Friday, 31 December 2021

देवरहा_बाबा

#अद्भुत_ब्रम्हचारी ऐसे ब्रम्हचारियों की जीवनी पढ़ना ही चाहिए..

#देवरहा_बाबा एक ऐसे महान संत योगिराज जिनके चरण अपने सिर पर रखवा कर आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए देश ही नहीं विदेशों के राष्ट्राध्यक्ष तक लालायित रहते थे। वह यूपी के देवरिया जिले के रहने वाले थे।

मंगलवार, 19 जून सन् 1990 को योगिनी एकादशी के दिन अपना प्राण त्यागने वाले इस बाबा के जन्म के बारे में संशय है। उनकी उम्र के बारे में भी एक मत नहीं है। कुछ लोगों का तो यहाँ तक मानना है कि बाबा 900 वर्ष की आयु तक जीवित रहे (बाबा के संपूर्ण जीवन के बारे में अलग-अलग मत है, कुछ लोग उनका जीवन 250 साल तो कुछ लोग 500 साल मानते हैं.)।

भारत के उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद में एक योगी, सिद्ध महापुरुष एवं सन्तपुरुष थे देवरहा बाबा। डॉ• राजेन्द्र प्रसाद, महामना मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तमदास टंडन, जैसी विभूतियों ने पूज्य देवरहा बाबा के समय-समय पर दर्शन कर अपने को कृतार्थ अनुभव किया था. पूज्य महर्षि पातंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग में पारंगत थे।

श्रद्धालुओं के कथनानुसार बाबा अपने पास आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से बड़े प्रेम से मिलते थे और सबको कुछ न कुछ प्रसाद अवश्य देते थे. प्रसाद देने के लिए बाबा अपना हाथ ऐसे ही मचान के खाली भाग में रखते थे और उनके हाथ में फल, मेवे या कुछ अन्य खाद्य पदार्थ आ जाते थे जबकि मचान पर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं रहती थी।

श्रद्धालुओं को कौतुहल होता था कि आखिर यह प्रसाद बाबा के हाथ में कहाँ से और कैसे आता है. जनश्रूति के मुताबिक, वह खेचरी मुद्रा की वजह से आवागमन से कहीं भी कभी भी चले जाते थे. उनके आस-पास उगने वाले बबूल के पेड़ों में कांटे नहीं होते थे. चारों तरफ सुंगध ही सुंगध होता था।

लोगों में विश्वास है कि बाबा जल पर चलते भी थे और अपने किसी भी गंतव्य स्थान पर जाने के लिए उन्होंने कभी भी सवारी नहीं की और ना ही उन्हें कभी किसी सवारी से कहीं जाते हुए देखा गया. बाबा हर साल कुंभ के समय प्रयाग आते थे।

यमुना के किनारे वृन्दावन में वह 30 मिनट तक पानी में बिना सांस लिए रह सकते थे. उनको जानवरों की भाषा समझ में आती थी। खतरनाक जंगली जानवारों को वह पल भर में काबू कर लेते थे।

लोगों का मानना है कि बाबा को सब पता रहता था कि कब, कौन, कहाँ उनके बारे में चर्चा हुई. वह अवतारी व्यक्ति थे. उनका जीवन बहुत सरल और सौम्य था।वह फोटो कैमरे और टीवी जैसी चीजों को देख अचंभित रह जाते थे। वह उनसे अपनी फोटो लेने के लिए कहते थे, लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि उनका फोटो नहीं बनता था। वह नहीं चाहते तो रिवाल्वर से गोली नहीं चलती थी. उनका निर्जीव वस्तुओं पर नियंत्रण था।

अपनी उम्र, कठिन तप और सिद्धियों के बारे में देवरहा बाबा ने कभी भी कोई चमत्कारिक दावा नहीं किया, लेकिन उनके इर्द-गिर्द हर तरह के लोगों की भीड़ ऐसी भी रही जो हमेशा उनमें चमत्कार खोजते देखी गई।अत्यंत सहज, सरल और सुलभ बाबा के सानिध्य में जैसे वृक्ष, वनस्पति भी अपने को आश्वस्त अनुभव करते रहे. भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें अपने बचपन में देखा था।

 देश-दुनिया के महान लोग उनसे मिलने आते थे और विख्यात साधू-संतों का भी उनके आश्रम में समागम होता रहता था. उनसे जुड़ीं कई घटनाएं इस सिद्ध संत को मानवता, ज्ञान, तप और योग के लिए विख्यात बनाती हैं।

कोई 1987 की बात होगी, जून का ही महीना था. वृंदावन में यमुना पार देवरहा बाबा का डेरा जमा हुआ था. अधिकारियों में अफरातफरी मची थी। प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बाबा के दर्शन करने आना था।प्रधानमंत्री के आगमन और यात्रा के लिए इलाके की मार्किंग कर ली गई।

आला अफसरों ने हैलीपैड बनाने के लिए वहां लगे एक बबूल के पेड़ की डाल काटने के निर्देश दिए. भनक लगते ही बाबा ने एक बड़े पुलिस अफसर को बुलाया और पूछा कि पेड़ को क्यों काटना चाहते हो? अफसर ने कहा, प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए जरूरी है. बाबा बोले, तुम यहां अपने पीएम को लाओगे, उनकी प्रशंसा पाओगे, पीएम का नाम भी होगा कि वह साधु-संतों के पास जाता है, लेकिन इसका दंड तो बेचारे पेड़ को भुगतना पड़ेगा।

वह मुझसे इस बारे में पूछेगा तो मैं उसे क्या जवाब दूंगा? नही! यह पेड़ नहीं काटा जाएगा. अफसरों ने अपनी मजबूरी बताई कि यह दिल्ली से आए अफसरों का है, इसलिए इसे काटा ही जाएगा और फिर पूरा पेड़ तो नहीं कटना है, इसकी एक टहनी ही काटी जानी है, मगर बाबा जरा भी राजी नहीं हुए. उन्होंने कहा कि यह पेड़ होगा तुम्हारी निगाह में, मेरा तो यह सबसे पुराना साथी है, दिन रात मुझसे बतियाता है, यह पेड़ नहीं कट सकता।

इस घटनाक्रम से बाकी अफसरों की दुविधा बढ़ती जा रही थी, आखिर बाबा ने ही उन्हें तसल्ली दी और कहा कि घबड़ा मत, अब पीएम का कार्यक्रम टल जाएगा, तुम्हारे पीएम का कार्यक्रम मैं कैंसिल करा देता हूं. आश्चर्य कि दो घंटे बाद ही पीएम आफिस से रेडियोग्राम आ गया कि प्रोग्राम स्थगित हो गया है, कुछ हफ्तों बाद राजीव गांधी वहां आए, लेकिन पेड़ नहीं कटा. इसे क्या कहेंगे चमत्कार या संयोग.

बाबा की शरण में आने वाले कई विशिष्ट लोग थे. उनके भक्तों में जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री , इंदिरा गांधी जैसे चर्चित नेताओं के नाम हैं. उनके पास लोग हठयोग सीखने भी जाते थे. सुपात्र देखकर वह हठयोग की दसों मुद्राएं सिखाते थे. योग विद्या पर उनका गहन ज्ञान था. ध्यान, योग, प्राणायाम, त्राटक समाधि आदि पर वह गूढ़ विवेचन करते थे. कई बड़े सिद्ध सम्मेलनों में उन्हें बुलाया जाता, तो वह संबंधित विषयों पर अपनी प्रतिभा से सबको चकित कर देते।

लोग यही सोचते कि इस बाबा ने इतना सब कब और कैसे जान लिया. ध्यान, प्रणायाम, समाधि की पद्धतियों के वह सिद्ध थे ही. धर्माचार्य, पंडित, तत्वज्ञानी, वेदांती उनसे कई तरह के संवाद करते थे. उन्होंने जीवन में लंबी लंबी साधनाएं कीं. जन कल्याण के लिए वृक्षों-वनस्पतियों के संरक्षण, पर्यावरण एवं वन्य जीवन के प्रति उनका अनुराग जग जाहिर था.

देश में आपातकाल के बाद हुए चुनावों में जब इंदिरा गांधी हार गईं तो वह भी देवरहा बाबा से आशीर्वाद लेने गईं. उन्होंने अपने हाथ के पंजे से उन्हें आशीर्वाद दिया. वहां से वापस आने के बाद इंदिरा ने कांग्रेस का चुनाव चिह्न हाथ का पंजा निर्धारित कर दिया. इसके बाद 1980 में इंदिरा के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रचंड बहुमत प्राप्त किया और वह देश की प्रधानमंत्री बनीं।

वहीं, यह भी मान्यता है कि इन्दिरा गांधी आपातकाल के समय कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती से आर्शीवाद लेने गयीं थी. वहां उन्होंने अपना दाहिना हाथ उठाकर आर्शीवाद दिया और हाथ का पंजा पार्टी का चुनाव निशान बनाने को कहा।

बाबा महान योगी और सिद्ध संत थे. उनके चमत्कार हज़ारों लोगों को झंकृत करते रहे. आशीर्वाद देने का उनका ढंग निराला था. मचान पर बैठे-बैठे ही अपना पैर जिसके सिर पर रख दिया, वो धन्य हो गया. पेड़-पौधे भी उनसे बात करते थे. उनके आश्रम में बबूल तो थे, मगर कांटेविहीन. यही नहीं यह खुशबू भी बिखेरते थे।

उनके दर्शनों को प्रतिदिन विशाल जनसमूह उमड़ता था. बाबा भक्तों के मन की बात भी बिना बताए जान लेते थे. उन्होंने पूरा जीवन अन्न नहीं खाया. दूध व शहद पीकर जीवन गुजार दिया. श्रीफल का रस उन्हें बहुत पसंद था।

देवरहा बाबा को खेचरी मुद्रा पर सिद्धि थी जिस कारण वे अपनी भूख और आयु पर नियंत्रण प्राप्त कर लेते थे।

ख्याति इतनी कि जार्ज पंचम जब भारत आया तो अपने पूरे लाव लश्कर के साथ उनके दर्शन करने देवरिया जिले के दियारा इलाके में मइल गांव तक उनके आश्रम तक पहुंच गया. दरअसल, इंग्लैंड से रवाना होते समय उसने अपने भाई से पूछा था कि क्या वास्तव में इंडिया के साधु संत महान होते हैं।

प्रिंस फिलिप ने जवाब दिया- हां, कम से कम देवरहा बाबा से जरूर मिलना. यह सन 1911 की बात है. जार्ज पंचम की यह यात्रा तब विश्वयुद्ध के मंडरा रहे माहौल के चलते भारत के लोगों को बरतानिया हुकूमत के पक्ष में करने की थी. उससे हुई बातचीत बाबा ने अपने कुछ शिष्यों को बतायी भी थी, लेकिन कोई भी उस बारे में बातचीत करने को आज भी तैयार नहीं।

डाक्टर राजेंद्र प्रसाद तब रहे होंगे कोई दो-तीन साल के, जब अपने माता-पिता के साथ वे बाबा के यहां गये थे. बाबा देखते ही बोल पड़े-यह बच्चा तो राजा बनेगा. बाद में राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने बाबा को एक पत्र लिखकर कृतज्ञता प्रकट की और सन 54 के प्रयाग कुंभ में बाकायदा बाबा का सार्वजनिक पूजन भी किया।

बाबा देवरहा 30 मिनट तक पानी में बिना सांस लिए रह सकते थे. उनको जानवरों की भाषा समझ में आती थी. खतरनाक जंगली जानवरों को वह पल भर में काबू कर लेते थे.

उनके भक्त उन्हें दया का महासमुंदर बताते हैं. और अपनी यह सम्पत्ति बाबा ने मुक्त हस्तज लुटाई. जो भी आया, बाबा की भरपूर दया लेकर गया. वितरण में कोई विभेद नहीं. वर्षाजल की भांति बाबा का आशीर्वाद सब पर बरसा और खूब बरसा. मान्यता थी कि बाबा का आशीर्वाद हर मर्ज की दवाई है।

कहा जाता है कि बाबा देखते ही समझ जाते थे कि सामने वाले का सवाल क्या है. दिव्यदृष्ठि के साथ तेज नजर, कड़क आवाज, दिल खोल कर हंसना, खूब बतियाना बाबा की आदत थी. याददाश्त इतनी कि दशकों बाद भी मिले व्यक्ति को पहचान लेते और उसके दादा-परदादा तक का नाम व इतिहास तक बता देते, किसी तेज कम्प्युटर की तरह।

हां, बलिष्ठ कदकाठी भी थी. लेकिन देह त्याहगने के समय तक वे कमर से आधा झुक कर चलने लगे थे. उनका पूरा जीवन मचान में ही बीता. लकडी के चार खंभों पर टिकी मचान ही उनका महल था, जहां नीचे से ही लोग उनके दर्शन करते थे. जल में वे साल में आठ महीना बिताते थे. कुछ दिन बनारस के रामनगर में गंगा के बीच, माघ में प्रयाग, फागुन में मथुरा के मठ के अलावा वे कुछ समय हिमालय में एकांतवास भी करते थे।

खुद कभी कुछ नहीं खाया, लेकिन भक्तनगण जो कुछ भी लेकर पहुंचे, उसे भक्तों पर ही बरसा दिया. उनका बताशा-मखाना हासिल करने के लिए सैकडों लोगों की भीड हर जगह जुटती थी. और फिर अचानक ११ जून १९९० को उन्होंने दर्शन देना बंद कर दिया।

लगा जैसे कुछ अनहोनी होने वाली है. मौसम तक का मिजाज बदल गया. यमुना की लहरें तक बेचैन होने लगीं. मचान पर बाबा त्रिबंध सिद्धासन पर बैठे ही रहे. डॉक्टरों की टीम ने थर्मामीटर पर देखा कि पारा अंतिम सीमा को तोड निकलने पर आमादा है.१९ तारीख को मंगलवार के दिन योगिनी एकादशी थी।

आकाश में काले बादल छा गये, तेज आंधियां तूफान ले आयीं. यमुना जैसे समुंदर को मात करने पर उतावली थी. लहरों का उछाल बाबा की मचान तक पहुंचने लगा. और इन्हीं सबके बीच शाम चार बजे बाबा का शरीर स्पंदनरहित हो गया. भक्तों की अपार भीड भी प्रकृति के साथ हाहाकार करने लगी।

Saturday, 20 November 2021

YOUR SWAMIJI

YOUR SWAMIJI

YOUR SWAMIJI ... 1

Have you heard of Swami Vivekananda? Yes? But have you heard of Narendranath Datta? I am sure most of you have not but some of you may have. Well, this little boy is the subject of our story which I shall begin narrating to you, children, from today.

