*“गीता के सात सौ एक श्लोकों का परायण करने में कम-से-कम चार घंटे लग जाते हैं। तो क्या कुरुक्षेत्र के रण-मैदान में दोनों सेनाओं के मध्य में जब श्रीकृष्णार्जुन-संवाद हुआ, उस दरम्यान चार घंटे तक युद्ध स्थगित कर दिया गया?’*
बिलकुल ठीक है। बैठिये।
*“आपने कहा था कि ज्यादा-से-ज्यादा एक साल तक शरीर छोड़ने के बाद आत्मा दूसरा जन्म ले लेती है। आज कहा कि ग्यारह सौ साल तक खून करवाती रही एक प्रेतात्मा?’*
हां, ये विशेष स्मृति वाले लोग हैं। साधारण स्मृति की बात कर रहा था मैं, ये विशेष स्मृति वाले लोग हैं। और हमारे बीच विशेष स्मृति वाले लोग भी हैं।
कर्जन ने अपने संस्मरणों में एक घटना लिखी है। कर्जन ने लिखा है कि उसके पास एक विशेष स्मृति का आदमी राजस्थान से लाया गया। विशेष शब्द भी छोटा पड़ जाता है उसकी स्मृति के लिए। वह सिर्फ राजस्थानी के अतिरिक्त कोई भी भाषा नहीं जानता है। तीस भाषा बोलने वाले लोग लार्ड कर्जन के वाइसराय-भवन में बिठाए गए–तीस भाषा बोलने वाले लोग। और उन तीसों से कहा गया कि वे एक-एक वाक्य अपनी-अपनी भाषा को खयाल में ले लें। फिर वह राजस्थानी, ठेठ गंवार, गांव का आदमी पहले आदमी के पास गया और वह अपनी भाषा के वाक्य का पहला शब्द उसे बताएगा, फिर एक जोर का घंटा बजाया जाएगा। फिर वह दूसरे के पास जाएगा, वह अपनी भाषा के अपने वाक्यों का पहला शब्द उसे बताएगा। फिर जोर से घंटा बजाया जाएगा। ऐसा वह तीस लोगों के तीस वाक्यों का पहला शब्द लेकर पहले आदमी के पास वापिस लौटेगा। अब वह दूसरा शब्द बताएगा, फिर घंटा, और ऐसा चलेगा। ऐसा घंटों की लंबी यात्रा में वे तीस आदमी अपने तीस वाक्य बता पाएंगे, और हर शब्द के बाद तीस शब्दों का अंतराल होगा। और बाद में उस आदमी ने तीसों आदमियों के तीसों वाक्य अलग-अलग बता दिए कि इस आदमी का पूरा वाक्य यह है, इस आदमी का पूरा वाक्य यह है, इस आदमी का पूरा वाक्य यह है। अब ऐसा आदमी अगर प्रेत हो जाए, तो ग्यारह सौ साल बहुत कम हैं। ऐसे आदमी के लिए ग्यारह सौ साल बहुत कम हैं, यह ग्यारह लाख साल तक भी याद रख सकता है। विशेष स्मृति की बात है।
और आप जो पूछते हैं, वह बहुत कीमती सवाल है। ठीक पूछते हैं। चार घंटे लग गए! अगर हम गीता को पढ़ें तो चार घंटे लगते हुए मालूम पड़ते हैं। चार घंटे तक युद्ध रुका रहा होगा? संभव नहीं मालूम होता। कोई तो सवाल उठाता कि यह क्या हो रहा है? हम यहां युद्ध करने आए, हम कोई यह लंबा गीता का पाठ सुनने नहीं आए, यह कोई गीता-ज्ञान यज्ञ नहीं है कि यहां चार घंटे तक गीता का पाठ चले।
चार घंटे विचारणीय हैं।
