Thursday 22 December 2022

अमरहुत्मा स्वामी श्रद्धानन्द जी

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*🚩‼️ ओ३म्‼️🚩*

    *🔥शुद्धि आन्दोलन, दलितों उद्धार आन्दोलन , गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली के*प्रणेता,स्वतंत्रता सेनानी ,तपोनिष्ठ संन्यासी, अमरहुत्मा स्वामी श्रद्धानन्द जी के.९६ वें बलिदान दिवस के अवसर पर उनको शत शत नमन ।*
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    मृतप्रायः हिन्दू जाति की रगों मेें नये रक्त का संचार करने वाले, अपनी सिंह-गर्जना से देश और धर्म के दुश्मनों को कंपा देने वाले, स्वामी दयानन्द के अद्वितीय शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द का जीवन और बलिदान- दोनों ही अप्रतिम हैं। जिन्होंने मोहनदास कर्मचन्द गांधी को पहली बार ‘महात्मा’ का संबोधन दिया। विश्व के इतिहास में पहली बार किसी आर्य संन्यासी ने वेदमंत्र से प्रारम्भ करके जामा मस्जिद के मिम्बर से व्याख्यान दिया, वे स्वामी श्रद्धानन्द जी ही थे। तात्कालीन राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्र के द्दुरन्द्दर जिनके आगे अपना सिर झुकाने में गौरव समझते थे। महात्मा गांधी जिनको ‘बड़ा भाई’ कहकर संबोधित करते थे। मौलाना मोहम्मद अली ने जिनके बारे में कहा- ‘गोरखों की संगीनों के सामने अपनी छाती खोल देने वाले उस बहादुर देशप्रेमी का चित्र अपनी नजर के सामने रखना मुझे बहुत अच्छा लगता है।’ पं० मदनमोहन मालवीय ने उनके बलिदान पर कहा- ‘उनकी ऐसी मृत्यु हिन्दु धर्म के मृत शरीर में प्राण फूंकने जैसी है। हमारे प्रधान नेता ने धर्म की खातिर अपने प्राण दिये हैं।’ महात्मा गांधी ने लिखा- ‘स्वामीजी वीरों में अग्रणी थे। उन्होंने अपनी वीरता से भारत को आश्चर्यचकित किया था। उन्होंने अपनी देह को भारतवर्ष के लिए कुर्बान करने की प्रतिज्ञा ली थी-- स्वामीजी ने अछूतों के लिए जो कुछ किया उससे अधिक भारतवर्ष में किसी और पुरुष ने नहीं किया।’ गणेशशंकर विद्यार्थी ने स्वामी जी के बलिदान पर कहा-‘धर्म, देश और हिन्दू जाति के लिए उन्होंने जो कुछ किया, आगामी संतति उसके आगे श्रद्धा के साथ सिर झुकावेगी।’ सरदार वल्लभ भाई पटेल कह उठे-‘उस वीर संन्यासी का स्मरण हमारे अन्दर सदैव वीरता और बलिदान के भावों को भरता रहेगा।’ पं० हरिशंकर शर्मा के शब्दों में-
जिये तो जान लड़ाते रहे वतन के लिए।
मरे तो हो गए कुर्बान संगठन के लिए।।

    स्वामी श्रद्धानन्द के विषय में कुछ प्रसिद्ध व्यक्तियों के उद्धरण इसलिए दिये गए हैं ताकि पाठकों को स्वामी श्रद्धानन्द के व्यक्तित्त्व के कद का अनुमान हो सके। ३० मार्च १९१९ को दिल्ली में रोलेक्ट एक्ट के विरोध में होने वाले प्रदर्शन का नेतृत्त्व महात्मा गांधी को करना था, महात्माजी को दिल्ली आते हुए पलवल के स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया गया। उस समय स्वामी श्रद्धानन्द दिल्ली के हिन्दू मुसलमानों के एकछत्र नेता थे। स्वामीजी के नेतृत्त्व में जब हजारों प्रदर्शनकारियों की भीड़ चांदनी चैक के पास पहुंची तो पुलिस ने रास्ता रोक लिया। गोरखे सैनिकों ने अपनी पोजिशन ले ली। ऐसी स्थिति में यदि स्वामी श्रद्धानन्द उस भीड़ के नेता न होते तो संभवतः जंलियावाला काण्ड १४ दिन पहले दिल्ली में ही हो गया होता। एक पल की चूक हजारों लोगों की मौत का कारण बन सकती थी। स्वामी श्रद्धानन्द ने पहले तो कहा था- यदि आपकी ओर से कोई गड़बड़ न हुई तो पूरी भीड़ को संयमित रखने की जिम्मेवारी मैं लेता हूँ।’ जब गोरखे नरसंहार करने पर उतारू हो गए तो श्रद्धानन्द अपना सीना खोलकर आगे बढ़े- शांत निस्तब्द्द वातावरण में उनकी धीर गंभीर ध्वनि गूंजी-‘निहत्थी जनता पर गोली चलाने से क्या लाभ? मेरी छाती खुली है। हिम्मत है तो गोली चलाओ।’ कुछ क्षण तक संन्यासी की छाती और गोरखों की संगीनों का सामना होता रहा। भीड़ सांस रोके खड़ी थी। अचानक एक गोरे अधिकारी ने स्थिति की नाजुकता को समझा, और गोरखों को पीछे हटने का आदेश दिया। एक भयंकर नरसंहार होते होते रह गया पर-- देशभक्तों के हृदयों में संन्यासी की निर्भीकता और वीरता की धाक जम गई।

