Wednesday, 15 March 2023

भगवान बुद्ध का सहज, सरल व सादा जीवन


*भगवान बुद्ध का सहज, सरल व सादा जीवन सभी भिक्षुओं व गृहस्थों के लिए श्रेष्ठ आदर्श है. ऐसा आदर्श और कहां ढूंढेंगे?*

*तथागत का रहनसहन, खानपान बहुत साधारण व सादगीभरा था. दिन में वह सिर्फ एक बार भोजन करते थे. अक्सर वह स्वयं भिक्षाटन के लिए गांव नगर में जाते और अपने भिक्षापात्र में ही भोजन करते थे*

    *बुद्धत्व प्राप्ति के बाद बीस वर्ष तक उन्होंने किसी गृहस्थ का दिया हुआ वस्त्र नहीं पहना l वह इधर उधर पड़े हुए वस्त्रों को इकट्ठा कर सिलाई कर चीवर बनाकर पहनते थे l*

   *एक बार बोधि राजकुमार ने भगवान बुद्ध व भिक्षु संघ को अपने यहां भोजन के लिए आमंत्रित किया. भगवान के स्वागत के लिए मार्ग में काफी दूर तक पांवड़ें (रेड कार्पेट) बिछाए और दोनों और पुष्प वर्षा के लिए तैयारी की l बुद्ध यह सब देख कर असहज महसूस करने लगे. उन्होंने बहुत विनम्रता से कहा कि वह इस तरह के विलासी मार्ग पर चलना स्वीकार नहीं करेंगे l साथ ही चल रहे सेवक भिक्षु आनंद ने राजकुमार से कहा "राजकुमार! यह पावड़ें मार्ग से हटा लो. तथागत इस पर नहीं चलेंगे."*

     *दरअसल तथागत सामान्य जनता के जीवन के बारे में विचार करते थे. वह भविष्य के मानव जगत के लिए सादगी भरे जीवन का आदर्श छोड़ना चाहते थे*

     *दैनिक जीवन में जितने कम साधनों व सुविधाओं में जीवन निर्वाह हो सकें, उतने ही बुद्ध को अधिक पसंद थे. अल्प, सुलभ ,निर्दोष- अर्थात बहुत कम जरुरत, सरलता से उपलब्ध हो और वस्तु या साधन में कोई दोष नहीं हो. वस्त्र भोजन आदि के बारे में उनका यही नियम था*

    *शाक्यमुनि बुद्ध को खुली जगह में रहना बहुत पसंद था अधिकतर रात को वह खुले में या पेड़ के नीचे बैठे ध्यान साधना करते थे. एक बार शिंशपा वन में बुद्ध विहरते थे l कड़ाके की सर्दी थी. धरती जानवरों के खुरों से उबड़ खाबड़ हो रही थी. लेकिन भगवान बुद्ध वहीं पत्तों के आसन पर बैठे हुए ध्यान में लीन थे l एक व्यक्ति वहां आकर उनसे पूछता है, भंते ! क्या आप सुख में हैं ? आप सिर्फ एक हल्का वस्त्र पहने हुए हैं. जमीन उबड़ खाबड़ है. पत्तियों का आसन भी बहुत पतला है. कड़ाके की सर्दी में ठंडी हवा चल रही है*

    *भगवान बुद्ध ने उत्तर दिया, "हां, मैं सुख से रहता हूं, संसार में जो सुख से रहने वाले मनुष्य हैं उनमें से मैं एक हूं*

 *सबका मंगल हो.... सभी प्राणी सुखी हो....सभी निरोगी हो*

         *प्रस्तुति: डॉ. एम एल परिहार, जयपुर*

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