान विपश्यी ने उसका ऐसा दृढ़ संकल्प देखा तो मुस्कुरा कर उसे आशीर्वाद दिया। तब से इक्यानवे कल्पों तक अनगिनत जन्मों में अपनी पारमिताओं को पूरा करने के पुनीत पथ पर चल पड़ी। 

एक-एक भव, एक-एक भव में पारमिताओं का संग्रह करते हुए, अंततः यह योग्यता प्राप्त की कि जब तुषित लोक में जन्मे हुए संतुषित श्वेतकेतु नामक देवपुत्र बोधिसत्त्व ने अपने लिए अंतिम जन्म वाली माता का चुनाव किया तो इस 55 वर्ष 4 महीने की मज्झिम वय वाली महारानी महामाया को ही इस योग्य पाया। 

कोलीय महाराज अंजन की ज्येष्ठ पुत्री महामाया कपिलवस्तु के महाराज शुद्धोदन से ब्याही गयी। पीहर और ससुराल के सारे राजसी वैभव में जन्मी, पली और इसी माहौल में अपने जीवन के 56 वसंत बिताए। परंतु सदैव सहज भाव से अखंड रूप से पांचों शीलों का पालन करती रही। न तो अन्य सामान्य राजपुत्रियों और राजमहिषियों की तरह कामक्रीड़ा में रत रहती थी, न मद्यप थी, न वाचाल थी और न ही अशांत, उद्विग्न थी। 

ऐसी साध्वी स्वभाव की माता ही बोधिसत्त्व के अंतिम जन्म की जननी बनने योग्य थी। बोधिसत्त्व को जन्म देने वाली मनोरथपूर्णा माता महामाया पुत्र-जन्म के तुरंत बाद पतिगृह लौट आयी और एक सप्ताह पश्चात ही उसकी शरीर-च्युति हो गयी। उसने तुषित लोक में माया नाम के देवपुत्र के रूप में जन्म लिया। 

कालांतर में सिद्धार्थ गौतम सम्यक संबुद्ध बने। उन्हें अपने इस अंतिम जन्म की माता का ध्यान आया। उन्होंने देवलोक में जाकर अभिधम्म की देशना दी और अनेक देवों के साथ अपनी जन्मदायिनी माता का उपकार किया। उसे विमुक्ति-पथ पर स्थापित किया। महामाया बोधिसत्त्व को जन्म देकर सचमुच धन्य ही हुई। और ... 

स्वयं बोधिसत्त्व भी धन्य हुआ। उसकी लंबी भवयात्रा पूर्ण होने का समय आया। बोधिसत्त्व ने सभी पारमिताएं परिपूर्ण की, परिपुष्ट की और अब स्वयं सम्यक संबुद्ध बन सकने योग्य अंतिम जीवन प्राप्त किया। बोधिसत्त्व की कितनी लंबी भव-यात्रा! चार असंख्येय (एक असंख्येय माने एक के आगे एक सौ चालीस बिंदी लगे) और एक लाख कल्प पूर्व यही सत्त्व (प्राणी) सुमेध नाम से किसी समृद्ध ब्राह्मण-गृहस्थ के घर में जन्मा था। कामभोग के प्रति विरक्ति जागने के कारण वह घर त्याग कर संन्यासी बना और ध्यान-भावना में लग गया। 

समय पाकर आठों ध्यानों में पारंगत हुआ। पर मुक्त अवस्था प्राप्त नहीं हुई। ऐसी हालत में अपने किसी पूर्व पुण्य-कर्म के कारण सम्यक संबुद्ध भगवान दीपंकर के संपर्क में आया। उसी समय वह इस योग्य था कि उनसे विपश्यना साधना सीख कर नितांत भव-विमुक्ति की अवस्था प्राप्त कर लेता। परंतु उसने देखा कि वे भगवान महाकारुणिक किस प्रकार अनेक प्राणियों के हितसुख में लगे हैं। 

यह देख कर उसके मन में यह धर्म-संवेग जागा - केवल अपनी ही मुक्ति के लिए परिश्रम करना उचित नहीं, इस भव-संसार में अनगिनत प्राणी दुःख-चक्र में पिसे जा रहे हैं। क्यों न मैं भी ऐसी ही सर्वज्ञता प्राप्त करूं, जिससे कि इनकी सबकी मुक्ति में सहायक बन सकू? क्यों न मैं इन्हीं भगवान दीपंकर की भांति सम्यक संबुद्ध बनूं? भले इसके लिए मुझे अथक परिश्रम करना पड़े। 

ऐसी योग्यता प्राप्त करने में भले कल्पों लग जायँ। भव-भ्रमण के यह सारे कष्ट सहन करने के लिए मैं सहर्ष प्रस्तुत हूँ। त्रिकालज्ञ भगवान दीपंकर ने जब तापस सुमेध के मन की ऐसी तीव्र धर्मकामना देखी तो उसे आशीर्वाद दिया और भविष्यवाणी की- 

"पस्सथ इमं तापसं, जटिलं उग्गतापनं।
अपरिमेय्ये इतो कप्पे, बुद्धो लोके भविस्सति ॥"🌷 

[ - देखो, उग्र तपस्या करने वाले इस जटाधारी तापस को देखो! इस कल्प के पश्चात अपरिमित कल्पों के बीतने पर यह व्यक्ति इस लोक में बुद्ध बनेगा। ]🌷 