YOUR SWAMIJI ... 2

The Dattas were an affluent family who lived in North Kolkata at a place called Simla or Simulia. Rammohan Datta was the grand patriarch who had thrived in the legal profession and amassed a fortune. His sons, Durgaprasad and Kaliprasad, grandson, Vishwanath, were the immediate ancestors of Narendranath who grew up to become the world renowned monk, Swami Vivekananda. Durgaprasad excelled like his father at law but renounced life to become a monk at age between 20 and 22 after fathering a son. So, Kaliprasad became the head of the Datta family and as he was not upto earning a living, the Dattas' fortunes started declining steadily.

YOUR SWAMIJI ... 3

Durgaprasad renounced between age 20 and 22. Shyamasundari, his wife of valorous virtue, took up to rearing baby Vishwanath amidst great difficulties as Kaliprasad was not sympathetic to their lot. When Vishwanath was three years old, Shyamasundari went on pilgrimage to Varanasi by boat. En route the playful baby fell into the Ganga. Instantly the mother, forgetting the fact that she knew not how to swim, dived into the surging waters and gripped the baby, so hard that it bore the mark for several years. A fellow pilgrim and a resident of the Datta household, indigenous physician Umapada Gupta, diving suit, rescued them and hauled them overboard. The pilgrimage carried on and holy Varanasi was reached in the fullness of time.

YOUR SWAMIJI ... 4

Varanasi. The Ganga flowing by since time immemorial, sanctifying this city of Shiva. Thousands of temples of all kinds of deities thronging to get the worship of devotees who flock by the millions. The most ancient city of the world, dating 5000 years, now welcomed Shyamasundari and her little boy, Vishwanath.

YOUR SWAMIJI ... 5

Shyamasundari went on her daily rounds of the temples in Varanasi. One day on her way to the seat of Lord Vishwanath, she slipped on the way and fell unconscious. A monk passing by picked her up, laid her on the temple steps and brought her back to her senses. When she came to her own she was astonished to behold her own husband as her rescuer. Overwhelmed by sudden emotion, the couple, now renounced to the world, went their way.

YOUR SWAMIJI ... 6

Durgaprasad visited his hometown Kolkata once, probably en route to the Gangasagar, and put up with a friend. He requested confidentiality but the message leaked and he was accosted home by his family members where he was confined to a room with food and refreshments for three days. The monk, locked up thus, touched neither food nor drink for the said period and his relatives, fearing the worst, unlocked the door. The monk quietly slipped away thereafter and was never seen again. Later it was rumoured that he had become the head of a monastery in Varanasi but nothing could be ascertained with any degree of certitude. Vishwanath in his youth visited Varanasi in search of his father but failed to trace him. Thus disappeared the monk of sterling spiritual strength from the horizons of the Datta household till his gene reappeared in his redoubtable grandson, Narendranath, whose monastic future bore unmistakable marks of his predecessor, Durgaprasad.

YOUR SWAMIJI ... 7

Vishwanath, deprived of paternal care and patrimony, grew up under the loving care of his mother, though amidst straightened circumstances. But a worse fate was awaiting him. At the age of ten he lost his mother. Now, orphaned and ill-treated by uncle Kaliprasad, Vishwanath took to the hard way of labouring through to life's success. He became proficient in several languages - Bengali, English, Persian, Arabic, Urdu and Hindi, and also learnt a smattering of Sanskrit in a classical Sanskrit Tol. He studied history in-depth, astrology enough to be able to cast the horoscopes of his children, and studied music under an Ustad. After completing secondary education he attempted business,  failed and apprenticed himself under Mr. Temple, a British attorney. In 1866 he qualified as an attorney and set up shop with one Ashutosh Dhar under the name 'Dhar and Datta'. Soon his legal proficiency earned him independent status as attorney-at-law in the Calcutta High Court where his practice took off.

YOUR SWAMIJI ... 8

Vishwanath's fame as a legal practitioner spread far and wide and he had to travel extensively all over India to meet up with his clients' cases. His income soared and so did his expenditure as he lived lavishly and gave liberally to seekers in need. His charity earned him the sobriquet 'Daataa Vishwanath' or 'Philanthropist Vishwanath'. He refused none and gave to all who were in need and even to some indolent relatives who abused his magnanimity by indulging in intoxicants with his money. Vishwanath lived for the day and saved nothing for the morrow, steered by the conviction that his sons, if well fed and well educated, would be able to make their way in life but that the hapless ones he helped were too weak to help themselves and, hence, needed help. The large heart of Vishwanath bled for all, perhaps so conditioned by his own stressful childhood in financial and psychological distress under an unsympathetic uncle. Anyhow, this was how he was and this liberal largeheartedness he bequeathed to his beloved sons, Naren in particular who even imbibed sterling virtues of head and heart from his mother Bhuvaneshwari.

YOUR SWAMIJI ... 9

Well-versed in the Holy Bible and the Dewan-i-Hafiz and well acquainted with Hindu, Islamic and European culture and customs, Vishwanath had a universal outlook on life and living. Progressive in thinking but guarded in giving into new-fangled socioreligious movements of the day, Vishwanath was a precursor in some sense to the modern Hindu man as yet germinating in the womb of time. His illustratious son would set the seal on the mould that was thus being cast on the dawn of this new awakening of the ancient spirit whose crest bore the personality of Ramakrishna. But we are fast-forwarding the narrative thus which we must desist from. As of now we must remember that here was Vishwanath, caught in the cross-current of the three aforementioned cultures out of which he was fashioning his own perspective, his world-view, and setting them to print in the form of three books which he authored, namely, 'Shishtaachaar Paddhati' ('Canons of Good Conduct') in two volumes and a novel in his vernacular Bengali, titled 'Sulochanaa'. Vishwanath supported Vidyasagar's crusade for the remarriage of widows but refrained from participating directly in such social movements, busy as he was with his intensive legal practice. One more pointer about Vishwanath - he was an agnostic of sorts, irreverent of superstitious religious practices that kept people down but was never irreverent towards sublime principles of spiritual and moral thought which he tried to put into practice in his own life by way of alleviating the misery of the hapless ones he came across in his life's thoroughfare. This was then the father of the future Vivekananda.

YOUR SWAMIJI ... 10

Hardly anybody recalls the name of Swami Vivekananda's maternal grandfather or the maiden surname of Swamiji's mother. That she was Basu and bore in her bloodstream the kshatriya valour of this clan from erstwhile Kannakubja (Kanauj) is forgotten in the name Narendranath Datta. But the great prophet bore in his arteries that strong blood which made him revolutionise India into rebellion against the British and break the citadel of global colonialism. Narendranath's grandfather on his mother's side was Nandalal Basu of Simla, North Kolkata, and his only daughter Bhuvaneshwari Basu, married to Vishwanath Datta, was his mother. Bhuvaneshwari, born to wealth and high culture, was aristocratic in temperament devoid of its vices and it was from her that the boy Bileh absorbed in his mother's milk that nobility of character that set him out as unique in the world of men, so much so that in later years in Paris he was mistaken to be a prince by a hotel boy who could not be convinced otherwise. Well, Bhuvaneshwari, wedded to Vishwanath at ten, mothered Narendranath as her seventh child and her first surviving son. But more of that later for here we are in the midst of the maturing of a modern Madonna for who else could hold in her womb the one whose eagle eye holds countless universes in harmonic play ? Let us dwell on this girl, Bhuvaneshwari.

YOUR SWAMIJI ... 11

Bhuvaneshwari was wedded to conjugal life at the early age of 10 as was the custom in those days prior to the passing of the Age of Consent Bill. She bore fruit several times of which three died in infancy and she remained without a son yet. The pious girl prayed and fasted and exhorted an aunt living in Varanasi to offer prayers at the seat of Vireshwar Shiva in Kashi. Accordingly, every Monday special offerings were made there and they were reinforced by Bhuvaneshwari keeping her vigils and fasts here in Kolkata. The channel was thus being set up for the golden road that was to connect the ancient city and this modern metropolis, and when the pathway had been fully laid, Bhuvaneshwari dreamt of the meditative Shiva awaking from his seat of concentration and announcing His resolve to be born as her son. In ecstatic joy Bhuvaneshwari awoke from her divine slumber and fell prostrate at her chosen deity's feet, the adorable Umanath, who she had so ardently worshipped all these years. Bathed in tears of bliss Bhuvaneshwari felt saturated with the Lord's grace. Soon she felt that she had conceived.

YOUR SWAMIJI ... 12

12 January, 1863. Makar San°kraanti Day. Millions of pilgrims were assembled at the estuary of the Bay of Bengal to offer oblation to the Highest when heaven itself descended to earth in the form of the infant who was to steer humanity onto a new course, setting the stamp of his divine personality on the unfolding age of light that was now waiting in the wings to emerge in full flight. The forest of this world was ready for this fresh efflorescence and the bud blossomed from the womb of Bhuvaneshwari six minutes before sunrise to send a thrill of joy through the Datta household. A son had been born, Bhuvaneshwari's long-cherished dream, the parched earth's long longing, humanity's hope of redemption from its decadent state. Vishwanath grew so blissfully excited that his charity broke all bounds this hour as he started giving away to whosoever came his way anything he could lay his hands on. Finally, he had given away the very clothes he was wearing, a la Emperor Harshavardhana of old, and had to borrow his wife's saree to cover himself. The boy was named by the mother Vireshwar after the deity who had fulfilled His promise to be born as the pious supplicant's son. Soon lingustic aberration changed it to Bileh and so was how the future Vivekananda used to be called by his loving mother even in his twilight years in Belur Math when the old lady proudly strutted about the precincts of the monastery in search of her son, calling loudly, "Bileh ! Bileh !" and the son would emerge from his room and descend the stairs to fall prostrate at his beloved mother's feet. But we have much advanced in our narrative in our flight of fancy and must revert to its fresh beginnings, for we have a full lifetime to cover. Right now the baby cries in its mother's arms. Or, does it blink in wonder at the strange world around ?

YOUR SWAMIJI ...13

The boy was Bileh at home, to the world Narendranath, a name that was, as if by divine sanction, to set its stamp upon the very world. An exceeding force seemed to well up within him making him irrepressibly naughty, playful, self-willed and at times given to fits of violent temper when he would even rampage his way through whatever he could lay his hands on, furniture et al. Mother Bhuvaneshwari, driven to her wit's end, would then in exasperation exclaim, "Alas ! I had prayed to Shiva for a son but He has sent me one of His demons instead." No amount of censure, threat or even inducement would work with the turbulent child and he had to be manned by two nurses constantly to keep him in a semblance of check. Finally, Bhuvaneshwari discovered a unique way of tackling the situation. When Bileh was in one of those moods, she would pour water over his head profusely while chanting the name 'Shiva'. She would further induce fear in him saying, "If you are naughty thus, Shiva will refuse you entry into His abode, Kailash, again." Like magic this would work and calm the boy and he would be his bonny self again.

YOUR SWAMIJI ... 14

Now two very important features of the baby Bileh's personality were (a) his easy acceptance of all and sundry as his own and his consequent easing into anyone's arms who extended them to hold him, and (b) his submission to gentleness shown to him by any and equal revulsion of harshness by any in interaction with him. These traits manifest in the baby are worth meditating on as we attempt to unravel not only the secrets of the child-mind universally but also as we seek to plumb the divine depths of the future Swami Vivekananda, now, though, right in bud.

YOUR SWAMIJI ... 15

Grandfather Durgaprasad's gene was very much manifest in Narendranath from early boyhood. He had a liking for mendicant monks and would give away alms freely to them. But he was just a small boy. What did he have that he could give? Well, he gave away his first piece of dhoti from round his waist to a sadhu. Likewise he gave away whatever he could lay his hands on to these pilgrims of the Spirit so much so that when any such appeared at their door he had to be kept confined in an upper storey room to keep him in bounds. But such ploys failed when Naren flung through the open window whatever was available to him in his cell to monks passing by on the road below. Such affinity for the renunciates was early signal of things brewing up in the heart of the Divine Mother orchestrating things from behind that was to fashion Narendranath's fate. A vast force was accumulating in the child that was to inundate the world in the days to come. And in this prophetic mission of his he was to bear not only the blessings of his divine Master but those of each and every monk who he gave and who in their turn blessed him silently from the depths of their hearts.

YOUR SWAMIJI ... 16

Ebullient as he was, Naren was given to pranks galore. One of these was to tease his sisters and, when chased, to seek refuge in the open drain and makes faces and remarks such as 'Catch new! Catch me !' from there, knowing full well that they would not dare follow suit into the dirt where he lay. The future Vivekananda was worshipped in Kashi Kedarnath Temple as Shiva, was reverenced by a passing monk in the Himalayas as Shiva and venerated by many including his brother disciples like Swami Brahmananda as the same Lord Ascetic. In that sense he was Pashupati, the Lord of all animals, and to this effect he showed early signs by way of his affinity towards his pet animals. Lifelong this relation remained, even in his advanced years in Belur Math where he had quite a number of pets. The boy Bileh had a monkey, a goat, a peacock, pigeons, guinea-pigs, the family cow and his father's horse to keep him company. He with his sisters would bedeck the cow with garlands, mark her forehead with vermillion and reverence her on festive occasions. This easy relation with the dumb animals must have been a formative influence in the making of his future deep sympathy with the muted millions of his benighted motherland.

