Friday, 18 July 2025

नारियल की तीन आँखें: एक आध्यात्मिक और ब्रह्मांडीय दृष्टिकोण

नारियल की तीन आँखें: एक आध्यात्मिक और ब्रह्मांडीय दृष्टिकोण

                          ● • (भाग-४) ● • 

● गुरु पूर्णिमा का दिन सनातन धर्म में अत्यंत पावन एवं शक्तिशालीदिन माना गया है। इस दिन समस्त श्रद्धावान साधक गुरु महाराज के चरणों में श्रद्धा,विश्वास, भक्ति और समर्पण के साथ नारियल ("श्रीफल" ) अर्पित करते हैं, जिसे आशीर्वाद स्वरूप लौटा दिया जाता है। अभिमंत्रित नारियल गुरु की दिव्य चेतना, उनके आशीर्वचनों एवं ब्रह्मांडीय ऊर्जा का संचायक बन जाता है।

नारिकेलस्तु मधुरः शीतलश्च बलप्रदः।
शुक्रवृद्धिकरः स्निग्धः स्त्रियाः गर्भधारणे हितः॥

● आयुर्वेद में चंद्रमा को मन और रसधातु का कारक माना गया है और यह जल तत्व को नियंत्रित करता है। पूर्णिमा के प्रभाव से,गुरु पूर्णिमा के दिन चंद्र-ऊर्जा चरम पर होती है और यह स्त्रियों के स्वाधिष्ठान चक्र (प्रजनन केंद्र) को जाग्रत कर गहरा प्रभाव डालती है। जब उनके द्वारा  अभिमंत्रित नारियल का बीज और जल  पूर्ण श्रद्धा, विश्वास और गुरु-भक्ति के साथ ग्रहण किया जाता है तो यह बीज मात्र शारीरिक गर्भधारण का माध्यम नहीं बनता वरन नवजीवन की संभावना, स्त्रीत्व की पूर्णता, और मां बनने के सौभाग्य का उद्घोष बन जाता है।

● शास्त्रों में उल्लेख है —

||बीजं ब्रह्मा, जलं विष्णुः, फलरूपं शिवः स्मृत||
||पूजितं तद्गुरोः हस्ते, सर्वकामफलप्रदम्||

• नारियल का बीज ब्रह्मा का प्रतीक है (सृष्टिकर्ता), 
• नारियल का जल विष्णु का प्रतीक है (पालनकर्ता),  
• फल स्वयं शिव का प्रतीक है (रूपांतरणकर्ता)। 

• अतः  गुरु महाराज द्वारा अभिमंत्रित नारियल सर्व मनोकामनाओं की पूर्ति का कारक बन जाता है। 

||गर्भे सुप्तं बीजमिदं, गुरोः कृपया जागृतं भवेत्||
||जलशक्त्या संयुतं चेत्, वन्ध्यायाः सौभाग्यदा भवेत्||
`
अर्थात:  

जो बीज गर्भ में सुप्त है, वह गुरु की कृपा से जागृत हो जाता है। यदि वह जलशक्ति से युक्त हो, तो "वन्ध्या" स्त्री को भी सौभाग्य (संतान) प्रदान कर सकता है।

● अंततः गुरु की कृपा से पूजित श्रीफल ना केवल शरीर, वरन मन और आत्मा को भी स्पर्श/पोषित करता है। यह  आयुर्वेद और अध्यात्म का समन्वय बन जाता है जो स्त्री के जीवन में मातृत्व का दीप जला सकता है।

||जिसे छू ले वक़्त-ए-दुआ में नज़र-ए-पीर की रौशनी||  
||वो बीज भी कोख में बन जाए रहमत की बूँद कोई ||

● अर्थात 

• जब किसी बीज को दुआ के क्षणों में पीर (गुरु) की दृष्टि का प्रकाश छू जाए, तो वह बीज भी कोख में जाकर रहमत की बूँद बन सकता है — "संतान का वरदान"।

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Guru Purnima — A Sacred Confluence of Ayurveda, Spiritual Energy, and the Blessing of Motherhood

● Guru Purnima is considered an immensely sacred and powerful day in the Sanatan Dharma. On this auspicious occasion, devoted seekers offer coconut ("Shreephal") at the lotus feet of their Guru with reverence, faith, devotion, and complete surrender. This sacred coconut, after being ritually blessed and returned as prasad, becomes a carrier of the Guru’s divine consciousness, sacred benediction, and cosmic energy.

> “Nārikelastu madhuraḥ śītalaśca balapradaḥ।
Śukravṛddhikaraḥ snigdhaḥ striyāḥ garbhadhāraṇe hitaḥ॥”

● According to Ayurveda, the coconut is sweet, cooling, strength-giving, nourishing, and known to increase reproductive vitality, particularly beneficial in supporting conception in women.