अगर हम इतिहासज्ञ से पूछेंगे, तो वह कहेगा कि कुछ बात ऐसी होगी कि गीता तो थोड़े में कही गई होगी, फिर बाद में उसका विस्तार किया गया। अगर हम महाभारत के जानकारों से पूछें, तो वे कहेंगे गीता जो है, वह प्रक्षिप्त है। यह जगह मौजूं है ही नहीं। ऐसा मालूम होता है कि महाभारत पहले लिखा गया और फिर किसी कवि ने इस मौके को चुनकर अपनी पूरी कविता इसमें डाल दी, लेकिन यह जगह मौजूं नहीं मालूम पड़ती। युद्ध के स्थल पर इतने बड़े संदेश देने का कोई अवसर नहीं है, कोई उपाय नहीं है।
मैं क्या कहूंगा? न तो मैं मानता हूं कि प्रक्षिप्त है गीता, न मैं मानता हूं कि पहले संक्षिप्त में कही गई और फिर बड़े में कही गई। एक छोटे-से उदाहरण से समझाऊं तब खयाल में आ जाए।
विवेकानंद जर्मनी गए और डयूसन के घर मेहमान हुए। और डयूसन पश्चिम में उन दिनों “इंडोलाजी’ का, भारतीय ज्ञान का बड़े-से-बड़ा पंडित था। उस कोटि के एक ही दो आदमी, जैसे मेक्समूलर का नाम गिना सकते हैं। फिर भी कई मामलों में मेक्समूलर से भी डयूसन की अंतर्दृष्टि गहरी है। उपनिषदों को पश्चिम में समझने वाला वह पहला आदमी है। गीता को समझने वाला भी पश्चिम में वह ठीक पहला आदमी है। डयूसन का अनुवाद ही लेकर शापेनहॉर सड़क पर नाचा था। गीता का अनुवाद डयूसन का जब शापेनहॉर ने पहली दफा पढ़ा, तो सिर पर रखकर वह बाजार में नाचने लगा। और उसने कहा, यह किताब पढ़ने जैसी नहीं है, नाचने जैसी है। और शापेनहॉर साधारण आदमी नहीं था, असाधारण रूप से उदास आदमी था। उसकी जिंदगी में नाच बहुत मुश्किल बात है। एकदम उदास है, उदास और दुखवादी था। “पेसिमिस्ट’ था। मानता ही यह था कि जिंदगी दुख है। और सुख सिर्फ आगे आने वाले दुख में डालने की तरकीब है। जैसे कि हम मछली को आटा लगाकर कांटा डाल देते हैं। बस, आटा है सुख। असली चीज कांटा है, जो दुख है। आटे में फंस जाओगे, कांटा चुभ जाएगा। तो सुख का इतना ही मूल्य मानता था, जितना मछली के लिए आटा मानता है। वह शापेनहॉर डयूसन का अनुवाद लेकर नाचा था। उस डयूसन के घर विवेकानंद मेहमान थे।
डयूसन ने जर्मन भाषा में लिखी एक किताब जिसे वह पढ़ रहा था, कई दिन से मेहनत कर रहा था। आधी पढ़ चुका था। जब विवेकानंद उसके पास गए थे तो वह आधी पढ़ रहा था। उसने कहा, यह बड़ी अदभुत किताब है। विवेकानंद ने कहा कि घंटे भर के लिए मुझे भी दे दो। पर उसने कहा, आप तो ज्यादा जर्मन जानते नहीं। तो विवेकानंद ने कहा कि जो ज्यादा जर्मन जानते हैं क्या वे समझ ही लेंगे? उसने कहा, यह जरूरी नहीं है। तो विवेकानंद ने कहा, उलटा भी हो सकता है कि जो कम जर्मन जानता हो, वह भी समझ ले। खैर, मुझे दो। पर डयूसन ने कहा, आप दोत्तीन दिन ही तो यहां मेहमान होंगे, पंद्रह दिन तो मैं मेहनत कर चुका, अभी आधी ही पढ़ पाया हूं। विवेकानंद ने कहा कि मैं डयूसन नहीं हूं, मैं विवेकानंद हूं। खैर, वह किताब दे दी गई और घंटे भर बाद विवेकानंद ने वह किताब वापस कर दी। डयूसन ने कहा कि क्या! किताब पढ़ गए! विवेकानंद ने कहा, पढ़ ही नहीं गए, समझ भी गए। डयूसन ऐसे छोड़ने वाला आदमी न था।