YOUR SWAMIJI ... 17

Naren's bosom buddy was his father's coachman. He spent hours in the company of the syce at the stable and nursed ambitions of one day becoming a syce himself. His intimacy with the syce drew the twain into close communication and imperceptibly lay open Naren's mind to whatever the former had to say to him. At noon every day the little boy was privy to the women folk's rendition of the Ramayana reading and with rapt attention he absorbed the epic tales which gradually endeared him to Sita and Rama. Soon he had bought from the market idols of the divine couple and with the help of a friend installed them in the attic and with floral offerings worshipped them to his child heart's content. This went on till the syce, himself victim to an unhappy marital life, criticised the very institution of marriage vehemently before Naren, thereby making the boy brood on its futility. He could no more now accept the fact that his divine ideals, Sita and Rama, were also one such married couple and in tears confided his predicament to his mother. Bhuvaneshwari instantly assuaged his grief by asking him from then on to worship the ascetic of ascetics, Shiva, instead. Naren was pacified but could not reconcile himself anymore to being in the proximity of Sita and Rama. Accordingly, he rushed to the attic, picked up his beloved idols and in the dark enveloping evening walked to the edge of the terrace railing and hurled down the images onto the road below. His ideal had been shattered, now he smashed the idols representing them. Next day he bought from the market a clay image of Shiva and began afresh his meditation on the Lord. However, Sita-Rama remained forever etched in his memory as his boyhood's first divine love and became a significant formative influence in his life and a perennial presence in his monastic life as well. Many years later he called every Indian the child of Seeta, that holy woman who unmurmering bore all her suffering in her all-encompassing love for her beloved husband, the divine Rama.

Written by Sugata Bose

Thursday, 21 October 2021

Tibet, the land of the forbidden.


Tibet, the land of the forbidden.

Maya was a simple young lady who lived in the Tibetan settlement on the outskirts of Mundugod, near Hubli in North Karnataka. She used to teach the Tibetan language to the children in the camp, so they could not forget their roots. She was smart and hard-working. 

My father was a doctor working in Hubli and he occasionally visited that settlement. If any of the Tibetans wanted further treatment, they would visit my father at the government hospital in Hubli, Maya too started visiting my father and she was expecting her first child. 

Over the months she became quite friendly with all of us. Whenever she came to the hospital she would pay us a visit too. My mother would invite her for a meal and we would spend some time chatting. 

In the beginning, we would be in awe of her and stare at her almost-white skin, dove eyes, the little flat nose and her two long, thin plaits. Slowly we accepted her as a friend and she graduated to become my knitting teacher. Her visits were sessions of knitting, chatting and talking about her life in the camp and back in her country for which she still yearned. Maya would describe her homeland to us with great affection, nostalgia, and at times with tears in our eyes. 

‘Tibetans are simple people. We are all Buddhists but our Buddhism is of a different kind. It is called Vajrayana. There’s been a lot of influence from India, particularly Bengal, on our country and religious practises. Even our script resembles Bengali.’Her words filled me with a sense of wonder about this exotic land called Tibet they I would pester her to tell me more about that country. One day we started talking about the Dalai Lama. 

‘What is the meaning of the Dalai Lama?’ I asked.

‘It means “Oceans of knowledge”. Ours is a unique country where religious heads have ruled for 500 years. We believe in rebirth and that each Dalai Lama is an incarnation of the previous one. The present Dalai Lama is the 14th. You know, India is the holy land of Buddha. Historically, we have always respected India. There is a nice story about how Buddhism came to Tibet through India….’

I could not wait to hear about this!

‘Long ago there was a king in Tibet who was kidnapped by his enemies. They demanded a ransom of gold, equal to the weight of the king. When the imprisoned king heard this, he somehow sent word to his son: “Don’t waste any gold to get me back. Instead, spend that money to bring good learned Buddhist monks from India. With their help, open many schools and monasteries so that our people can live in peace and gain knowledge.””

Months passed and Maya delivered a baby. After that our meetings became less frequent. But she succeeded in awakening within me a curiosity about Tibet and a great respect for Buddhism. 

Recently I got a chance to visit Tibet and memories of Maya filled my mind. I knew I would be seeing a Tibet filled with the Chinese but nevertheless I was keen to go. Among the places I wanted to see was a Buddha Temple in Yarlung Valley that she had described to me. 

When I finally reached the valley, it was past midday. There was a cold wind blowing though the sun was shining brightly. The Brahmaputra was flowing like a stream here, nothing like the raging torrent in Assam. Snow-capped mountains circled the valley and there was absolute silence all around. 

 The monastery at Yarlung is supposed to be a famous pilgrimage spot, but I could see only a handful of people in the entire place. After seeing everything inside I sat down on the steps and observed the serene beauty of the place. 

I noticed an old woman accompanied by a young man walking into the monastery. The Woman was very old, her face was wrinkled and she walked slowly and weakly. She was wearing the traditional Tibetan dress and her hair was plaited. The young man on the other hand was dressed in the usual modern manner, in tight jeans and a body hugging T-shirt. The woman started circumambulating the monastery using her stick for support while the man sat down on the steps like me. 

When she finished, I realised the old lady was staring at me. Then she said something to the young man in Tibetan. She looked tired by her ritual and sat down on the steps. She said something to her companion again but he took little notice of her. So she slowly picked up her stick and came towards me. She sat down near me, took my hand and, saying something, gently raised them to her eyes and kissed them. Before I could say anything, she got up and started to walk away. But I noticed she was smiling, as if she had achieved a long-held desire. I realised there was a wetness where her eyes had touched my hand.

Now the young boy reluctantly came up to me and apologised. ‘Please forgive my grandmother,’ he said. ‘She is from a village in the interior part of Tibet. She has never ventured out of her village. This is the first time she has come to Yarlung. I beg your pardon for her behaviour.’

He was talking to me in English with an Indian accent. 

‘How come you speak English like us?’ I asked in surprise. ‘My name is Ke Tsang. I was in India for five years. I studied at Loyola College in Chennai. Now I run a restaurant in Lhasa. People here like Indian food and movies. I accompanied my grandmother for her pilgrimage. She was thanking you.’

‘But for what? I have not done anything for her!’

‘That is true, but your country has. It has sheltered our Dalai Lama for so many years. He is a living God to us, particularly to the older generation. We all respect the Dalai Lama, but due to political reasons, we cannot express it in public. You might have seen that there isn’t a single photo of his in any public place in the whole of Lhasa. He’s the 14th, but we have paintings, statues and pictures only upto the 13th. 

I still did not understand old lady’s gesture. The grandson explained, ‘She said, “I am an old lady and don’t know how long I will live. If I don’t thank you before I die, I will never attain peace. Let anyone punish me for this it does not matter. It is a gift that I met an Indian today and was able to thank you for sheltering our Dalai Lama. Yours is the truly a compassionate land.””

Her words eerily echoed Maya’s from many years back. I could only look down at the wet spot in my hand and smile.

Story courtesy: Mrs Sudha Murty.

Sunday, 19 September 2021

Who am I -- a nice story


_*Who am I?*_

_Once, a beggar while begging in a train, noticed a well-dressed businessman wearing a suit and boots. He thought that this man must be very rich, so he will surely give good money if I ask him. So he went and asked that man for alms._ 

_The man looked at the beggar and said, *"You always beg and keep asking from people, do you ever give anything to anyone?"*

_The beggar said, *"Sir, I am a beggar, I can only keep asking people for money. How will I be able to give anything to anyone?"*

_The man replied, "When you can't give anything to anyone, then you don’t have any right to ask as well. I am a businessman and believe in transactions only - if you have something to give me, then I can also give you something in return.”_

_Just then, the train arrived at a station, and the businessman got down and left._

_The beggar started thinking about what the man had said. His words somehow reached the beggar’s heart._

_He started thinking that maybe I do not get much money in alms because I am not able to give anything to anyone in return. But I am a beggar, I am not even worth giving anything to anyone. But for how long will I keep asking people without giving anything._

*After thinking deeply, the beggar decided that whenever he gets something on begging, he will definitely give something back to that person in return.*

_But now the question was, what could he give others in return for begging? The whole day had passed thinking about this but he could not find any answer to his question._

_The next day while he was sitting near the station, his eyes fell on some flowers blooming on the plants around the station. *He thought, why not give some flowers to the people in return for alms.*

_He liked this idea and plucked some flowers from there and went to the train to beg._

*Whenever someone gave alms to him, he would give some flowers to them in return. People used to keep those flowers happily with them.*

_Now the beggar used to pluck flowers everyday and distribute those flowers among the people in return for the alms._

_Within a few days he realized that now a lot of people have started giving him alms. He used to pluck all the flowers near the station._

 _As long as he had flowers, many people used to give him alms. But when no more flowers were left with him, he wouldn’t get much. And this continued every day._

_One day when he was begging, he saw that the same businessman was sitting in the train, because of whom he was inspired to distribute flowers._

_The beggar immediately reached out to him and said, *"Today I have some flowers to give you in return for alms.*

_The man gave him some money and the beggar gave him some flowers in return. The man liked his idea very much and was quite impressed._

_He said, *"Wow! Today you too have become a businessman like me."*

_Taking flowers from the beggar, he got down at the station._

_But once again, his words had reached deep into the beggar’s heart._

 _He kept thinking again and again about what the man had said and started becoming happy._

_His eyes started shining now, he felt that he had now got the key to success by which he could change his life._

_He immediately got down from the train and excitedly looked up at the sky and in a very loud voice said, *“I am not a beggar anymore, I am a businessman now, I can also become like that gentleman, I can also become rich.”*

_When people saw him, they thought that maybe this beggar has gone mad. From the next day that beggar never appeared at that station again._

_Four years later, two men dressed in suits were traveling from the same station. When both of them looked at each other, one of them bowed to the other with joined hands and asked, *"Do you recognize me?"*

_The other replied, *"No! Maybe we're meeting for the first time."*

_The first one again said, "Sir, try to remember, we are not meeting for the first time but for the third time"._

_Second person, "Well, I can't remember. When was it that we met before?"_

_Now the first person smiled and said, *"We have met twice in the same train before. I am the same beggar whom you had told in the first meeting what I should do in life, and in the second meeting you told me who I really am."*

_"As a result, today I am a very big flower merchant and I am going to another city in respect of the same business."_

*"You told me the law of nature in the first meeting... according to which we get something only when we give something.*

_This rule of transaction really works, I've felt it very well, but I always thought of myself as a beggar, I never thought to rise above it._

*When I met you for the second time, you told me that I have become a businessman. Thanks to you, from that day onwards, my perspective changed and now I have become a businessman, I’m not a beggar anymore.”*

_Indian sages probably put the most emphasis on *‘knowing yourself’.*

_As long as the beggar considered himself a beggar, he remained a beggar and when he considered himself as a businessman, he became one._

*Similarly, the day we will understand our true nature, then what will be left to know and understand?_*

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The beginning of Mahalaya ....Pitru Paksha

The beginning of Mahalaya ....Pitru Paksha .....the days to offer homage and perform rituals to our departed ancestors and time to make amends ....starting September  21 and ends with Mahalaya Amavasai   on October 6 2021 and heralds the beginning of Navarathri the descent of Godess Durga to earth ....this period  is  also callled the fortnight of  our ancestors or pitrs .
Pitru Paksha is a dark fortnight period in the lunar month of Bhadrapad which is dedicated to deceased ancestors. During this period deceased ancestors or family members are believed to transcend from Pitru Loka and visit their family homes. Just as a duty we serve our parents and relatives, similarly certain duties are also prescribed for them after their death. Shradh, Tarpan, Pind Daan and other rituals related to Pitru paksha makes a great opportunity to fulfill these duties, especially during the Pitru Paksha period. These rites are also important because they help ancestors to get satisfied, gain momentum in their onwards journey to higher regions and provides them relief if they are stuck in inferior regions, cursed or stuck due to unfulfilled desire. ( source Times of India  )

Mahalaya or Pitru paksha is a 15 days Lunar period when Hindus perform shradh rituals for their departed ancestors parents and relatives by offering food  and performing tarpan or shradh ritual on river banks if possible Food is the main offering . 

Our parents leave the world leaving behind the body which is made of five elements. They obtain a watery body and become PITRUS and also become the citizens of the kingdom Vaivasvata Aadi. There they will not be in a position to get the things they need for their very existence. Only under such circumstances they expect the assistance of their children. Yamadharma out of compassion for the PITRU DEVATAS, sends them to earth with an instruction to take food from their children. The period when Yamadharma allows them to this world is called MAHALAYA PAKSHA. Either to cleanse the place where PITRUS lived once or to consume the food offered by the children, PITRUS are sent to this world. The PITRUS fond of getting the six type of food eagerly come down. During the sixteen days the children would perform MAHALAYA SHRADDHA ceremony. The PITRUS feel as if they are part of a festival with their children. That is why this period is called MAHA AALAYAM i.e. Meaning great temple.
 
 Mahalaya  Amavasai and most important day and also called the  sarva pitru shradh when the Shradh can be performed without looking at  thithi  or nakshatra 
Mahalaya is also the beginning of the the advent of Godess Durga and as a countdown to Durga Pooja . It is believed that the Goddess Durga   descends to earth with her family during this period hence most auspicious and pious.
 Legend behind Mahalaya 
It is believed that after the battle of Mahabharata Karna died and his soul transcended to heaven . 
He was offered gold and jewellery as food . Karna was surprised and asked Indra the reason for this strange offering . 
Lord Indra told Karna that as he had never offered food to his ancestors during his lifetime on earth he was receiving this treatment .
Karna said that he was not aware of his ancestors and asked to make amends for his actions . and so Indra sent him back to earth to make amends
Karna returned to earth for a 16 day period and this is the Pitru paksha month to perform shradh rituals and offer food to his ancestors . 
This period is also called the first day of Devi paksha when the Godess begins her descent to earth and marks the beginning of the festival days ahead .
Mahalaya Amavasya marks the beginning of Navratri festivity, It is a special day dedicated to making an offering to express our gratitude to all the previous generations of people who have contributed to our life.
The Mahalaya Amavasya is the day that marks the culmination of the Pitru Paksha period and the beginning of the Devi Paksha. On this day, Shradh and Tarpan rituals are performed for those who breathed their last on the Purnima Tithi, Chaturdashi Tithi and Amavasya Tithi.
Moreover, it is also considered an ideal day for paying obeisance to all the departed souls in the family. People begin preparations to welcome the Goddess on the day of Mahalaya Amavasya although the Durga Puja celebrations last for days. It is believed that the Goddess arrives with her children, Kartikeya, Ganesha and Goddesses Lakshmi and Saraswati .