● Ayurveda regards the moon as the controller of the mind and rasa dhatu (the nutritive fluid of the body), as well as the regulator of the water element. On Guru Purnima, the moon is in its full phase, and this lunar energy reaches its peak. It activates the Swadhisthana Chakra (the reproductive center) in women, exerting a deeply transformative effect.

● When the consecrated seed and water of the coconut, blessed by the Guru, are consumed with deep faith, devotion, and surrender, they do not merely aid physical conception, but become a medium of new life, a manifestation of complete womanhood, and a proclamation of the blessing of motherhood.

● The scriptures affirm:

> "Bījaṁ Brahmā, jalaṁ Viṣṇuḥ, phalarūpaṁ Śivaḥ smṛtaḥ।
Pūjitaṁ tadguroḥ haste, sarvakāmaphalapradam॥"

• The seed within the coconut symbolizes Brahma, the Creator.

• The water represents Vishnu, the Preserver.

• The fruit itself symbolizes Shiva, the Transformer.

● Thus, a coconut consecrated by the Guru becomes a source of fulfillment of all desires (sarva-kāma-phala-pradam).

● Ultimately, the Shreephal, when sanctified by the Guru’s grace, touches not only the body, but also nourishes the mind and soul. It becomes a confluence of Ayurveda and spirituality, capable of igniting the divine flame of motherhood in a woman's life.

• "That which is touched by the radiant gaze of the Master at the moment of blessing,
    Even a seed, planted in the womb, becomes a drop of divine mercy."

● Meaning:

• When a seed is touched by the light of the Guru’s gaze during the sacred moment of blessing, it can transform into a drop of divine grace in the womb — a miraculous gift of motherhood.

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गुरुपूर्णिमा — आयुर्वेद, अध्यात्म एवं मातृत्ववर्षिण्याः कृपायाः पावनसंयोगः

● गुरुपूर्णिमादिवसः सनातनधर्मे परमपावनः शक्तिसंपन्नश्च दिनं स्मृतः। अस्मिन दिवसे सर्वे श्रद्धावन्तः साधकाः नारिकेलं — "श्रीफलं" — श्रद्धया, विश्वासेन, भक्त्या च समर्प्य गुरोः पादयोः अर्पयन्ति। तत् गुरुणा अभिमन्त्रितं श्रीफलं प्रसादरूपेण प्रत्यर्प्यते, यः तु गुरोः दिव्यचेतना, आशीर्वचनानि, च ब्रह्माण्डीयशक्तिः इत्यस्य धारकः भवति।

||नारिकेलस्तु मधुरः शीतलश्च बलप्रदः||
||शुक्रवृद्धिकरः स्निग्धः स्त्रियाः गर्भधारणे हितः||

● आयुर्वेदशास्त्रे नारिकेलं मधुरं, शीतलं, बलवर्धकम्, शुक्रधातुवर्धकं, स्त्रीणां गर्भधारणाय हितकरं च निगद्यते।

● चन्द्रः आयुर्वेदे मनसः च रसधातोः च कारकः इत्युक्तम्। अयं चन्द्रः जलतत्त्वस्य नियामकः अपि। पूर्णचन्द्रेण युक्ता गुरुपूर्णिमा चन्द्रशक्तेः पराकाष्ठां गच्छति। एषा चन्द्रचेतना स्वाधिष्ठानचक्रं (प्रजननकेन्द्रम्) जाग्रयति, विशेषतः स्त्रीणां शरीरे सूक्ष्मं प्रभावं करोति।

● यदा स्त्री श्रद्धया, भक्त्या च गुरुणा अभिमन्त्रितं नारिकेलबीजं जलं च सेवनं करोति, तदा तद् बीजं केवलं शारीरिकगर्भधारणस्य माध्यमं न, अपि तु नवजीवनस्य संकेतः, स्त्रीत्वपूर्णत्वस्य च लक्ष्यम्, तथा च मातृत्ववरस्य दिव्यघोषणां भवति।

● शास्त्रीयदृष्ट्या –

||बीजं ब्रह्मा, जलं विष्णुः, फलरूपं शिवः स्मृतम्||
||पूजितं तद्गुरोः हस्ते, सर्वकामफलप्रदम्||

