Tuesday 25 July 2023

KASHYAPA

KASHYAPA or KASYAPA ,one of the saptrishis or 7 Rishis in hindu tradition.

1) His name is derived from sanskrit word for tortoise . Referring to his ascetic practice of withdrawing himself internally, like a tortoise does with limbs and head.
Kashyapa is also mentioned as the earliest rishi in verse 6.5.3 of Brihadaranyaka Upanishad.

2 ) Rishi Kashyapa is said to have drained the Kashmir valley to make it habitable. 
( In Buddhist texts he is known as KASSAPA in Pali or as Manujshri in Vajrayana Tibetan Buddhism )

3) At times, those who convert, revert to Hinduism or have lost the knowledge of their Gotra ( lineage ) are investitured with his name as their Gotra

Monday 10 July 2023

Taraka Brahman

एक काशी के अनादि योगी बाबाजी की पुकार​!

पेयं पेयं श्रवणपुटके रामनामाभिरामं,
ध्येयं ध्येयं मनसि सततं तारकं ब्रह्मरूपम्।
जल्पन् जल्पन् प्रकृतिविकृतौ प्राणिनां कर्णमूले,
वीथ्यां वीथ्यामटति जटिलः कोऽपि काशीनिवासी॥ 
(काशीखण्ड​, स्कन्दपुराणम्)

peyaṃ peyaṃ śravaṇapuṭake rāmanāmābhirāmaṃ,
dhyeyaṃ dhyeyaṃ manasi satataṃ tārakaṃ brahmarūpam।
jalpan jalpan prakṛtivikṛtau prāṇināṃ karṇamūle,
vīthyāṃ vīthyāmaṭati jaṭilaḥ ko'pi kāśīnivāsī॥ 
(kāśīkhaṇḍa​, skandapurāṇam)

एक जटाधारी नित्य काशीनिवासी योगी काशीके गली-गलीमें घुम​-घुमकर वहाँ के मरणधर्मा जीवों को कहता रहता हैं -

'तुम अपने कानके दौनेमें मेरे मुखसे निकलने वालें इस अत्यन्त सुन्दर नाम "राम​" को पीते रहो और हमेशा तारक ब्रह्म के स्वरूपका मन लगाकर ध्यान करते रहो! '

A Yogi with matted locks, who is an eternal resident of Kashi, has been moving around the lanes of Kashi and preaching to all living entities who by nature are subject to death - 

'Drink this blissful name "Rama," which emanates from my mouth through your ears, and always meditate on the divine form of Taraka Brahman!'

Saturday 8 July 2023

The Divine Gardener knows how to deal with you.

Sri Ramakrishna (smiling to Keshab): “You are ill; well, there is a deep meaning in that. There has passed through your body many a deep devotional feeling, that searches the Lord: your illness bears witness to those feelings. Of the havoc done by them to the system, one can form no idea at the time they arise.

A ship goes past over the Ganges, but nobody attends to it. A little while after, big waves are seen, beating upon the bank and sometimes washing away portions of it.

An elephant, entering into a hut, soon makes it totter and at last pulls it down. The love for the Lord is like the elephant in its greatness. It very often pulls down the frail house of clay called the “human body”.

When a house is set on fire, some of the things inside are first burnt up; then the house is taken up as a whole by the fire and burnt. Much the same thing comes to pass, when God is seen. The fire of God-vision first burns up the various passions — lust, anger, etc., then the false ego, which says: “I am the doer (Lord)”; and lastly, the whole house, viz., the body.

You may think: “Let the Lord’s will be done”. But, no, the physician does not leave the patient, until he is perfectly cured. Your name has been entered as a patient in the hospital-books, and you cannot get away, till you are seen cured by the physician in charge (the doctor Saheb). Why did you suffer your name to be so entered? (Laughter.) …

Everything is ordered by Her will. Thou doest Thy will alone, О Mother Divine! Thou doest Thy own work, but foolish man takes all the credit to himself, saying: “It is I, who have done it!”

The gardener knows well how to deal with the common rose and also with the rose bussora, which is of a superior type. As for the latter, he clears the soil round about its roots to give it the benefit of the night dew. The dew adds freshness and strength to the plant. It may be that the same is the case with you. The Divine Gardener knows how to deal with you. He digs round about you to the very roots, to the end that the dew of His inspiration shall fall on you and you shall be purer, stronger than before, and your work even greater and more abiding than ever”.