The purpose of the Shraddha ceremony performed during the Pitri Paksha is two fold: i) to offer food and water to the departed souls, ii) to help them get released from the hellish or ghostly realms that they may be stuck in.
It is obligatory for the descendants to perform the Shraddha ceremony, because, it is highly likely that out ancestors may be suffering in some hellish condition of life after departing from their previous body.
 when we offer food and water to our ancestors once every year here on earth, for them it is like getting to eat everyday. 
. During this period deceased ancestors or family members are believed to transcend from Pitru Loka and visit their family homes. Just as a duty we serve our parents and relatives, similarly certain duties are also prescribed for them after their death. Shradh, Tarpan, Pind Daan and other rituals related to Pitru paksha makes a great opportunity to fulfill these duties, especially during the Pitru Paksha period. These rites are also important because they help ancestors to get satisfied, gain momentum in their onwards journey to higher regions and provides them relief if they are stuck in inferior regions, cursed or stuck due to unfulfilled desire.
But if an ancestor takes rebirth, the Shradh, Tarpan and other rituals do not go in vain but certainly reach them even in their new birth. Because the baggage of previous birth accompanies an individual even in his/her new birth. So, when the rituals are performed for the ancestors who have taken new birth, the fruits of rituals are experienced by them in form of internal satisfaction.
The human life is indebted to 5 loans and it's duty of a grihasth or householder to repay these.
These 5 loans are
Dev rina
Pitru rina
Rishi rina
Vanaspati rina
Pashu rina
Each of the five groups we are indebted have provided us essentially of leading this life happily and even a chance which only few can utilise to attain nirvana. The ancestors gave us this body, gods have made earth favourable through balance of elements, sages have shared their knowledge with us , plants nourish us, and animals are used for dairy, manure, ploughing etc. Thus each has a contribute and deserve back the respect.
Thus the case of ancestral worship arises. We call and Revere our ancestors and express our gratitude.

on the day of AMAVASYA, TARPANA shall be done for two sides of the family (ie) PITRUS from the father’s side and PITRUS from the mother’s side.  During the MAHALAYA PAKSHA TARPANA ought to be done to KARUNIKA PITRUS too.
KARUNIKA PITRU DEVATAS
The following are called KARUKINA PITRU DEVATAS:

Younger brother of the father
Elder brother of the father
Elder brother
 Younger brother
Sisters
Ones own sons
Aunt (Sisters of father)
Aunt’s son (Amman)
Wife of father’s elder brother
Wife of father’s younger brother
Daughters and sons of father’s brothers
Wife
Father in law
Mother in law
Daughter in law
Wife’s brothers
Guru
Master under whom one serves
Friends

source.Kanchi Mutt

Friday, 10 September 2021

11th September, 1893- Swami Vivekananda gave his historic speech

On the same day (11th September, 1893) Swami Vivekananda gave his historic speech at the Parliament of religons, Chicago, USA. Below are the details as to how many hardships and obstacles he had to undergo for this grand event, that gave a new identity to India and Hinduism in the West.

Part 1

Swami Vivekananda walked through the spacious grounds of the World's Fair and was speechless with amazement. Never before had the Swami seen such an accumulation of wealth, power, and inventive genius in a nation. In the fair-grounds he attracted people's notice. Lads ran after him, fascinated by his orange robe and turban. Shopkeepers and porters regarded him as a Maharaja from India and tried to impose upon him. 
Soon after his arrival in Chicago, he went one day to the information bureau of the Exposition to ask about the forthcoming Parliament of Religions. He was told that it had been put off until the first week of September (it was then only the end of July), and that no one without credentials from a bona fide organization would be accepted as a delegate. He was told also that it was then too late for him to be registered as a delegate. All this had been unexpected by the Swami. … In the meantime, the purse, that the Swami had carried from India, was dwindling; for things were much more expensive in America than he or his friends had thought. In a frantic mood he asked help from the Theosophical Society, which professed warm friendship for India. He was told that he would have to subscribe to the creed of the Society; but this he refused to do, because he did not believe in most of the Theosophical doctrines. Thereupon the leader declined to give him any help. The Swami became desperate and cabled to his friends in Madras for money.

Finally, however, someone advised him to go to Boston, where the cost of living was cheaper, and in the train his picturesque dress, no less than his regal appearance, attracted a wealthy lady, who resided in the suburbs of the city. She cordially invited him to be her guest, and he accepted, to save his dwindling purse. …

The Swami met a number of people, most of whom annoyed him by asking queer questions regarding Hinduism and the social customs of India, about which they had read in the tracts of Christian missionaries and sensational writers. However, there came to him a few serious-minded people, and among these were Mrs. Johnson, the lady superintendent of a women's prison, and J.H. Wright, a professor of Greek at Harvard University. 

The Swami was encouraged by Professor Wright to represent Hinduism in the Parliament of Religions, since that was the only way he could be introduced to thenation at large. When he announced, however, that he had no credentials, the professor replied: “To ask you, Swami, for your credentials is like asking the sun about its right to shine”. He wrote about the Swami to a number of important people connected with the Parliament, especially to the chairman of the committee on selection of delegates, who was one of his friends, and said: “Here is a man more learned than all our learned professors put together”. Professor Wright bought the Swami railroad ticket for Chicago.

The train bearing Vivekananda to Chicago arrived late in the evening, and he had mislaid, unfortunately, the address of the committee in charge of the delegates. He did not know where to turn for help, and no one bothered to give information to this foreigner of strange appearance. Moreover the station was located in a part of the city inhabited mostly by Germans, who could hardly understand his language. He knew he was stranded there, and looking around saw a huge empty wagon in the railroad freightyard.
In this he spent the night without food or a bed.

In the morning he woke up “smelling fresh water”, to quote his own words, and he walked along the fashionable Lake Shore Drive, which was lined with the mansions of the wealthy, asking people the way to the Parliament grounds. But he was met with indifference. Hungry and weary, he knocked at several doors for food and was rudely treated by the servants. His soiled clothes and unshaven face gave him the appearance of a tramp. He sat down exhausted on the sidewalk and was noticed from an opposite window. The mistress of the house sent for him and asked the Swami if he was a delegate to the Parliament of Religions. He told her of his difficulties. The lady, Mrs. George W. Hale, a society woman of Chicago, gave him breakfast and looked after his needs. When he had rested, she accompanied him to the offices of the Parliament and presented him to Dr. J.H. Barrows, the President of the Parliament, who was one of her personal friends. The Swami was thereupon cordially accepted as a representative of Hinduism and lodged in the house of Mr. and Mrs. John B. Lyons. Mr. and Mrs. Hale and their children as well as the Lyons, became his lifelong friends. Once again the Swami had been strengthened in his conviction that the Lord was guiding his footsteps, and he prayed incessantly to be a worthy instrument of His will.

(Swami Nikhilananda “Swami Vivekananda – A Biography”, Trip To America)

Monday, 28 June 2021

देवरहा बाबा एक महान संत योगिराज

#देवरहा बाबा एक ऐसे महान संत योगिराज जिनके चरण अपने सिर पर रखवा कर आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए देश ही नहीं विदेशों के राष्ट्राध्यक्ष तक लालायित रहते थे। वह यूपी के देवरिया जिले के रहने वाले थे। 

मंगलवार, 19 जून सन् 1990 को योगिनी एकादशी के दिन अपना प्राण त्यागने वाले इस बाबा के जन्म के बारे में संशय है। उनकी उम्र के बारे में भी एक मत नहीं है। कुछ लोगों का तो यहाँ तक मानना है कि बाबा 900 वर्ष की आयु तक जीवित रहे (बाबा के संपूर्ण जीवन के बारे में अलग-अलग मत है, कुछ लोग उनका जीवन 250 साल तो कुछ लोग 500 साल मानते हैं.)।

भारत के उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद में एक योगी, सिद्ध महापुरुष एवं सन्तपुरुष थे देवरहा बाबा। डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद, महामना मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तमदास टंडन, जैसी विभूतियों ने पूज्य देवरहा बाबा के समय-समय पर दर्शन कर अपने को कृतार्थ अनुभव किया था। पूज्य महर्षि पातंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग में पारंगत थे।

श्रद्धालुओं के कथनानुसार बाबा अपने पास आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से बड़े प्रेम से मिलते थे और सबको कुछ न कुछ प्रसाद अवश्य देते थे। प्रसाद देने के लिए बाबा अपना हाथ ऐसे ही मचान के खाली भाग में रखते थे और उनके हाथ में फल, मेवे या कुछ अन्य खाद्य पदार्थ आ जाते थे। जबकि मचान पर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं रहती थी।

श्रद्धालुओं को कौतुहल होता था कि आखिर यह प्रसाद बाबा के हाथ में कहाँ से और कैसे आता है। जनश्रूति के मुताबिक, वह खेचरी मुद्रा की वजह से आवागमन से कहीं भी कभी भी चले जाते थे। उनके आस-पास उगने वाले बबूल के पेड़ों में कांटे नहीं होते थे, चारों तरफ सुंगध ही सुंगध होता था।

लोगों में विश्वास है कि बाबा जल पर चलते भी थे और अपने किसी भी गंतव्य स्थान पर जाने के लिए उन्होंने कभी भी सवारी नहीं की और ना ही उन्हें कभी किसी सवारी से कहीं जाते हुए देखा गया। बाबा हर साल कुंभ के समय प्रयाग आते थे।

यमुना के किनारे वृन्दावन में वह 30 मिनट तक पानी में बिना सांस लिए रह सकते थे। उनको जानवरों की भाषा समझ में आती थी। खतरनाक जंगली जानवारों को वह पल भर में काबू कर लेते थे।

लोगों का मानना है कि बाबा को सब पता रहता था कि कब, कौन, कहाँ उनके बारे में चर्चा हुई। वह अवतारी व्यक्ति थे। उनका जीवन बहुत सरल और सौम्य था। वह फोटो कैमरे और टीवी जैसी चीजों को देख अचंभित रह जाते थे। 

वह उनसे अपनी फोटो लेने के लिए कहते थे, लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि उनका फोटो नहीं बनता था। वह नहीं चाहते तो रिवाल्वर से गोली नहीं चलती थी। उनका निर्जीव वस्तुओं पर नियंत्रण था।

अपनी उम्र, कठिन तप और सिद्धियों के बारे में देवरहा बाबा ने कभी भी कोई चमत्कारिक दावा नहीं किया। लेकिन उनके इर्द-गिर्द हर तरह के लोगों की भीड़ ऐसी भी रही जो हमेशा उनमें चमत्कार खोजते देखी गई। अत्यंत सहज, सरल और सुलभ बाबा के सानिध्य में जैसे वृक्ष, वनस्पति भी अपने को आश्वस्त अनुभव करते रहे। भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें अपने बचपन में देखा था।

देश-दुनिया के महान लोग उनसे मिलने आते थे और विख्यात साधू-संतों का भी उनके आश्रम में समागम होता रहता था। उनसे जुड़ीं कई घटनाएं इस सिद्ध संत को मानवता, ज्ञान, तप और योग के लिए विख्यात बनाती हैं।

कोई 1987 की बात होगी, जून का ही महीना था। वृंदावन में यमुना पार देवरहा बाबा का डेरा जमा हुआ था। अधिकारियों में अफरातफरी मची थी। प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बाबा के दर्शन करने आना था। प्रधानमंत्री के आगमन और यात्रा के लिए इलाके की मार्किंग कर ली गई।

आला अफसरों ने हैलीपैड बनाने के लिए वहां लगे एक बबूल के पेड़ की डाल काटने के निर्देश दिए। भनक लगते ही बाबा ने एक बड़े पुलिस अफसर को बुलाया और पूछा कि पेड़ को क्यों काटना चाहते हो? 

अफसर ने कहा, प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए जरूरी है। बाबा बोले, तुम यहां अपने पीएम को लाओगे, उनकी प्रशंसा पाओगे, पीएम का नाम भी होगा कि वह साधु-संतों के पास जाता है। लेकिन इसका दंड तो बेचारे पेड़ को भुगतना पड़ेगा।

वह मुझसे इस बारे में पूछेगा तो मैं उसे क्या जवाब दूंगा? नही! यह पेड़ नहीं काटा जाएगा। अफसरों ने अपनी मजबूरी बताई कि यह दिल्ली से आए अफसरों का है। इसलिए इसे काटा ही जाएगा और फिर पूरा पेड़ तो नहीं कटना है, इसकी एक टहनी ही काटी जानी है। मगर बाबा जरा भी राजी नहीं हुए। 

उन्होंने कहा कि यह पेड़ होगा तुम्हारी निगाह में, मेरा तो यह सबसे पुराना साथी है, दिन रात मुझसे बतियाता है, यह पेड़ नहीं कट सकता।

इस घटनाक्रम से बाकी अफसरों की दुविधा बढ़ती जा रही थी। आखिर बाबा ने ही उन्हें तसल्ली दी और कहा कि घबड़ा मत, अब पीएम का कार्यक्रम टल जाएगा, तुम्हारे पीएम का कार्यक्रम मैं कैंसिल करा देता हूं। 

आश्चर्य कि दो घंटे बाद ही पीएम आफिस से रेडियोग्राम आ गया कि प्रोग्राम स्थगित हो गया है, कुछ हफ्तों बाद राजीव गांधी वहां आए, लेकिन पेड़ नहीं कटा। इसे क्या कहेंगे चमत्कार या संयोग।

बाबा की शरण में आने वाले कई विशिष्ट लोग थे। उनके भक्तों में जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री , इंदिरा गांधी जैसे चर्चित नेताओं के नाम हैं। उनके पास लोग हठयोग सीखने भी जाते थे। सुपात्र देखकर वह हठयोग की दसों मुद्राएं सिखाते थे। 

योग विद्या पर उनका गहन ज्ञान था। ध्यान, योग, प्राणायाम, त्राटक समाधि आदि पर वह गूढ़ विवेचन करते थे। कई बड़े सिद्ध सम्मेलनों में उन्हें बुलाया जाता, तो वह संबंधित विषयों पर अपनी प्रतिभा से सबको चकित कर देते।