• नारिकेलस्य बीजं ब्रह्मणः सृष्टिशक्तेः प्रतीकं।

• तस्य जलं विष्णोः पालनकर्तुः रूपं।

• फलम् स्वयं शिवस्य संहारस्वरूपं प्रतीकम्।

अतः गुरुणा पूजितं श्रीफलं सर्वकामनापूरणस्य कारणभूतं भवति।

● अन्ते –

• गुरुकृपया अभिषिक्तं श्रीफलं केवलं देहम् न, किन्तु मनसि आत्मनि च प्रभावं करोति। एषः नारिकेलः आयुर्वेदस्य च अध्यात्मदृष्टेः च संयोगरूपेण स्त्रियाः जीवनस्य मातृत्वदीपं प्रज्वालयितुं समर्थः भवति।

||या दृष्टिः पीरस्य दत्तवेला-दिव्यप्रभायुक्ता स्पृशेत्तदा बीजम्||
||तदेव कोष्ठे मातृरूपे परिणम्य, कृपाबिन्दुरिव जायते||

● अर्थ:

• यदा दानकाले गुरुना दीयमाना दिव्यदृष्टिः किञ्चन बीजम् अधस्पदं स्पृशति, तदा तत् बीजम् अपि कोख्याम् प्रविश्य कृपाबिन्दुरूपेण संतानवरदं भवति।

।┏╮/╱🌺
╰ 🌼 રવિ શર્મા 🌼
╱/ ╰┛🌺.

Monday, 26 May 2025

Reminiscenses Of Swami Vivekananda

He paced up and down our outside dining room veranda, talking of Krishna and the love of Krishna and the power that love was in the world. He had a curious quality that when he was a bhakta, a lover, he brushed aside karma and raja and jnana yogas as if they were of no consequence whatever. And when he was a karma-yogi, then he made that the great theme. Or equally so, the jnana. Sometimes, weeks, he would fall in one particular mood utterly disregardful of what he had been, just previous to that. He seemed to be filled with an amazing power of concentration; of opening up to the great Cosmic qualities that are all about us. It was probably that power of concentration that kept him so young and so fresh, he never seemed to repeat himself. There would be an incident of very tittle consequence which would illuminate a whole new passage for him. 

Swamiji was a very powerful personality. On the one hand he would attack with an his vigour and might any wrong and injustice and would pounce upon and try to root out the evil altogether; on the other, his heart was very tender and soft. Once he said, “Is it possible that your finger would get cut by the soft bubbles of fresh-drawn milk? I say, even this may be possible, but the heart of Shri Radha was even softer.”

(Reminiscenses Of Swami Vivekananda)

Monday, 28 April 2025

Drink the water to your heart's content

Guru Nanak replied "On Bhai Mardana Ji! Repeat the Name of God, the Almighty; and drink the water to your heart's content."

The Guru put aside a big rock lying nearby and a pure fountain of water sprang up and began to flow endlessly. Bhai Mardana quenched his thirst and felt grateful to the Guru.

On the other hand, the fountain of Shah Wali Qandhari dried up. On witnessing this, the Wali in his rage threw a part of a mountain towards the Guru from the top of the hill. The Guru stopped the hurled rock with his hand leaving his hand print   in the rock 🌿🕊️🪷

 #gurunanakdevji #gurwani #satsang

Wednesday, 16 April 2025

प्रकृति मौन है - ओशो

**"प्रकृति से दूर होकर मनुष्य अपने आप से भी दूर हो गया है। हम कंक्रीट के जंगलों में जी रहे हैं, लेकिन भीतर का जंगल सूख गया है। पेड़, नदियाँ, पर्वत, पक्षी – ये सब ईश्वर की जीवित अभिव्यक्तियाँ हैं। जब तुम एक वृक्ष के नीचे शांत बैठते हो, वह वृक्ष तुम्हें कुछ कहता नहीं, लेकिन बहुत कुछ पहुँचा देता है।

प्रकृति मौन है, लेकिन उसका मौन ही सबसे गहरी भाषा है। फूल जब खिलता है, वह उपदेश नहीं देता – लेकिन उसकी सुगंध तुम्हारे अंतरतम को छू जाती है। यही ध्यान है, यही साधना है – प्रकृति के साथ एक हो जाना। कोई प्रयास नहीं, कोई तनाव नहीं – बस समर्पण।