उसने दस-पांच प्रश्न पूछे, जो हिस्सा वह पढ़ चुका था उस बाबत, और विवेकानंद ने जो समझाया तो डयूसन तो दंग रह गया। उसने कहा कि आप समझ भी गए! कैसे यह हुआ, यह चमत्कार कैसे हुआ? विवेकानंद ने कहा, पढ़ने के साधारण ढंग भी हैं, असाधारण ढंग भी हैं।
हम सब साधारण ढंग से पढ़ते हैं, इसलिए जिंदगी में दस-पांच किताबें भी पढ़ पाएं, समझ पाएं, तो बहुत है। और ढंग भी हैं। और असाधारण ढंगों की बड़ी सीढ़ियां हैं। ऐसे लोग भी हैं जो किताब को हाथ में रखें और आंखें बंद करें और किताब फेंक दें। लेकिन वे “साइकिक’ ढंग हैं, वे बहुत आंतरिक ढंग हैं।
तो मेरा अपना मानना जो है वह मैं आपको कहूं, कृष्ण ने यह गीता कोई प्रकट वाणी में अर्जुन से नहीं कही है। यह बड़ा “साइकिक कम्यूनिकेशन’ है, इसका किसी को पता ही नहीं चला है। यह आसपास जो युद्ध में खड़े हुए लोग हैं, उन्होंने यह नहीं सुनी है। नहीं तो भीड़ लग जाती वहां। वहां सभी इकट्ठे हो जाते, कम-से-कम पांडव तो इकट्ठे हो ही जाते। चार घंटे गीता चलती, उधर कुछ भी हो सकता था; नहीं इस चार घंटे में कम-से-कम कृष्ण जैसा आदमी बोलता हो तो कम-से-कम पांडव तो सब इकट्ठे हो ही जाते।
कौरव भी इकट्ठे हो सकते थे। कुछ भी हो सकता था, हमला भी हो सकता था, कुछ भी हो सकता था। लेकिन नहीं, यह कृष्ण और अर्जुन के बीच “इनर कम्यूनिकेशन’ है। वह “साइकिक कम्यूनिकेशन’ है। यह ठीक शब्दों में बाहर कहा नहीं गया, यह भीतर बोला गया है, भीतर पूछा गया है। और इसकी खबर सबसे पहले आसपास खड़े लोगों को नहीं चली। सबसे पहले संजय को पता चला।
अब यह भी बड़े मजे की बात है कि वह इतने दूर बैठा है संजय और अंधे धृतराष्ट्र से कहता है। अंधा धृतराष्ट्र पूछता है कि मेरे बेटे क्या कर रहे हैं युद्ध में? कौरव-पांडवों के बीच जो चल रहा है वहां, क्या हो रहा है? ये बहुत मीलों का फासला है। संजय उस कथा को कहता है कि वहां वे धर्म के क्षेत्र में, कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हो गए हैं। वहां यह सब हो रहा है। वहां अर्जुन दुविधा में पड़ गया है। वहां अर्जुन जिज्ञासा कर रहा है। वहां कृष्ण ऐसा समझा रहे हैं। यह भी “टेलिपैथिक कम्यूनिकेशन’ है। यह संजय के पास कोई उपाय नहीं है, कुरुक्षेत्र में क्या हो रहा है उसको कहने का। तो दो आदमियों ने गीता सुनी सबसे पहले। पहले सुनी अर्जुन ने, उसके साथ सुनी संजय ने, उसके बाद सुनी धृतराष्ट्र ने, उसके बाद सुनी जगत ने। फिर उसके बाद सब फैलाव हुआ। बाकी यह कोई बाहर कही गई बात नहीं है। इसलिए चार घंटे हमें लगते हैं गीता को पढ़ने में क्योंकि हम बाहर पढ़ते हैं। चार क्षण में भी हो गई हो, यह भी संभव है। एक क्षण भी न लगा हो, यह भी संभव है।
कृष्ण स्मृति
ओशो