(Mahendra Nath Gupta “The Condensed Gospel of Sri Ramakrishna: M’s own English Version”, RK Math Madras, Section V 1883, Ch. II “With Keshab Sen At Lily Cottege”, pp. 150-1)

Thursday 6 July 2023

एक व्यापारी की यह सत्य घटना है।

एक व्यापारी की यह सत्य घटना है।*
जब मृत्यु का समय न्निकट आया तो पिता ने अपने एकमात्र पुत्र धनपाल को बुलाकर कहा कि.. 
बेटा मेरे पास धन-संपत्ति नहीं है कि मैं तुम्हें विरासत में दूं। पर मैंने जीवनभर सच्चाई और प्रामाणिकता से काम किया है। 
तो मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि, तुम जीवन में बहुत सुखी रहोगे और धूल को भी हाथ लगाओगे तो वह सोना बन जायेगी।
बेटे ने सिर झुकाकर पिताजी के पैर छुए। पिता ने सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और संतोष से अपने प्राण त्याग कर दिए।
अब घर का खर्च बेटे धनपाल को संभालना था। उसने एक छोटी सी ठेला गाड़ी पर अपना व्यापार शुरू किया। 
धीरे धीरे व्यापार बढ़ने लगा। एक छोटी सी दुकान ले ली। व्यापार और बढ़ा।
अब नगर के संपन्न लोगों में उसकी गिनती होने लगी। उसको विश्वास था कि यह सब मेरे पिता के आशीर्वाद का ही फल है। 
क्योंकि, उन्होंने जीवन में दु:ख उठाया, पर कभी धैर्य नहीं छोड़ा, श्रद्धा नहीं छोड़ी, प्रामाणिकता नहीं छोड़ी इसलिए उनकी वाणी में बल था। 
और उनके आशीर्वाद फलीभूत हुए। और मैं सुखी हुआ। उसके मुंह से बारबार यह बात निकलती थी। 
एक दिन एक मित्र ने पूछा: तुम्हारे पिता में इतना बल था, तो वह स्वयं संपन्न क्यों नहीं हुए? सुखी क्यों नहीं हुए?
धर्मपाल ने कहा: मैं पिता की ताकत की बात नहीं कर रहा हूं। मैं उनके आशीर्वाद की ताकत की बात कर रहा हूं।
इस प्रकार वह बारबार अपने पिता के आशीर्वाद की बात करता, तो लोगों ने उसका नाम ही रख दिया बाप का आशीर्वाद! 
धर्मपाल को इससे बुरा नहीं लगता, वह कहता कि मैं अपने पिता के आशीर्वाद के काबिल निकलूं, यही चाहता हूं।
ऐसा करते हुए कई साल बीत गए। वह विदेशों में व्यापार करने लगा। जहां भी व्यापार करता, उससे बहुत लाभ होता। 
एक बार उसके मन में आया, कि मुझे लाभ ही लाभ होता है !! तो मैं एक बार नुकसान का अनुभव करूं।
तो उसने अपने एक मित्र से पूछा, कि ऐसा व्यापार बताओ कि जिसमें मुझे नुकसान हो। 
मित्र को लगा कि इसको अपनी सफलता का और पैसों का घमंड आ गया है। इसका घमंड दूर करने के लिए इसको ऐसा धंधा बताऊं कि इसको नुकसान ही नुकसान हो।
तो उसने उसको बताया कि तुम भारत में लौंग खरीदो और जहाज में भरकर अफ्रीका के जंजीबार में जाकर बेचो। धर्मपाल को यह बात ठीक लगी।
जंजीबार तो लौंग का देश है। वहां से लौंग भारत में लाते हैं और यहां 10-12 गुना भाव पर बेचते हैं। 
भारत में खरीद करके जंजीबार में बेचें, तो साफ नुकसान सामने दिख रहा है।
परंतु धर्मपाल ने तय किया कि मैं भारत में लौंग खरीद कर, जंजीबार खुद लेकर जाऊंगा। देखूं कि पिता के आशीर्वाद कितना साथ देते हैं।
नुकसान का अनुभव लेने के लिए उसने भारत में लौंग खरीदे और जहाज में भरकर खुद उनके साथ जंजीबार द्वीप पहुंचा।
जंजीबार में सुल्तान का राज्य था। धर्मपाल जहाज से उतरकर के और लंबे रेतीले रास्ते पर जा रहा था ! वहां के व्यापारियों से मिलने को। 
उसे सामने से सुल्तान जैसा व्यक्ति पैदल सिपाहियों के साथ आता हुआ दिखाई दिया।
उसने किसी से पूछा कि, यह कौन है?
उन्होंने कहा: यह सुल्तान हैं।
सुल्तान ने उसको सामने देखकर उसका परिचय पूछा। उसने कहा: मैं भारत के गुजरात के खंभात का व्यापारी हूं। और यहां पर व्यापार करने आया हूं। 
सुल्तान ने उसको व्यापारी समझ कर उसका आदर किया और उससे बात करने लगा।