लोग यही सोचते कि इस बाबा ने इतना सब कब और कैसे जान लिया। ध्यान, प्रणायाम, समाधि की पद्धतियों के वह सिद्ध थे ही। धर्माचार्य, पंडित, तत्वज्ञानी, वेदांती उनसे कई तरह के संवाद करते थे। उन्होंने जीवन में लंबी लंबी साधनाएं कीं। जन कल्याण के लिए वृक्षों-वनस्पतियों के संरक्षण, पर्यावरण एवं वन्य जीवन के प्रति उनका अनुराग जग जाहिर था।

देश में आपातकाल के बाद हुए चुनावों में जब इंदिरा गांधी हार गईं तो वह भी देवरहा बाबा से आशीर्वाद लेने गईं। उन्होंने अपने हाथ के पंजे से उन्हें आशीर्वाद दिया। वहां से वापस आने के बाद इंदिरा ने कांग्रेस का चुनाव चिह्न हाथ का पंजा निर्धारित कर दिया। इसके बाद 1980 में इंदिरा के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रचंड बहुमत प्राप्त किया और वह देश की प्रधानमंत्री बनीं।

वहीं, यह भी मान्यता है कि इन्दिरा गांधी आपातकाल के समय कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती से आर्शीवाद लेने गयीं थी। वहां उन्होंने अपना दाहिना हाथ उठाकर आर्शीवाद दिया और हाथ का पंजा पार्टी का चुनाव निशान बनाने को कहा।

बाबा महान योगी और सिद्ध संत थे। उनके चमत्कार हज़ारों लोगों को झंकृत करते रहे। आशीर्वाद देने का उनका ढंग निराला था। मचान पर बैठे-बैठे ही अपना पैर जिसके सिर पर रख दिया, वो धन्य हो गया। पेड़-पौधे भी उनसे बात करते थे। उनके आश्रम में बबूल तो थे, मगर कांटेविहीन। यही नहीं यह खुशबू भी बिखेरते थे।

उनके दर्शनों को प्रतिदिन विशाल जनसमूह उमड़ता था। बाबा भक्तों के मन की बात भी बिना बताए जान लेते थे। उन्होंने पूरा जीवन अन्न नहीं खाया। दूध व शहद पीकर जीवन गुजार दिया। श्रीफल का रस उन्हें बहुत पसंद था।

देवरहा बाबा को खेचरी मुद्रा पर सिद्धि थी, जिस कारण वे अपनी भूख और आयु पर नियंत्रण प्राप्त कर लेते थे।

ख्याति इतनी कि जार्ज पंचम जब भारत आया तो अपने पूरे लाव लश्कर के साथ उनके दर्शन करने देवरिया जिले के दियारा इलाके में मइल गांव तक उनके आश्रम तक पहुंच गया। दरअसल, इंग्लैंड से रवाना होते समय उसने अपने भाई से पूछा था कि क्या वास्तव में इंडिया के साधु संत महान होते हैं।

प्रिंस फिलिप ने जवाब दिया- हां, कम से कम देवरहा बाबा से जरूर मिलना। यह सन 1911 की बात है। 

जार्ज पंचम की यह यात्रा तब विश्वयुद्ध के मंडरा रहे माहौल के चलते भारत के लोगों को बरतानिया हुकूमत के पक्ष में करने की थी। उससे हुई बातचीत बाबा ने अपने कुछ शिष्यों को बतायी भी थी, लेकिन कोई भी उस बारे में बातचीत करने को आज भी तैयार नहीं।

डाक्टर राजेंद्र प्रसाद तब रहे होंगे कोई दो-तीन साल के, जब अपने माता-पिता के साथ वे बाबा के यहां गये थे। बाबा देखते ही बोल पड़े- यह बच्चा तो राजा बनेगा। बाद में राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने बाबा को एक पत्र लिखकर कृतज्ञता प्रकट की और सन 54 के प्रयाग कुंभ में बाकायदा बाबा का सार्वजनिक पूजन भी किया।

बाबा देवरहा 30 मिनट तक पानी में बिना सांस लिए रह सकते थे। उनको जानवरों की भाषा समझ में आती थी। खतरनाक जंगली जानवरों को वह पल भर में काबू कर लेते थे।

उनके भक्त उन्हें दया का महासमुंदर बताते हैं। और अपनी यह सम्पत्ति बाबा ने मुक्त हस्तज लुटाई। जो भी आया, बाबा की भरपूर दया लेकर गया। वितरण में कोई विभेद नहीं। वर्षाजल की भांति बाबा का आशीर्वाद सब पर बरसा और खूब बरसा। मान्यता थी कि बाबा का आशीर्वाद हर मर्ज की दवाई है।

कहा जाता है कि बाबा देखते ही समझ जाते थे कि सामने वाले का सवाल क्या है। दिव्यदृष्ठि के साथ तेज नजर, कड़क आवाज, दिल खोल कर हंसना, खूब बतियाना बाबा की आदत थी। याददाश्त इतनी कि दशकों बाद भी मिले व्यक्ति को पहचान लेते और उसके दादा-परदादा तक का नाम व इतिहास तक बता देते, किसी तेज कम्प्युटर की तरह।

हां, बलिष्ठ कदकाठी भी थी। लेकिन देह त्याहगने के समय तक वे कमर से आधा झुक कर चलने लगे थे। उनका पूरा जीवन मचान में ही बीता। लकड़ी के चार खंभों पर टिकी मचान ही उनका महल था, जहां नीचे से ही लोग उनके दर्शन करते थे। जल में वे साल में आठ महीना बिताते थे। कुछ दिन बनारस के रामनगर में गंगा के बीच, माघ में प्रयाग, फागुन में मथुरा के मठ के अलावा वे कुछ समय हिमालय में एकांतवास भी करते थे।

खुद कभी कुछ नहीं खाया, लेकिन भक्तनगण जो कुछ भी लेकर पहुंचे, उसे भक्तों पर ही बरसा दिया। उनका बताशा-मखाना हासिल करने के लिए सैकड़ों लोगों की भीड़ हर जगह जुटती थी। और फिर अचानक ११ जून १९९० को उन्होंने दर्शन देना बंद कर दिया।

लगा जैसे कुछ अनहोनी होने वाली है। मौसम तक का मिजाज बदल गया। यमुना की लहरें तक बेचैन होने लगीं। मचान पर बाबा त्रिबंध सिद्धासन पर बैठे ही रहे। डॉक्टरों की टीम ने थर्मामीटर पर देखा कि पारा अंतिम सीमा को तोड़ निकलने पर आमादा है। १९ तारीख को मंगलवार के दिन योगिनी एकादशी थी।

आकाश में काले बादल छा गये, तेज आंधियां तूफान ले आयीं। यमुना जैसे समुंदर को मात करने पर उतावली थी। लहरों का उछाल बाबा की मचान तक पहुंचने लगा। और इन्हीं सबके बीच शाम चार बजे बाबा का शरीर स्पंदनरहित हो गया। भक्तों की अपार भीड़ भी प्रकृति के साथ हाहाकार करने लगी।।।।

Wednesday, 23 June 2021

A wonderful conversation from the Gospel of Sri Ramakrishna

A wonderful conversation from the Gospel of Sri Ramakrishna. Hope you will enjoy it, even though a bit lengthy.

SRI RAMAKRISHNA(To Pratap): "You have been to England. Tell us what you saw there."  

PRATAP: "The English people worship what you call 'gold'. Of course, there are also some good people in England, those who live an unattached life. But generally one finds there a great display of rajas in everything. I saw the same thing in America."

Secret of work
SRI RAMAKRISHNA (to Pratap): "It is not in England alone that one sees attachment to worldly things. You see it everywhere. But remember that work is only the first step in spiritual life. God cannot be realized without sattva-love, discrimination, kindness, and so on. It is the very nature of rajas to involve a man in many worldly activities. That is why rajas degenerates into tamas. If a man is entangled in too many activities he surely forgets God. He becomes more and more attached to 'woman and gold'.

"But it is not possible for you to give up work altogether. Your very nature will lead you to it whether you like it or not. Therefore the scriptures ask you to work in a detached spirit, that is to say, not to crave the work's results. For example, you may perform devotions and worship, and practise austerities, but your aim is not to earn people's recognition or to increase your merit.

"To work in such a spirit of detachment is known as karmayoga. But it is very difficult. We are living in the Kaliyuga, when one easily becomes attached to one's actions. You may think you are working in a detached spirit, but attachment creeps into the mind from nobody knows where. You may worship in the temple or arrange a grand religious festival or feed many poor and starving people. You may think you have done all this without hankering after the results. But unknown to yourself the desire for name and fame has somehow crept into your mind. Complete detachment from the results of action is possible only for one who has seen God."

The path of bhakti for this age
A DEVOTEE: "Then what is the way for those who have not seen God? Must they give up all the duties of the world?"

SRI RAMAKRISHNA: "The best path for this age is bhaktiyoga, the path of bhakti prescribed by Nārada: to sing the name and glories of God and pray to Him with a longing heart, 'O God, give me knowledge, give me devotion, and reveal Thyself to me!' The path of karma is extremely difficult. Therefore one should pray: 'O God, make my duties fewer and fewer; and may I, through Thy grace, do the few duties that Thou givest me without any attachment to their results! May I have no desire to be involved in many activities!'

"It is not possible to give up work altogether. Even to think or to meditate is a kind of work.

As you develop love for God, your worldly activities become fewer and fewer of themselves. And you lose all interest in them. Can one who has tasted a drink made of sugar candy enjoy a drink made of ordinary molasses?"

First God and then worldly duties
A DEVOTEE: "The English people always exhort us to be active. Isn't action the aim of life then?"

 

SRI RAMAKRISHNA: "The aim of life is the attainment of God. Work is only a preliminary step; it can never be the end. Even unselfish work is only a means; it is not the end.

"Sambhu Mallick once said to me, 'Please bless me, sir, that I may spend all my money for good purposes, such as building hospitals and dispensaries; making roads, and digging wells.' I said to him: 'It will be good if you can do these things in a spirit of detachment. But that is very difficult. Whatever you may do, you must always remember that the aim of this life of yours is the attainment of God and not the building of hospitals and dispensaries. Suppose God appeared before you and said to you, "Accept a boon from Me." Would you then ask Him, "O God, build me some hospitals and dispensaries"? Or would you not rather pray to Him: "O God, may I have pure love at Your Lotus Feet! May I have Your uninterrupted vision!"? Hospitals, dispensaries, and all such things are unreal. God alone is real and all else unreal. Furthermore, after realizing God one feels that He alone is the Doer and we are but His instruments. Then why should we forget Him and destroy ourselves by being involved in too many activities? After realizing Him, one may, through His grace, become His instrument in building many hospitals and dispensaries.'

"Therefore I say again that work is only the first step. It can never be the goal of life. Devote yourself to spiritual practice and go forward. Through practice you will advance more and more in the path of God. At last you will come to know that God alone is real and all else is illusory, and that the goal of life is the attainment of God."

— THE GOSPEL OF SRI RAMAKRISHNA, 15 JUNE 1884

Sunday, 20 June 2021

Two birds are sitting on the same tree

Two birds are sitting on the same tree, one on the top, the other below, both of most beautiful plumage. The one eats the fruits, while the other remains, calm and majestic, concentrated in its own glory. The lower bird is eating fruits, good and evil, going after sense-enjoyments; and when it eats occasionally a bitter fruit, it gets higher and looks up and sees the other bird sitting there calm and majestic, neither caring for good fruit nor for bad, sufficient unto itself, seeking no enjoyment beyond itself. It itself is enjoyment; what to seek beyond itself? The lower bird looks at the upper bird and wants to get near. It goes a little higher; but its old impressions are upon it, and still it goes about eating the same fruit. Again an exceptionally bitter fruit comes; it gets a shock, looks up. There the same calm and majestic one! It comes near but again is dragged down by past actions, and continues to eat the sweet and bitter fruits. Again the exceptionally bitter fruit comes, the bird looks up, gets nearer; and as it begins to get nearer and nearer, the light from the plumage of the other bird is reflected upon it. Its own plumage is melting away, and when it has come sufficiently near, the whole vision changes. The lower bird never existed, it was always the upper bird, and what it took for the lower bird was only a little bit of a reflection.

Such is the nature of the soul. This human soul goes after sense-enjoyments, vanities of the world; like animals it lives only in the senses, lives only in momentary titillations of the nerves. When there comes a blow, for a moment the head reels, and everything begins to vanish, and it finds that the world was not what it thought it to be, that life was not so smooth. It looks upward and sees the infinite Lord a moment, catches a glimpse of the majestic One, comes a little nearer, but is dragged away by its past actions. Another blow comes, and sends it back again. It catches another glimpse of the infinite Presence, comes nearer, and as it approaches nearer and nearer, it begins to find out that its individuality — its low, vulgar, intensely selfish individuality — is melting away; the desire to sacrifice the whole world to make that little thing happy is melting away; and as it gets gradually nearer and nearer, nature begins to melt away. When it has come sufficiently near, the whole vision changes, and it finds that it was the other bird, that this infinity which it had viewed as from a distance was its own Self, this wonderful glimpse that it had got of the glory and majesty was its own Self, and it indeed was that reality. The soul then finds That which is true in everything. That which is in every atom, everywhere present, the essence of all things, the God of this universe — know that thou art He, know that thou art free.

Wednesday, 16 June 2021

! वृन्दावन के चींटें !


! वृन्दावन के चींटें !