    व्यक्ति के जीवन में प्रेरणा का क्या स्थान होता है! वह अपने आपको किसी प्रेरणा के द्वारा कितना बदल सकता है यह विचारणीय प्रश्न है। स्वामी दयानन्द के सम्पर्क में आने वाले कितने ही व्यक्तियों में कितने ही ऐसे हैें जिनमें आमूलचूल परिवर्तन हो गया। यह स्वामी दयानन्द के चुम्बकीय व्यक्तित्त्व का प्रभाव था या उस व्यक्ति के अन्तरात्मा की शुद्धता- हो सकता है इस विषय पर हम और आप तुरन्त किसी निर्णय पर न पहुंच पाएँ पर श्रद्धानन्द के जीवन का परिवर्तन हमारे लिए सदा प्रेरक बना रहेगा, इसमे कोई संशय नहीं है।

     फरवरी सन १८५६  में जालंधर के तलवन ग्राम में एक समृद्ध क्षत्रिय परिवार में जन्म लेने वाले पुलिस के बड़े अद्दिकारी नानकचन्द का पुत्र- पतन की सारी सुविधाओं और परिस्थितियों को अनायास ही प्राप्त करता है। उसे कोई रोकने वाला नहीं है। लेकिन यह भी वह बिना विचार के नहीं करता। वह उस युग के अन्य पढ़े लिखे नौजवानों की तरह पाश्चात्य विचारों के आगे परम्परा को हेय समझने लगता है।
 अगस्त १८७९  में बांसबरेली में स्वामी दयानन्द पधारे। पिता के आग्रह पर श्रद्धानन्द (तब मुंशीराम) व्याख्यान में चले तो गए पर मन में वही भाव रहा कि केवल संस्कृत जानने वाला साधु बुद्धि की क्या बात करेगा! स्वामी दयानन्द के भव्य व्यक्तित्त्व को देखकर श्रद्धा उत्पन्न हुई। उनके व्याख्यान में पादरी टी0 जे0 स्काट व दो तीन अन्य गोरों को बैठे देखा तो श्रद्धा और बढ़ी। केवल १० मिनट व्याख्यान सुना था कि दयानन्द के हो गए। उसके बाद तो जब तक स्वामी दयानन्द वहाँ रहे, व्याख्यान में पहुंचने वाले और दयानन्द को प्रणाम करने वाले पहले व्यक्ति मुंशीराम ही होते थे। 

    दयानन्द के दर्शन करता है तो वह हिल जाता है। दयानन्द से वार्ता करता है तो उसके विश्वास डगमगाने लगते हैं। तर्क वितर्क करता है तो उसे अब तक के अपने विचार खोखले और निर्बल मालूम होते हैं। ईश्वर पर विश्वास न करने वाला युवक इतना बदल जाता है कि उसका शेष जीवन केवल श्रद्धा को मूर्तिमन्त करने में व्यतीत होता है। एक समय वह जिन पाश्चात्य विचारकों के विचारों में निमग्न है तो एक समय ऐसा आता है कि जब वह मिशनरी स्कूल में पढ़ने वाली कन्या के मुख से ‘ईसा ईसा बोल तेरा क्या लगेगा मोल’ सुनता है तो पंजाब की प्रथम कन्या पाठशाला स्थापित करने का संकल्प ले लेता है।