धर्मपाल ने देखा कि सुल्तान के साथ सैकड़ों सिपाही हैं। परंतु उनके हाथ में तलवार, बंदूक आदि कुछ भी न होकर बड़ी-बड़ी छलनियां है। 
उसको आश्चर्य हुआ। उसने विनम्रता पूर्वक सुल्तान से पूछा: आपके सैनिक इतनी छलनी लेकर के क्यों जा रहे हैं।
सुल्तान ने हंसकर कहा: बात यह है, कि आज सवेरे मैं समुद्र तट पर घूमने आया था। तब मेरी उंगली में से एक अंगूठी यहां कहीं निकल कर गिर गई। 
अब रेत में अंगूठी कहां गिरी, पता नहीं। तो इसलिए मैं इन सैनिकों को साथ लेकर आया हूं। यह रेत छानकर मेरी अंगूठी उसमें से तलाश करेंगे।
धर्मपाल ने कहा: अंगूठी बहुत महंगी होगी।
सुल्तान ने कहा: नहीं! उससे बहुत अधिक कीमत वाली अनगिनत अंगूठी मेरे पास हैं। पर वह अंगूठी एक फकीर का आशीर्वाद है। 
मैं मानता हूं कि मेरी सल्तनत इतनी मजबूत और सुखी उस फकीर के आशीर्वाद से है। इसलिए मेरे मन में उस अंगूठी का मूल्य सल्तनत से भी ज्यादा है।
इतना कह कर के सुल्तान ने फिर पूछा: बोलो सेठ, इस बार आप क्या माल ले कर आये हो।
धर्मपाल ने कहा कि: लौंग!
सुल्तान के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। यह तो लौंग का ही देश है सेठ। यहां लौंग बेचने आये हो? किसने आपको ऐसी सलाह दी।
जरूर वह कोई आपका दुश्मन होगा। यहां तो एक पैसे में मुट्ठी भर लोंग मिलते हैं। यहां लोंग को कौन खरीदेगा? और तुम क्या कमाओगे?
धर्मपाल ने कहा: मुझे यही देखना है, कि यहां भी मुनाफा होता है या नहीं। 
मेरे पिता के आशीर्वाद से आज तक मैंने जो धंधा किया, उसमें मुनाफा ही मुनाफा हुआ। तो अब मैं देखना चाहता हूं कि उनके आशीर्वाद यहां भी फलते हैं या नहीं।
सुल्तान ने पूछा: पिता के आशीर्वाद? इसका क्या मतलब?
धर्मपाल ने कहा: मेरे पिता सारे जीवन ईमानदारी और प्रामाणिकता से काम करते रहे। परंतु धन नहीं कमा सकें। 
उन्होंने मरते समय मुझे भगवान का नाम लेकर मेरे सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिए थे, कि तेरे हाथ में धूल भी सोना बन जाएगी।
ऐसा बोलते-बोलते धर्मपाल नीचे झुका और जमीन की रेत से एक मुट्ठी भरी और सम्राट सुल्तान के सामने मुट्ठी खोलकर उंगलियों के बीच में से रेत नीचे गिराई तो..
धर्मपाल और सुल्तान दोनों का आश्चर्य का पार नहीं रहा। उसके हाथ में एक हीरेजड़ित अंगूठी थी। यह वही सुल्तान की गुमी हुई अंगूठी थी।
अंगूठी देखकर सुल्तान बहुत प्रसन्न हो गया। बोला: वाह खुदा आप की करामात का पार नहीं। आप पिता के आशीर्वाद को सच्चा करते हो।
धर्मपाल ने कहा: फकीर के आशीर्वाद को भी वही परमात्मा सच्चा करता है।
सुल्तान और खुश हुआ। धर्मपाल को गले लगाया और कहा: मांग सेठ। आज तू जो मांगेगा मैं दूंगा।
धर्मपाल ने कहा: आप 100 वर्ष तक जीवित रहो और प्रजा का अच्छी तरह से पालन करो। प्रजा सुखी रहे। इसके अलावा मुझे कुछ नहीं चाहिए।
सुल्तान और अधिक प्रसन्न हो गया। उसने कहा: सेठ तुम्हारा सारा माल में आज खरीदता हूं और तुम्हारी मुंह मांगी कीमत दूंगा।
इस कहानी से शिक्षा मिलती है, कि पिता के आशीर्वाद हों, तो दुनिया की कोई ताकत कहीं भी तुम्हें पराजित नहीं होने देगी। 
*पिता और माता की सेवा का फल निश्चित रूप से मिलता है। आशीर्वाद जैसी और कोई संपत्ति नहीं।*
बालक के मन को जानने वाली मां और भविष्य को संवारने वाले पिता यही दुनिया के दो महान ज्योतिषी है।
अपने बुजुर्गों का सम्मान करें! यही भगवान की सबसे बड़ी सेवा है....

THE LAST DAYS OF MRINALINI DEVI AND SRI AUROBINDO’S LETTER TO HIS FATHER-IN-LAW

THE LAST DAYS OF MRINALINI DEVI AND SRI AUROBINDO’S LETTER TO HIS FATHER-IN-LAW This is the last of the posts we have published ...