एक सच्ची घटना सुनिए, एक संत की
वे एक बार वृन्दावन गए, वहाँ कुछ दिन घूमे फिरे दर्शन किए !
जब वापस लौटने का मन किया तो, सोचा भगवान् को भोग लगा कर कुछ प्रसाद लेता चलूँ..
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संत ने रामदाने के कुछ लड्डू ख़रीदे मंदिर गए.. प्रसाद चढ़ाया और आश्रम में आकर सो गए.. सुबह ट्रेन पकड़नी थी
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अगले दिन ट्रेन से चले.. सुबह वृन्दावन से चली ट्रेन को मुगलसराय स्टेशन तक आने में शाम हो गयी..
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संत ने सोचा.. अभी पटना तक जाने में तीन चार घंटे और लगेंगे.. भूख लग रही है.. मुगलसराय में ट्रेन आधे घंटे रूकती है.. 
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चलो हाथ पैर धोकर संध्या वंदन करके कुछ पा लिया जाय..!
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संत ने हाथ पैर धोया और लड्डू खाने के लिए डिब्बा खोला..!
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उन्होंने देखा लड्डू में चींटे लगे हुए थे.. उन्होंने चींटों को हटाकर एक दो लड्डू खा लिए..!
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बाकी बचे लड्डू प्रसाद बाँट दूंगा ये सोच कर छोड़ दिए.!
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पर कहते हैं न, संत ह्रदय नवनीत समाना !
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बेचारे को लड्डुओं से अधिक उन चींटों की चिंता सताने लगी..!
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सोचने लगे.. ये चींटें वृन्दावन से इस मिठाई के डिब्बे में आए हैं..!
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बेचारे इतनी दूर तक ट्रेन में मुगलसराय तक आ गए.!
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कितने भाग्यशाली थे.. इनका जन्म वृन्दावन में हुआ था, 
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अब इतनी दूर से पता नहीं कितने दिन या कितने जन्म लग जाएँगे, इनको वापस पहुंचने में..!
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पता नहीं ब्रज की धूल इनको फिर कभी मिल भी पाएगी या नहीं..!!
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मैंने कितना बड़ा पाप कर दिया.. इनका वृन्दावन छुड़वा दिया
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नहीं मुझे वापस जाना होगा..
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और संत ने उन चींटों को वापस उसी मिठाई के डिब्बे में सावधानी से रखा.. और वृन्दावन की ट्रेन पकड़ ली।
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उसी मिठाई की दूकान के पास गए डिब्बा धरती पर रखा.. और हाथ जोड़ लिए.!
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मेरे भाग्य में नहीं कि, तेरे ब्रज में रह सकूँ तो, मुझे कोई अधिकार भी नहीं कि, जिसके भाग्य में ब्रज की धूल लिखी है, उसे दूर कर सकूँ.!
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दूकानदार ने देखा तो आया..!
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महाराज चीटें लग गए तो, कोई बात नहीं आप दूसरी मिठाई तौलवा लो..!
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संत ने कहा.. भईया मिठाई में कोई कमी नहीं थी..!
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इन हाथों से पाप होते होते रह गया उसी का प्रायश्चित कर रहा हूँ..!
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दुकानदार ने जब सारी बात जानी तो, उस संत के पैरों के पास बैठ गया.. भावुक हो गया..!
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इधर दुकानदार रो रहा था... उधर संत की आँखें गीली हो रही थीं  !!
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बात भाव की है.. बात उस निर्मल मन की है.. बात ब्रज की है.. बात मेरे वृन्दावन की है..!
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बात मेरे नटवर नागर और उनकी राधारानी की है.. बात मेरे कृष्ण की राजधानी की है।

बूझो तो बहुत कुछ है.. नहीं तो बस पागलपन है..!
 बस एक कहानी !

          घर से जब भी बाहर जाये
 तो घर में विराजमान अपने प्रभु से जरूर   
                 मिलकर जाएं
                       और
 जब लौट कर आए तो उनसे जरूर मिले
                    क्योंकि
 उनको भी आपके घर लौटने का इंतजार     
                    रहता है.!
"घर" में यह नियम बनाइए की जब भी आप घर से बाहर निकले तो घर में मंदिर के पास दो घड़ी खड़े रह कर कहें !
               "प्रभु चलिए..
        आपको साथ में रहना हैं"..!
     ऐसा बोल कर ही घर से निकले 
            क्यूँकिआप भले ही
"लाखों की घड़ी" हाथ में क्यूँ ना पहने हो        
                      पर
  * "समय" तो "प्रभु के ही हाथ" में हैं न
                 🙏🏻🙏🏻  -साभार

Tuesday, 15 June 2021

गोस्वामी तुलसीदास और पुरी जगन्नाथ जी

एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज‌ को किसी संत ने बताया  की पुरी जगन्नाथ जी में तो साक्षात भगवान ही दर्शन देते हैं। बस फिर क्या था सुनकर तुलसीदास जी महाराज तो बहुत ही प्रसन्न हुए और अपने इष्टदेव का दर्शन करने श्री जगन्नाथ पुरी को चल दिए। महीनों की कठिन और थका देने वाली यात्रा के उपरांत जब जगन्नाथ पुरी पहुंचे तो मंदिर में भक्तों की भीड़ देखकर प्रसन्नमन से अंदर प्रविष्ट हुए। जगन्नाथ जी का दर्शन करते ही उन्हें बड़ा धक्का सा लगा, वे बडे निराश हो गये और विचार किया कि यह हस्तपादविहीन देव, जगत के सबसे सुंदर और नेत्रों को सुख देने वाले मेरे इष्ट श्री राम नहीं हो सकते।

इस प्रकार दुखी मन से बाहर निकल कर दूर एक वृक्ष के तले बैठ गये। सोचा कि इतनी दूर आना व्यर्थ हुआ। क्या गोलाकार नेत्रों वाला हस्तपादविहीन दारुदेव मेरा राम हो सकता है ? कदापि नहीं। रात्रि हो गयी, थके-माँदे, भूखे-प्यासे तुलसी का अंग टूट रहा था। अचानक एक आहट हुई, वे ध्यान से सुनने लगे।

बालक - अरे बाबा !
तुलसीदास जी - कौन है ?

एक बालक हाथों में थाली लिए पुकार रहा था। तुलसीदास जी ने सोचा साथ आए लोगों में से शायद किसी ने पुजारियों को बता दिया होगा कि तुलसीदास जी भी दर्शन करने को आए हैं इसलिये उन्होने प्रसाद भेज दिया होगा। उठते हुए बोले -

हाँ भाई ! मैं ही हूँ तुलसीदास।
बालक ने कहा, 'अरे ! आप यहाँ है ? मैं बड़ी देर से आपको खोज रहा हूँ। लीजिए, जगन्नाथ जी ने आपके लिए प्रसाद भेजा है।'
तुलसीदास जी बोले - भैया कृपा करके इसे वापस ले जाये।
बालक ने कहा, - आश्चर्य की बात है, 'जगन्नाथ का भात-जगत पसारे हाथ' और वह भी स्वयं महाप्रभु ने भेजा और आप अस्वीकार कर रहे हैं। कारण ?
तुलसीदास जी बोले, - 'अरे भाई ! मैं बिना अपने इष्ट को भोग लगाये कुछ ग्रहण नहीं करता, फिर यह जगन्नाथ का जूठा प्रसाद जिसे मैं अपने इष्ट को समर्पित न कर सकूँ, यह मेरे किस काम का ?'
बालक ने मुस्कराते हुए कहा अरे, - बाबा ! आपके इष्ट ने ही तो भेजा है।
तुलसीदास जी बोले - यह हस्तपादविहीन दारुमूर्ति मेरा इष्ट नहीं हो सकता।
बालक ने कहा - फिर आपने अपने "श्रीरामचरितमानस" में यह किस रूप का वर्णन किया है -

*"बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना।*
*कर बिनु कर्म करइ बिधि नाना।।*
*आनन रहित सकल रस भोगी।*
*बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।"*

अब तुलसीदास जी की भाव-भंगिमा देखने लायक थी। नेत्रों में अश्रु-बिन्दु, मुख से शब्द नहीं निकल रहे थे।

थाल रखकर बालक यह कहकर अदृश्य हो गया कि "मैं ही तुम्हारा राम हूँ। मेरे मंदिर के चारों द्वारों पर हनुमान का पहरा है, विभीषण नित्य मेरे दर्शन को आता है। कल प्रातः तुम भी आकर दर्शन कर लेना।"

तुलसीदास जी की स्थिति ऐसी की रोमावली रोमांचित थी नेत्रों से अश्रुधार अविरल बह रही थी और शरीर की कोई सुध ही नहीं उन्होंने बड़े ही प्रेम से प्रसाद ग्रहण किया।

प्रातः मंदिर में जब तुलसीदास जी महाराज दर्शन करने के लिए गए तब उन्हें जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के स्थान पर श्री राम, लक्ष्मण एवं माता जानकी के भव्य दर्शन हुए। भगवान ने भक्त की इच्छा पूरी की।

जिस स्थान पर तुलसीदास जी ने रात्रि व्यतीत की थी, वह स्थान 'तुलसी चौरा' नाम से विख्यात हुआ। वहाँ पर तुलसीदास जी की पीठ 'बड़छता मठ' के रूप में प्रतिष्ठित है।
जय श्री कृष्ण
जय श्री राम

Friday, 11 June 2021

🌿 ग्वारिया बाबा

🌿 ग्वारिया बाबा 
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एक थे ग्वारिया बाबा। वृन्दावन में ही रहते थे। बिहारी जी को अपना यार कहते थे। सिर्फ कहते नहीं, मानते भी थे। 
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नियम था बिहारी जी को नित्य सायं शयन करवाने जाते थे। 
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एक बार शयन आरती करवाने जा रहे थे। बिहारी जी की गली में बढ़िया मोदक बन रहे थे। 
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अच्छी खुशबू आ रही थी। चार मोदक मांग लिए बिहारी जी के लिए ! 
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वृन्दावन के लोग बिहारी जी के भक्तों का बड़ा आदर करते है। उन्होंने मना नहीं किया। एक डोने में बांध दिये साथ में। 
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बाबा भीतर गए तो बिहारी जी के भोग के पट आ चुके थे। 
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ग्वारिया बाबा जी ने वही बैठकर अपना कम्बल बिछाया और उस पर बैठकर अपने मन के भाव में खो गए। 
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वहाँ बिहारी जी की आरती का समय हुआ तो श्री गौसाई जी बड़ा प्रयास कर रहे हैं लेकिन ठाकुर जी के मंदिर का पट नहीं खुल रहा। 
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बड़े हैरान इधर उधर देख रहें। एक संत कोने में बैठे सब दृश्य आरंभ से देख रहें थे। 
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पुजारी जी ने लाचारी से देखा तो संत बोले उधर ग्वारिया बाबा बैठे हैं उनसे पूछो वो बता देंगे। 
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गौसाईं जी ने बाबा से कहा, रे बाबा तेरे यार तो दरवाजा ही न खोल रहियो ? बाबा हड़बड़ा कर उठे। 
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रोम रोम पुलकित हो रहा था बाबा का। 
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बाबा ने कहा जय जय ! अब जाओ ! और बाबा ने पुजारी से कहा अब खोलो। 
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पुजारी जी ने जब दरवाजा खोलने का प्रयास किया। हल्का सा छूते ही दरवाजा खुल गया। 
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पुजारी जी ने आरती की और बिहारी जी को शयन करवा दिया। 
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लेकिन आज पुजारी जी के मन में यह बात लगी है की आज मैं प्रयास करके हार गयो लेकिन दरवाजा नहीं खुला। लेकिन बाबा ने कहा और दरवाजा खुल गया। 
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पुजारी जी ग्वारिया बाबा के पास गए और कहा, बाबा आज तुझे तेरे यार की सौगंध है। साँची साँची कह दें, आज तेरे यार ने क्या खेल खेलो। 
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ग्वारिया बाबा हंस दिए। कहते जय जय ! जब आप भोग के लिए दरवाजा खोल रहे थे। तब बिहारी जी मेरे पास मोदक खा रहे थे। 
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अभी मैंने उनका मुँह भी नहीं धुलाया था की आपने आवाज दे दी। उनका मुँह साफ कर देना। 
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जाईये उनका मुख तो धुला दीजिये उनके मुख पर झूठन लगी है। 
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गौसाईं जी ने स्नान किया मंदिर में गए तो देखा की ठाकुर जी के मुख पर तो मोदक का झूठन लगी थी। 
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सच में रहस्य रस है ठाकुर जी की सेवा में ! अधिकार रखिये श्री ठाकुर जी पर। 
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सर्वस्व न्यौछावर करके उनकी सेवा में सुख मिलता है। अनहोनी होती है फिर सेवा की कृपा से। 
इसे सिर्फ श्री कृष्ण भक्त ही समझ सकते हैं। दूसरों को ऐसी बातें समझ नहीं आती। 
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कृष्ण भक्त तो ठाकुर जी की हरेक कथा को अपने मन की आँखों से साक्षात् देख लेते है। उसी में आनंद लेते है। फिर दुनिया की भी परवाह नहीं करते।  
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ठाकुर जी की तरफ जो सच्चे मन से बढ़ता है फिर ठाकुर जी भी उसके जीवन में ऐसा खेल खेलते है कि जिसे वो अपना समझता है और जिन्दगी भर अपना समझना चाहता है और सच में जो सच्चे मन से ठाकुर जी की शरण आ गयो उसे फिर संसार की चिंता नहीं रहती। उसकी चिंता फिर ठाकुर जी स्वयं करते है |

🙏🏻श्री कुंज बिहारी श्री हरिदास 🙏🏻

हनुमान - रामजी

हनुमान जी जब पर्वत लेकर लौटते है तो भगवान से कहते है.

प्रभु आपने मुझे संजीवनी बूटी लेने नहीं भेजा था.

आपने तो मुझे मेरी मूर्छा दूर करने के लिए भेजा था.

 "सुमिरि पवनसुत पावन नामू। 
  अपने बस करि राखे रामू"

हनुमान्‌जी ने पवित्र नाम का स्मरण करके श्री रामजी को अपने वश में कर रखा है,

प्रभु आज मेरा ये भ्रम टूट गया कि मै ही सबसे बड़ा भक्त,राम नाम का जप करने वाला हूँ.

भगवान बोले कैसे ? 

हनुमान जी बोले - वास्तव में तो भरत जी संत है और उन्होंने ही राम नाम जपा है.   

आपको पता है जब लक्ष्मण जी को शक्ति लगी तो मै संजीवनी लेने गया पर जब मुझे भरत जी ने बाण मारा और मै गिरा,  तो  भरत जी ने, न तो संजीवनी मंगाई, न वैध बुलाया. कितना भरोसा है उन्हें आपके नाम पर, आपको पता है उन्होंने क्या किया.

"जौ मोरे मन बच अरू काया,
प्रीति राम पद कमल अमाया"

तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला,
जौ मो पर रघुपति अनुकूला 

सुनत बचन उठि बैठ कपीसा,
कहि जय जयति कोसलाधीसा"

यदि मन वचन और शरीर से श्री राम जी के चरण कमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो तो यदि रघुनाथ जी मुझ पर प्रसन्न हो तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रहित हो जाए. 