   उसके बाद तो उनका जीवन अपना न रहा, दयानन्द का हो गया। नहीं नहीं-- परमेश्वर का हो गया। दयानन्द तो खुद अपने ही नहीं थे। वे तो परमेश्वर की आज्ञा में ही अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। श्रद्धानन्द ने भी वही राह पकड़ ली। कभी अपने लिए सोचने का अवसर मिला तो उनके हृदय से अपने जीवनदाता ऋषि के प्रति यही उद्गार निकले- ‘ऋषिवर! -- मेरे निर्बल हृदय के अतिरिक्त और कौन मरणधर्मा मनुष्य जान सकता है कि कितनी बार गिरते गिरते तुम्हारे स्मरण मात्र ने मेरी आत्मिक रक्षा की है।  तुमने कितनी गिरी हुई आत्माओं की कायापलट की, इसकी गणना कौन मनुष्य कर सकता है! परमात्मा के सिवाय कौन कह सकता है कि तुम्हारे उपदेशों से निकली हुई अग्नि ने संसार में व्याप्त कितने पापों को दग्ध कर दिया है? किन्तु अपने विषय में मैं कह सकता हूँ कि तुम्हारे सहवास ने मुझे कैसी गिरी हुई अवस्था से निकालकर सच्चा जीवन लाभ करने योग्य बनाया। नास्तिक रहते हुए भी वास्तविक आनन्द में निमग्न कर देना ऋषि आत्मा का ही काम था।’ 

 मुंशी प्रेमचन्द के अनुसार-‘ऐसे युग में जब अन्य बाजारी चीजों की तरह विद्या बिकती है, यह स्वामी श्रद्धानन्द जी का ही दिमाग था कि उन्होंने प्राचीन गुरुकुल प्रथा में भारत के उद्धार का तत्त्व समझा।’ ऋषि के प्रति अपनी श्रद्धा को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने अपनी सम्पत्ति, कोठी, प्रिंटिंग प्रैस, अपने दोनों सुपुत्र और अपने जीवन तक का बलिदान कर दिया। उन्होंने वैदिक धर्म का प्रचार केवल भाषणों और लेखों के माध्यम से ही नहीं किया बल्कि उसको व्यावहारिक रूप दिया। उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन का उच्च स्तर तक नेतृत्त्व किया। जलियांवाला काण्ड के बाद जब अमृतसर कांगेस अधिवेशन पर खतरे के बादल मंडरा रहे थे तो स्वामीजी ने आगे बढ़कर स्वागताध्यक्ष के रूप में उसका सफल आयोजन कर दिखाया। बहुत कम लोग जानते हैं कि कांग्रेस के कार्यक्रम में दलितोद्धार को प्रमुख स्थान दिलाने का काम स्वामी श्रद्धानन्द ने ही किया था। यह वह समय था जब नेता लोग दलितों को एक जड़ सम्पत्ति समझते थे। मौलाना मुहम्मद अली ने तो दलितों को हिन्दू और मुसलमानों में आधे आधे बांट लेने का सुझाव कांग्रेस के मंच से दे डाला था। स्वामी श्रद्धानन्द दलितों को हिन्दू जाति का अंग समझते थे। जब उन्हें लगा कि कांग्रेस दलितों के मामले में और मुस्लिमों के मामले में किसी और ही राह पर चल रही है तो उन्होंने कांग्रेस को छोड़ दिया। रहतियों और मलकानों की शुद्धि कर के उन्होंने निराश और हताश हिन्दू जाति में नए प्राणों का संचार कर दिया।

   महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि पशु में और मनुष्य में क्या अन्तर होता है- ‘जितने मनुष्य से भिन्न जातिस्थ प्राणी हैं, उनमें दो प्रकार का स्वभाव है- बलवान से डरना, निर्बल को डराना और पीड़ाकर अर्थात् दूसरे का प्राण तक निकाल के अपना मतलब साध लेना देखने में आता है। जो मनुष्य ऐसा ही स्वभाव रखता है उसको भी इन्हीं जातियों में गिनना उचित है। परन्तु जो निर्बलों पर दया, उनका उपकार और निर्बलों को पीड़ा देने वाले अधर्मी बलवानों से कि×िचन्मात्र भी भय शंका न करके, इनको परपीड़ा से हटाके निर्बलों की रक्षा तन, मन और धन से सदा करना है, वही मनुष्य जाति का निज गुण है। क्योंकि जो बुरे कामों के करने में भय और सत्य कामों के करने में कि×िचत् भय शंका नहीं करते वे ही मनुष्य धन्यवाद के पात्र कहाते हैं।’