सम्यक संबुद्ध की यह भविष्यवाणी तापस सुमेध के लिए बोधि-बीज बनी और इस बीज को धारण कर यह सत्त्व (प्राणी) बोधिसत्त्व बना। उसी समय चारों ओर से प्रेरणा के यह दिव्य-शब्द गूंजे - 

"दळ्हं पग्गण्ह विरियं, मा निवत्त अभिक्कम ।
मयम्पेतं विजानाम, धुवं बुद्धो भविस्ससि ॥"🌷 

[ - दृढ़ पराक्रम में लग जाओ। आगे बढ़ते ही रहो। पीछे कदम न हटाओ! हम जानते हैं कि तुम निश्चय ही बुद्ध बनोगे। ]🌷 

इसे सुन कर तपस्वी सुमेध के मन में अतुलनीय धर्म-उत्साह जागा और इन मंगल-आशीर्वचनों का संबल लिये वह दृढ़ पराक्रम में लग गया। और कल्प दर कल्प भव-भ्रमण करता हुआ, हर भव में कोई न कोई पारमी पुष्ट करता हुआ, हर भव में जो अनेकानेक प्राणी संपर्क में आये, उन्हें शुद्ध धर्म की देशना देता हुआ, उनके हृदय में धर्म का बीज बोता हुआ और स्वयं धर्म का आदर्श जीवन जीकर उन सबके लिए प्रेरणा-स्रोत बनता हुआ, सारी पारमिताएं परिपूर्ण कर चुकने पर, अब उसने यह अवस्था प्राप्त कर ली जो इसी जीवन में उसे सम्यक संबुद्ध बना देगी। 

जो इतनी बड़ी मात्रा में इन दस पारमिताओं का संग्राहक धनी है, जो सम्यक संबुद्ध बनने की परिपक्व अवस्था में पहुंच चुका है, सचमुच उस समय उसके समान अन्य कौन होता? किसी के उससे बढ़ कर होने की तो बात ही क्या! इसीलिए स्मृति-संप्रज्ञान के साथ माता महामाया के गर्भ में प्रवेश करने के समय से, दस महीनों तक स्मृति-संप्रज्ञान में ही रहता हुआ, अब स्मृति संप्रज्ञान के साथ ही धरती पर पांव रखता है तो अपने संग्रहीत अपरिमित धर्म-बल से इन दस सहस्र चक्रवालों को देखता हुआ यह उद्घोष करता है- 

🌷अग्गोहमस्मि लोकस्स - लोक में मैं अग्र हूं।🌷
🌷जेट्ठोहमस्मि लोकस्स - लोक में मैं ज्येष्ठ हूं।🌷
🌷सेट्ठोहमस्मि लोकस्स - लोक में मैं श्रेष्ठ हूं।🌷
🌷अयमन्तिमा जाति- यह मेरा अंतिम जन्म है।🌷
🌷नत्थि दानि पुनब्भवो- अब एक बार भी पुनर्जन्म नहीं होगा।🌷 

जन्मते ही बोधिसत्त्व की यह मंगल-घोषणा सचमुच कितनी सत्य थी! सचमुच यह उसका अंतिम जन्म ही साबित हुआ! बोधिसत्त्व धन्य हुआ! और... 

धन्य हो उठे सारे लोक-परलोक! पृथ्वी पर एक ऐसे सत्त्व ने जन्म लिया, जो बुद्धत्त्व प्राप्त कर ऐसा धर्मचक्र प्रवर्तन करेगा, जिससे कि धर्म के नाम पर भिन्न-भिन्न तीर्थों में, संप्रदायों में, मत-मतांतरों में उलझे हुए लोग, भिन्न-भिन्न निकम्मी निरर्थक दार्शनिक मान्यताओं में भरमाए लोग, भिन्न-भिन्न कर्मकांडों और अतिधावन में भटकते हुए लोग, शुद्ध, सार्वजनीन, सांदृष्टिक, आशुफलदायी और वैज्ञानिक धर्म पायेंगे और भवचक्र से विमुक्त होंगे। 

चारों ओर प्रसन्नता का माहौल था। उदासी केवल देवपुत्र मृत्युराज मार के मुख पर छायी हुई थी। अब उसके बाड़े में विचरने वाले प्राणियों का बाड़ा-बंधन टूटेगा, अनेक लोगों पर उसकी सत्ता का प्रभाव कमजोर पड़ेगा। अनेक लोग मृत्यु के चंगुल से मुक्त होंगे। भले मार दुखी हो, अनेकों का कल्याण होगा! मंगल होगा! स्वस्ति- मुक्ति होगी! हुआ ही! 

बोधिसत्त्व को अंतिम जन्म देने वाली महाशाक्यराज संवत 68 की यह वैशाख पूर्णिमा बहुतों के लिए धन्यता का कारण बनी। स्वयं भी धन्य-धन्य हुई। यह हमारे लिए भी कल्याण का कारण बने । हम भी इससे प्रेरणा पाएं और अपना मंगल साध लें! 
🙏🙏

पुस्तक: जागे अंतर्बोध ।
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥

अफजल खां का वध

20 नवम्बर, 1659 ई. - अफजल खां का वध :- बीजापुर की तरफ से अफजल खां को छत्रपति शिवाजी महाराज के खिलाफ भेजा गया। अफजल खां 10 हज़ार क...