यह वचन सुनते हुई मै श्री राम, जय राम, जय-जय राम कहता हुआ उठ बैठा. मै नाम तो लेता हूँ पर भरोसा भरत जी जैसा नहीं किया, वरना मै संजीवनी लेने क्यों जाता,

बस ऐसा ही हम करते है हम नाम तो भगवान का लेते है पर भरोसा नही करते, 

बुढ़ापे में बेटा ही सेवा करेगा,  बेटे ने नहीं की तो क्या होगा?

उस समय हम भूल जाते है कि जिस       भगवान का नाम हम जप रहे है वे है न, पर हम भरोसा नहीं करते. 

बेटा सेवा करे न करे पर भरोसा हम उसी पर करते है.

2. - दूसरी बात प्रभु! 
बाण लगते ही मै गिरा, पर्वत नहीं गिरा, क्योकि पर्वत तो आप उठाये हुए थे और मै अभिमान कर रहा था कि मै उठाये हुए हूँ.  
मेरा दूसरा अभिमान टूट गया, 

इसी तरह हम भी यही सोच लेते है कि  गृहस्थी के बोझ को मै उठाये हुए हूँ,

3. - फिर हनुमान जी कहते है -

और एक बात प्रभु ! आपके तरकस में भी ऐसा बाण नहीं है जैसे बाण भरत जी के पास है. 

आपने सुबाहु मारीच को बाण से बहुत दूर गिरा दिया, आपका बाण तो आपसे दूर गिरा देता है, पर भरत जी का बाण तो आपके चरणों में ला देता है. मुझे बाण पर बैठाकर आपके पास भेज दिया.

भगवान बोले - हनुमान जब मैंने ताडका को मारा और भी राक्षसों को मारा तो वे सब मरकर मुक्त होकर मेरे ही पास तो आये, 

इस पर हनुमान जी बोले प्रभु आपका बाण तो मारने के बाद सबको आपके पास लाता है पर भरत जी का बाण तो जिन्दा ही भगवान के पास ले आता है. 

भरत जी संत है और संत का बाण क्या है?  

संत का बाण है उसकी वाणी 

लेकिन हम करते क्या है,  

हम संत वाणी को समझते तो है पर  सटकते नहीं है, और औषधि सटकने पर ही फायदा करती है.

4. - हनुमान जी को भरत जी ने पर्वत सहित अपने बाण पर बैठाया तो उस समय हनुमान जी को थोडा अभिमान हो गया कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा ? 

परन्तु जब उन्होंने रामचंद्र जी के प्रभाव पर विचार किया तो वे भरत जी के चरणों की वंदना करके चले है.

इसी तरह हम भी कभी-कभी संतो पर संदेह करते है, 

कि ये हमें कैसे भगवान तक पहुँचा देगे, संत ही तो है जो हमें सोते से जागते है जैसे हनुमान जी को जगाया, 

क्योकि उनका मन,वचन,कर्म सब भगवान में लगा है. 

अरे उन पर भरोसा तो करो तुम्हे तुम्हारे बोझ सहित भगवान के चरणों तक पहुँचा देगे. 

जय जय श्री राम 

🙏🙏🙏🙏🙏

Tuesday, 18 May 2021

🌹सम्बुद्ध चारिका 🌹 Five Dreams स्वप्न पूरे हुए

🌹सम्बुद्ध चारिका 🌹
 Five Dreams स्वप्न पूरे हुए

आचार्य आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास सातवां और आठवां ध्यान सीखकर भी जब बुद्धत्त्व प्राप्त नहीं हुआ तो बोधिसत्व सिद्धार्थ ने देहदंडन की दुष्कर साधना आजमाकर देखी। छह वर्षों के घोर कायाकष्ट की इस क्लिष्ट साधना द्वारा शरीर को इतना कृश बना लिया कि वह हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया। दुर्बल इतना कि खड़ा होते ही गिर पड़े और मूर्छित हो जाय। लोगों को लगे कि श्रमण गौतम मरणासन्न है। अथवा यह भ्रम हो कि वह मृत्यु को प्राप्त हो गया है। इस निम्न कोटि की कायक्लेशमयी कठोर तपस्या करके देख लिया कि यह अतियों का मार्ग है। अत: निरर्थक है, निष्फलदायी है। इससे बुद्धत्व प्राप्त होने की कोई आशा नहीं।

यह महाशाक्य संवत् का 103 रा वर्ष था। चैत्र मास समाप्त हो रहा था। तभी बोधिसत्व ने निर्णय किया कि कोई अन्य प्रयोग कर देखना उचित होगा। कौन सा प्रयोग करे? इसका चिंतन करने पर बचपन की एक घटना याद आयी। हल जोतने का वार्षिक मेला था। गांव-नगर के सभी लोग एकत्र हुए थे। परम्परागत मान्यता के अनुसार शासक महाराज शुद्धोदन ने बड़ी धूमधाम के साथ खेत की भूमि पर पहला हल चलाया। बालक सिद्धार्थ को पास ही एक जामुन के पेड़ की छांह में सुलाकर राजसी परिचारिकाएं लोकोत्सव का धूम-धड़ाका देखने खेत के किनारे जा बैठीं। कुछ समय बाद जब राजकुमार जागा तो किसी को पास न देखकर जामुन के पेड़ की छाया में पालथी मारकर बैठ गया और शीघ्र ही प्रथम ध्यान की समापत्ति में समाहित हो गया। अब बोधिसत्व ने बचपन की उस अनुभूति पर ध्यान दिया तो याद आया कि उस समय उसने अपनी सहज स्वाभाविक आश्वास-प्रश्वास की जानकारी बनाए रखने का प्रयास किया था। इसी से उसे सहज समाधि लगी थी। क्यों न इसी विधि को फिर आजमाकर देखे। इस विधि का उसने अनेक पूर्व जन्मों में भी कुछ-कुछ अभ्यास किया होगा। तो ही उस बचपन की अवस्था में बिना किसी मार्गदर्शक के यह अनायास जाग उठी थी।

बोधिसत्व ने सोचा आचार्य आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के यहां जो पहले से सातवें तक और सातवें से आठवें तक के ध्यान का अभ्यास किया, वह बाह्य आलंबनों पर अथवा यथाभूत अनुभूतियों से दूर महज कल्पनाओं पर आधारित था। जबकि यह आश्वास-प्रश्वास वाली आनापान की साधना अपने बारे में नैसर्गिक रूप से जो सच्चाई प्रगट हो रही है, उसी को तटस्थभाव से देखने की सहज सरल विधि है। इसमें न कोई कल्पना है और न ही स्व से असम्बंधित किसी दूर दराज के आलंबन का आधार। अत: इसी का प्रयोग करके देखा जाय। अपने ही स्वाभाविक सांस को देखते-देखते सरलता से अपने भीतर प्रवेश किया जा सकेगा और काया के भीतर की सच्चाई को देख सकने याने अनुभव कर सकने की क्षमता सहज प्राप्त हो सकेगी। ऐसी विधि जिससे अपने शरीर की सीमा के भीतर ही ध्यान रहे और बाहर के आलंबनों को छोड़कर अपने ही चित्त और शरीर के याने नाम-रूप के प्रपंच को देखा जा सके। यों इस संपूर्ण अनित्यधर्मा क्षेत्र का निरीक्षण करके उसके परे के नित्यधर्मा परम सत्य का दर्शन किया जा सकेगा। तभी बोधि प्राप्त होगी।

अनेक जन्मों की पारमिताएं अब परिपूर्ण हो जाने के कारण समय पका और बोधिसत्व का चिंतन यों सही दिशा की ओर मुड़ा। यह धर्मनियामता याने धर्म के सनातन नियमों का ही प्रभाव था, जिसने बोधिसत्व का ध्यान आनापान सति की ओर खैचा जो कि अंतर्मुखी, सत्यमुखी, मुक्तिदायिनी विपश्यना साधना का प्रथम चरण है।
परम सत्य की लोकोत्तर अवस्था तक न पहुँचा सकने वाले आठों लोकीय ध्यान और कठोर कायक्लेश, इन दोनों के स्वानुभूतिजन्य पूर्व प्रयोग इनकी खामियां समझने के लिए आवश्यक थे। इन दोनों के प्रयोगों की असफलता ने ही सही दिशा में चिंतन करने को प्रेरित किया कि अपने चित्त और शरीर पर क्षण-प्रतिक्षण प्रकट होनेवाली सच्चाई का आधार लेकर पहले सांस से काम आरंभ किया जाय। तदनन्तर भीतर की स्वानुभूत नश्वर सच्चाइयों का यथाभूत ज्ञानदर्शन और उनके प्रति विरक्ति उत्पन्न करानेवाली विपश्यना का अभ्यास किया जाय, जिससे कि इंद्रियातीत परमसत्य प्रकट हो जाय।

परन्तु फिर देखा कि इस साधना के लिए शरीर का स्वस्थ सबल होना अनिवार्य है और इसके लिए अतियों का मार्ग त्यागकर उपयुक्त आहार आवश्यक है। अतः दूर फेंके हुए मिट्टी के भिक्षापात्र को उठाया और भिक्षाटन के लिए समीप के सेनानी ग्राम में दुर्बल कदमों से धीरे-धीरे चल पड़ा।
लगभग छह वर्ष पूर्व जब कठोर दुष्करचर्या आरंभ की थी तभी बोधिसत्व की खोज में निकले हुए राजनगरी कपिलवस्तु के पांच गृहत्यागी ब्राह्मणपुत्र उससे यहीं आ मिले थे और इस तपश्चर्या में उसकी सेवा-सुश्रुषा कर रहे थे। उन्होंने जब देखा कि बोधिसत्व ने देह-दंडन का मार्ग त्याग दिया है और भिक्षा ग्रहण करने चला गया है तो उसके प्रति निराश होकर, उसे छोड़ वाराणसी के समीप ऋषिपत्तन मृगदाय वन की ओर चले गए।

अच्छा ही हुआ। यहां भी धर्मनियामता ने याने धर्म की धर्मता ने बोधिसत्व की मदद की। जिस साधना का अब उसे प्रयोग करना था, उसके लिए एकांत नितांत अनिवार्य था। आनापान और विपश्यना के अन्तर्तप के लिए बोधिसत्व को 15 दिनों की एकांत साधना की आवश्यक सुविधा मिली जो कि बुद्धत्व प्राप्ति के लिए सहायक सिद्ध हुई।

दो एक दिन शरीर को सबल स्वस्थ बनाने में लगे और फिर इस नए प्रयोग की निरंतरता में जुट गया। वैशाख शुक्ल प्रतिपदा से लेकर चतुर्दशी तक का यह महत्त्वपूर्ण समय आज पूरा हुआ।
निरंजना नदी के किनारे एक बरगद की छांह में बोधिसत्व ध्यान में लीन था। चौदहवीं का चांद सारी रात अपनी चांदनी की शुभ्र, शुक्ल, शीतल किरणों से आकाश और धरती को अभिसिंचित करता रहा। ध्यान के लिए अत्यंत उपयुक्त वातावरण बना। बरगद के नीचे बैठे हुए बोधिसत्व ने इसका भरपूर प्रयोग किया। आनापान की साधना द्वारा अपनी सम्यक् समाधि पुष्ट की।

रात बीतने का समय समीप आ रहा था। भोर होने में अभी जरा देर थी। सूर्योदय नहीं हुआ था और न ही ऊषा काआगमन । इस शांत नीरव ब्राह्म मुहूर्त में बोधिसत्व ने शरीर को जरा आराम देना चाहा । वह वट वृक्ष के नीचे लेट गया और कुछ ही देर में झपकी लग गयी। निद्रित अवस्था में एक के बाद एक ,पांच स्वप्न प्रकट हुए जो कि भविष्य की ओर इंगित करनेवाले पूर्वाभास थे। स्वप्न समाप्त होते ही बोधिसत्व जाग उठा और उनके अर्थों पर विचार करने लगा।

[1] पहला स्वप्न : बोधिसत्व ने अपना विशाल विराट रूप देखा। देखा कि वह भारत की सम्पूर्ण पावन धरती पर लेटा हुआ है, जो कि उसके लिए बिछावन बन गयी है। हिमालय का उत्तुंग शिखर उसका तकिया बना हुआ है। उसके पांव दक्षिण भारत [कन्याकुमारी] तक फैल गए हैं और दक्षिणी हिन्द महासागर पर टिके हैं, जो कि उसका पाद-प्रक्षालन कर रहा है। दाहिना हाथ पश्चिमी समुद्र [अरबसागर] पर पड़ा है और बांया पूर्वी समुद्र [बंगाल सागर] पर, जो कि उसकी हथेलियों और अंगुलियों का प्रक्षालन कर रहे हैं। [अखण्ड भारत वर्ष का ऐसा संश्लिष्ट भौगोलिक चित्र इससे पूर्व कहीं देखने में नहीं आया।]

इस स्वप्न से यह बात स्पष्ट हुई कि अनगिनत कल्पों पहले भगवान दीपंकर सम्यक् सम्बुद्ध ने तापस सुमेध के लिए जो आशिर्वादमयी भविष्यवाणी की थी, उसके फलीभूत होने का समय आ गया है। धुवं बुद्ध भविस्ससि ।
यह उस भावी बुद्ध का विराट दर्शन था, जो कि साधारण मानवों की तुलना में असाधारणतया महान होगा। उसके महान प्रभावशाली व्यक्तित्व और जन-कल्याणी शिक्षा का प्रभाव सारे भारतवर्ष पर पड़ेगा और फिर दक्षिण, पूर्व और पश्चिमी समुद्रों द्वारा तथा उत्तरी हिमालय के रास्ते सारे विश्व में फैलेगा। 

[नोट – गंभीर विपश्यी साधक इस बात को खूब समझता है कि शरीर के पांचों अंतिम छोर - दो हाथ, दो पांव और सिर इनमें से प्रतिक्षण अनित्य-बोध की ऊर्जामयी धर्मतरंगें प्रवाहित होती रहती हैं। जो सम्यक् सम्बुद्ध हो जाय उसका तो कहना ही क्या?]