    ऋषि दयानन्द के वचनों के अनुसार श्रद्धानन्द ने अपना जीवन एक सच्चे मनुष्य की भांति जीया। उनकी शारीरिक भव्यता और मानसिक दृढ़ता उन्हें विश्व के महापरुषों में बहुत ऊँचे स्थान पर प्रतिष्ठित कर देती है। शारीरिक भव्यता के बारे में रेम्जे मैक्डानल्ड (ब्रिटिश प्रद्दानमंत्री) के विचार उल्लेखनीय हैं।- ‘यदि इस युग का कोई कलाकार ईसा मसीह का चित्र बनाने के लिए अपने सामने कोई माडल रखना चाहे, तो मैं उसे महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) के भव्य व्यक्तित्त्व की ओर संकेत करूँगा।’ निर्भीकता और दृढ़ता उनके व्यक्तित्त्व की सहचरी थी। 23 दिसम्बर १९२६ को रोगशैया पर विश्राम करते हुए दिल्ली में अब्दुल रशीद नामक एक मतान्द्द युवक ने स्वामी जी की कायरतापूर्ण तरीके से हत्या कर दी। सारा देश स्तब्द्द रह गया। गांद्दी जी ने उनके बलिदान पर लिखा- ‘स्वामी श्रद्धानन्द ऐसे सुधारक थे जो वाक्शूर नहीं, कर्मवीर थे। उनका विश्वास जीवित जाग्रत था। इसके लिए उन्होंने अनेक कष्ट उठाए थे। वे वीर सैनिक थे। वीर सैनिक रोग शैया पर नहीं किन्तु रणांगण में मरना पसंद करते हैं। मुझे उनसे तथा उनके अनुयायियों से ईष्र्या होती है। उनका कुल तथा उनका देश उनकी इस शानदार मृत्यु पर बधाई के पात्र हैं। वे वीर के समान जीये और वीर के समान ही मरे।’ 
 यदि किसी को श्रद्धा की व्याख्या समझनी हो तो वह श्रद्धानन्द के जीवन का अध्ययन करे। जैसे दयानन्द के मिलन ने उनका कायापलट कर दिया, वैसे ही श्रद्धानन्द के जीवन को समझने से भी कितने ही आत्मविमुग्द्द लोगों का कायापलट हो सकता है।

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*🕉️🚩 आज का वेद मंत्र 🕉️🚩*

*🌷 ओ३म् ,इन्द्र क्रतुं न आभर पिता पुत्रेभ्यो यथा।*
*शिक्षा णो अस्मिन् पुरुहूत यामनि जीवा ज्योतिरशीमहि।।*
*ऋग्वेद ७/३२/२६*

💐भावार्थ: हे सर्वशक्तिमन् इन्द्र! हमें ज्ञानी और उद्यमी बनाओ, जैसे पिता पुत्रों को ज्ञानी और उद्योगी बनाता है। ऐसे हम भी आपके पुत्र ब्रह्मज्ञानी और सत्कर्मी बनें ऐसी प्रेरणा करो। हे भगवन् ! हम अपने जीवन काल में ही, आपके कल्याणकारक ज्योतिस्वरूप को प्राप्त होकर, अपने दुर्लभ मनुष्य_ जन्म को सफल करें। दयामय परमात्मन् !आपकी कृपा के बिना न हम ज्ञानी बन सकते हैं, न ही सुकर्मी, अतएव हम पर आप कृपा करें कि हम आपके पुत्र ज्ञानी और सत्कर्मी बनें।

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Thursday 1 December 2022

As if there are two minds

Q: I notice very often when I am practicing that I have other conversations going on, words, or I am hearing songs and music. But yet I still feel the sensations.

SNG: As if there are two minds. One mind is with the sensations and another mind is chattering, doing something.

Q: Yes.

SNG: It doesn’t matter. Don’t try to suppress whatever is coming in the mind, thoughts or fantasies or anything. But start giving more importance to the sensation.

Let all these thoughts be like background music. Then they will fade away automatically. If you give importance to them—either you want to get rid of them and try to push them out, or you start taking interest in them—they will become so predominant that the sensations will fade away. Always give importance to sensation; let there be any thought.

Q: Their presence doesn’t necessarily mean that there isn’t equanimity then?

SNG: No. All these thoughts won’t harm you, they will make sankhāras but they are sankhāras like a line drawn on the water. It can never go deep because you are with the sensations.

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THE LAST DAYS OF MRINALINI DEVI AND SRI AUROBINDO’S LETTER TO HIS FATHER-IN-LAW

THE LAST DAYS OF MRINALINI DEVI AND SRI AUROBINDO’S LETTER TO HIS FATHER-IN-LAW This is the last of the posts we have published ...