[2] दूसरा स्वप्न : बोधिसत्व ने देखा कि उसके लेटे हुए विराट शरीर की नाभि से एक नन्हा सा पौधा उगा है जो कि देखते-देखते शीघ्रगति से बढ़ता हुआ एक बालिश्त से एक हाथ, एक गज, एक बांस, एक योजन होता-होता हजारों योजन ऊंचा उठ गया और अनंत आकाश पर छा गया।
यह स्वप्न इस बात का द्योतक था कि भगवान बुद्ध की शिक्षा केवल धरती के मानवों के लिए ही नहीं होगी, बल्कि वह नभोमंडल के देव-ब्रह्माओं तक भी पहुँचेगी और उनका कल्याण करेगी। बोधिसत्व बुद्ध बनकर सत्थादेव मनुस्सानं [देव और मनुष्यों के शास्ता] बनेंगे।

[3] तीसरा स्वप्न : बोधिसत्व ने देखा कि चारों ओर से नन्हें-नन्हें अनगिनित जीव उसके चरणों पर आ-आक र गिर रहे हैं। वह सफेद रंग के हैं और काले सिरवाले हैं। बहुत शीघ्र इनकी संख्या इतनी बढ़ी कि ये जीव चरणों से लेकर घुटनों तक छा गए। यह स्वप्न इस बात का पूर्व संकेत था कि काले केशवाले और श्वेत वस्त्रोंवाले अनेक गृहस्थ बुद्ध की चरण-शरण ग्रहण करेंगे और लाभान्वित होंगे। श्वेत वस्त्र और सिर के केश गृहस्थों के प्रतीक हैं। उनके वस्त्र भगवा नहीं, श्वेत है। उनका सिर मुंडित नहीं, केशों वाला है। याने वे गृहत्यागी नहीं, गृहस्थ हैं। गृहत्यागी भिक्षुओं और भिक्षुणियों के मुकाबले उनकी संख्या कई-कई गुणा अधिक होगी।

[4] चौथा स्वप्न : बोधिसत्व ने देखा कि चारों दिशाओं से चार वर्ण के पक्षी उड़ते हुए आए और उसकी गोद में आ गिरे। वे तत्काल अपना वर्ण त्यागकर शुभ्र श्वेत हो गए। इस स्वप्न का तात्पर्य था कि भगवान की सुखद गोद में क्षत्रिय ब्राह्मण वैश्य और शूद्र इन चारों वर्गों के लोग आयेंगे और भिक्षु जीवन ग्रहण कर परम विशुद्ध हो जायेंगे, अर्हत अवस्था प्राप्त कर लेंगे। ऐसी अवस्था में वे अपना वर्ण-भेद त्याग देंगें। सभी एक समान हो जायेंगे। जैसे गंगा आदि विभिन्न नदियों के जल समुद्र में समाकर अपनी-अपनी पृथकता गँवा देते हैं, सब एक जैसे समुद्री-जल हो जाते हैं, वैसे ही सभी वर्गों के लोग भिक्षु संघ में सम्मिलित होकर अपने पूर्व काल की पृथकता को खो देंगे। सभी शुद्ध सद्धर्म में समा जायेंगे।

[5] पांचवा स्वप्न : बोधिसत्व ने देखा कि गंदगी और मल का एक बड़ा सा टीला है, जिस पर वह चंक्रमण कर रहा है, चहलकदमी कर रहा है। पर उसे जरा सा भी मैल नहीं छू पाता। इस स्वप्न ने इस सच्चाई की ओर संकेत किया कि परम सत्य की खोज के लिए तो बोधिसत्व को निवृत्ति मार्ग अपनाकर मानव समाज से दूर वनप्रदेश में रहना पड़ा, पर सम्बोधि प्राप्त करने के बाद असीम करुणाभरे चित्त से लोक मंगल के लिए उसी मानव समाज में रहना आवश्यक होगा, जो गंदगी से भरा हुआ है। उसे मुक्ति का मार्ग सिखाना होगा। पूर्व पत्नी, पुत्र, माता, भाई आदि परिवार के अन्य लोग भी आ जुटेंगे। सम्यक् सम्बुद्ध सब पर करुणा बरसायेंगे। उनके लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करेंगे पर जीवन निरासक्त जीएंगे। ढेर सारे चीवर, दवा, भोजन, आवास, विहार दान में मिलेंगे, पर अपने लिए स्वीकार उतना ही करेंगे,जितना जीवन जीने के लिए आवश्यक होगा। गंदगी में उलझे समाज के बीच रहेंगे, पर सर्वथा निसंग, निस्पृह, निर्लिप्त और निरासक्त।

जिस समय इन स्वप्नों के अर्थों पर चिंतन चल रहा था, उस समय सेनानी ग्रामवाली सुजाता की दासी आयी और उन्हें देख गयी। उन्हें वटदेव समझकर उसने इसकी सूचना अपनी मालकिन को दी। चिंतन समाप्त होते-होते सुजाता खीरभरा पात्र लेकर आयी, जिसके 49 कौर खाकर बोधिसत्व ध्यान में लग गया। 
इस घटना के बाद 24 घंटे बीतते-बीतते, याने अगली रात की पूर्णिमा का चांद पश्चिम में ढलते-ढलते बोधिसत्व ने बोधिवृक्ष के तले सम्यक् सम्बोधि प्राप्त की। वे अनुत्तर सम्यक् सम्बुद्ध हुए और बोधिसत्व की अवस्था में देखे गए स्वप्न एक-एक करके सभी सत्य साबित हुए। बड़ा लोक मंगल हुआ। सचमुच बड़ा ही लोक मंगल हुआ। बड़ा लोक कल्याण हुआ, सचमुच बड़ा ही लोक कल्याण हुआ!
कल्याण मित्र
सत्य नारायण गोयन्का 

मई 1992 हिंदी विपश्यना पत्रिका में प्रकाशित

🌷 Five Dreams.🌷

Seeking Enlightenment.

1 ) The Journey to Magadha.

Prince Siddhattha crossed the river Anoma, took the robes of a recluse and proceeded towards Magadha. 

He was new to the life of a monk. 

Close to Anupriyā village, there was a mango orchard. Staying there for a week, he experienced for the first time the happiness of monkhood. 

To learn meditation, he decided to go to the teacher named Alara Kalama (Ālāra Kālāma).

2 ) From Anupriyā village, he went straight to Rajgir (Rajagaha, the capital of Magadha kingdom). 

On the main street of the city, he started walking from house to house for alms. The people were impressed by his radiant face and long-limbed (ājānubāhu) body. 

They had never seen such an attractive monk. Whoever saw him kept gazing at him.

The king of Magadha also couldn’t contain himself when he saw the monk on his alms round from his balcony. He felt that this monk was not an ordinary person. So he asked his men to follow the monk. 

They saw that as soon as the monk received enough alms-food, he went to the Pandu cave on the outskirts of the city, sat on a stone and started eating.

Prince Siddhattha had never seen, let alone eaten, such dry and tasteless food as he received on his first alms round. He ate the food with fortitude. 

The king’s men told King Bimbisara what they had seen. The king decided to go and meet the young recluse. 

By then the monk had finished his meal. The king saluted the recluse and asked him, ‘You seem to be a youth from the noble class. Who are you?’

The young recluse said that he was the son of the king from a republic in Kosala from the Himalayan Tarai region. He belonged to the Sun Dynasty and was Sakyan by birth.

King Bimbisara at once understood that the recluse was the son of the Sakyan king, Suddhodana, from the Kosala Empire. The king thought that he might have become a recluse due to a quarrel with his family. He offered the recluse a part of his kingdom. The monk prince declined his offer. 

He said that he had become a monk because he wanted to experience the truth which is beyond all realms. He was determined to attain this goal. Therefore he could not accept King Bimbisara’s offer.

King Bimbisara was greatly impressed by the strength of his resolution. He requested the monk to come to Rajagaha to give him a discourse once he attained enlightenment. 

The ascetic prince agreed and proceeded on his way. 

3)  "Uddaka Ramputta."

After learning the seventh jhāna  (dhyāna, concentration, absorption)  in Alara Kalama’s meditation centre, the ascetic prince proceeded to the meditation centre of Uddaka Ramputta where he learned the eighth jhāna within a very short period.

The eighth jhāna is the meditation of nevasaññānāsaññāyatana. 

After the seventh akiñcana jhāna, in the next jhāna, perception (saññā, the evaluating faculty of mind) becomes so feeble that it is difficult to differentiate whether it is present or absent. 

Saññā does the work of identification and evaluation. In this state whom to identify? What nomenclature to give to what state? To what can we term as infinite sky or infinite consciousness or nothingness  (sunya). This state is beyond all this and cannot be named. 
Saññā becomes unable to recognize any object. 

However, the meditator is not totally without saññā. In this state, it cannot be said whether saññā is present or absent.

Passing through the experience of this eighth jhāna, the Bodhisatta found that it is the highest formless state of existence, that is, arūpa brahmaloka. 

This is the highest amongst all existences in the cycle of life and death. 

Taking birth in the arūpa brahmaloka enables one to live a long life of thousand of eons. But this state is not immortal. Even though it is the highest, it is still a mortal existence. It is the territory of Mara and it is not free from his clutches. The cycle of life and death is still in motion here. This does not grant one the state of total cessation of misery.

The Bodhisatta wanted to experience the reality of going beyond all existences, the state that is permanent, eternal, deathless and immortal. He wanted to find the way out of all misery, the misery of life and death. For this he had to attain omniscience, which would enable him to understand why beings suffer and the way out of all suffering.

With these auspicious thoughts, the Bodhisatta proceeded towards Uruvela which was a very suitable place for meditation. 

🌷 4 ) "Sujata’s Porridge."

Senani was a rich man from a village named Sena in Uruvela’s forest area. Sujata (Sujātā), his daughter, had immense faith in a tree-deity. 

She was certain that her successful marriage to a businessman of Varanasi was because of the blessings of this tree-god. She also felt that the birth of her son twenty years ago was also due to the blessings of this tree-deity. So every year she returned home to worship the tree-deity on the full moon night of Vesāka.

This year Sujata prepared delicious khīra  (milk-porridge) to offer to the tree-deity. She sent her maid to the tree to clean the place. When the maid saw the attractive personality and radiant face of ascetic prince Siddhattha meditating under the tree, she felt that the tree-deity had taken this physical form to receive her mistress’s offerings.

She rushed home to give this good news to her mistress. Sujata was joyously surprised. She came to the tree with her khīra in a golden vessel to offer to the tree-deity. However, she immediately realized that it was not the tree-deity but a recluse. 
She offered him the khīra and was delighted when he accepted it.

Not knowing this truth completely, some people started adding their own stories. This is why it was believed by some that Sujata prayed to the tree-deity for an ideal husband and a son. Due to such fabricated stories, she was portrayed as a young and a single girl. The truth is that she was a middle-aged woman at that time. She was married in a rich family and she had a youthful son who was also married. Since Sujata was certain that her wishes were granted because of the tree-deity she came home every year to make offerings to the tree-deity. This year, she had come to pray that like other young men, her son would develop an attraction to worldly things.But on seeing this meditating youth, maternal affection arose in her. 

Instead of asking for anything, she offered him the khīra and showered her blessings on him with the words, ‘May your meditation be fruitful.’ 

This was the Siddhattha’s last meal as the Bodhisatta. 

5 ) He attained enlightenment the next night and hence, this offering of food is considered to be of great importance. 

 🌷1) First Dream.

He saw that his body lay on the ground and progressively grew in size until it covered Nepal and India. The Himalayas in the north had become his pillow. His left hand was on the shore of the Bay of Bengal and the waves of the ocean were washing his hands.  In the south his legs were at the shore of the Indian Ocean and the waves were washing his legs. 

This was the first representation of Nepal and India’s geographical boundaries which indicated that this great man would become a Buddha and his teachings would be accepted by the entire population of Jambudipa (roughly today’s India, Pakistan, Bangladesh and Nepal). 

His teaching would spread in the north to the countries beyond the Himalayas and in the east, west and south via the ocean route to all of mankind.  

Mount Everest, the highest peak of the Himalayas in Nepal came to be called Matha Kunwar, which originally meant the place where the Bodhisatta Prince Siddhattha had rested his head. 

"Geography of India."

 The region of India and Nepal resembles a rose apple (jamun). Therefore, since time immemorial, this region was known as ‘Jambudipa’. 

Later, (in the Atanatiya sutta) the Buddha describes south Indian boundaries further. He said that in the east and west, there are deep oceans which are filled with the water from the regional rivers. This description is only of the eastern and the western part of southern India. In the southernmost part, is the island Sri Lanka and no river water flows into it. This gives us a glimpse of Indian geography. No such description is available in literature prior to this. 

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🌷 2) Second Dream.

 A plant germinated from his navel and kept growing higher and higher into the sky. 

This was a portent that he would teach not only human beings but also devas and brahmas. He would be teacher of humans and gods (satthadevamanussanam). He would be a teacher of all beings and his teaching would be conducive to the welfare and happiness of all beings. 

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 🌷 3) Third Dream.

Countless black-haired beings clothed in white saluted and worshipped him, indicating that innumerable householders would become his disciples. 

Those who had been entangled in various rites, rituals, and blind faith, would learn the Dhamma from him and gain infinite benefit. 

🌷4) Fourth Dream.

Blue, golden, red and grey birds coming from four directions sat on his lap and turned white. 

This indicated that people of all four classes (brahmana, khattiya—warrior class, vessa—business people and sudda—lower castes) would become his disciples, become monks and nuns and get liberated from the cycle of life and death. 

People from all classes and creeds would become his disciples, would become pure. 

They would become Dhammika. They would be liberated from the bondage of sectarian discrimination and casteism. 

They would give importance to conduct instead of religious affiliation and caste. 

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🌷 5) Fifth Dream.

He saw that he was walking on earth covered with excreta but it did not touch him. 

This indicated that even though he resided in world filled with impurity, he would remain pure.  

This world will always be filled with impurity. It is impossible to get rid of the dirt of the entire world but the Buddha would keep himself detached from worldly impurity and would always remain pure. 

(Vipassana Newsletter. July' 09)

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अफजल खां का वध

20 नवम्बर, 1659 ई. - अफजल खां का वध :- बीजापुर की तरफ से अफजल खां को छत्रपति शिवाजी महाराज के खिलाफ भेजा गया। अफजल खां 10 हज़ार क...