प्रकृति तुम्हारे भीतर है, और बाहर भी। जब तुम भीतर से शांत होते हो, तब बाहर की हरियाली तुम्हारे भीतर उतरने लगती है। उस क्षण तुम ईश्वर के सबसे करीब होते हो – क्योंकि प्रकृति और ईश्वर अलग नहीं हैं।"**

~~~ *OSHO*

Tuesday, 15 April 2025

जीवेष्णा - ओशो

|| जीवेष्णा ||
मैंने सुना है, इजिप्त में एक आश्रम था। और उस आश्रम में आश्रम के नीचे ही मरघट था। जमीन को खोद कर नीचे मरघट बनाया था। हजारों वर्ष पुराना आश्रम था। मीलों तक नीचे जमीन खोद कर उन्होंने कब्रगाह बनाई हुई थी। जब कोई भिक्षु मर जाता, तो पत्थर उखाड? कर, उस नीचे के मरघट में डाल कर चट्टान बंद कर देते थे। एक बार एक भिक्षु मरा। लेकिन कुछ भूल हो गई। वह मरा नहीं था, सिर्फ बेहोश हुआ था। उसे मरघट में नीचे डाल दिया। चट्टान बंद हो गई। पांच-छह घंटे बाद उस मौत की दुनिया में उसकी आंखें खुलीं, वह होश में आ गया। उसकी मुसीबत हम सोच सकते हैं! सोच लें कि हम उसकी जगह हैं। वहां लाशें ही लाशें हैं सड़ती हुई, दुर्गंध, हड्डियां, कीड़े-मकोड़े, अंधकार, और उस भिक्षु को पता है कि जब तक अब और कोई ऊपर न मरे, तब तक चट्टान का द्वार न खुलेगा। और उसे यह भी पता है कि अब वह कितना ही चिल्लाए...चिल्लाया, जानते हुए भी चिल्लाया कि आवाज ऊपर तक नहीं पहुंचेगी...क्योंकि आश्रम मील भर दूर है। और मरघट पर तभी आते हैं आश्रम के लोग जब कोई मरता है। और बड़ी चट्टान से द्वार बंद है। फिर भी, जानते हुए... हम भी बहुत बार जानते हुए चिल्लाते हैं, जानते हुए कि आवाज नहीं पहुंचेगी। मंदिरों में लोग चिल्ला रहे हैं, जानते हुए कि आवाज कहीं भी नहीं पहुंचेगी। हम सब चिल्ला रहे हैं जानते हुए कि आवाज नहीं पहुंचेगी। आदमी जानते हुए भी चिल्लाए चला जाता है, जहां आशा नहीं है वहां भी आशा किए चला जाता है। वह आदमी बहुत चिल्लाया, चिल्लाया, उसका गला लग गया, आवाज निकलनी बंद हो गई। शायद हम सोचेंगे कि उस आदमी ने आत्महत्या कर ली होगी। लेकिन नहीं, उस आदमी ने आत्महत्या नहीं की। वह आदमी थोड़े-बहुत दिन नहीं, सात साल उस कब्र के भीतर जिंदा रहा। वह कैसे जिंदा रहा? उसने सड़ी हुई लाशों को खाना शुरू कर दिया। उसने कीड़े-मकोड़े, जो लाशों में पलते थे, उनको खाना शुरू कर दिया। मरघट की दीवालों से नालियों का जो पानी चूता था, वह चाट कर पीने लगा। इस प्रतीक्षा में कि कभी न कभी तो कोई मरेगा ही। द्वार तो खुलेगा ही। आज नहीं कल, कल नहीं परसों। कब सूरज उगता, उसे पता न चलता; कब रात आती, उसे पता न चलता। सात साल बाद कोई मरा, चट्टान उठाई गई, तो वह आदमी बाहर निकला। और वह खाली बाहर नहीं निकला। इजिप्त में रिवाज है कि मरने वाले आदमियों को नये कपड़े पहना दिए जाते और उनके साथ दो-चार कपड़े कीमती रख दिए जाते, कुछ पैसे-रुपये भी रख दिए जाते। तो उसने सब मुर्दों के कपड़े और पैसे इकट्ठे कर लिए थे, जब निकलेगा तो लेता चला जाएगा। तो वह एक बड़ी पोटली बांध कर कपड़े और एक बड़ी थैली में सब रुपये भर कर बाहर आया। उसे तो कोई पहचान ही नहीं सका, मरघट पर जो लोग आए थे वे तो घबड़ा कर भागने लगे कि वह कौन है! उसके बाल जमीन छूने लगे थे, उसकी आंखों की पलकें इतनी बड़ी हो गई थीं कि आंख नहीं खुलती थी। उसने कहा, भागते हो? पहचाने नहीं? मैं वही हूं जिसे तुम सात साल पहले नीचे डाल गए थे। उन्होंने कहा, लेकिन तुम जिंदा कैसे रहे? अगर छह घंटे बाद होश में भी आ गए थे तो बचे कैसे? तुमने आत्महत्या न कर ली! सात साल तुम इस मरघट में रहे कैसे? उस आदमी ने कहा, मरना इतना आसान तो नहीं है! मैं भी सोचता था। मैं भी यही सोचता, अगर कोई और उस मरघट में गिरा होता, तो मैं भी यही सोचता कि पागल, जीने की बजाय मर जाते! लेकिन अब मैं कह सकता हूं: मरना इतना आसान नहीं है। मैंने जीने की पूरी कोशिश की। और जीने के लिए मैंने जो भी किया है वह भी घबड़ाने वाला है। आज अगर फिर से सोचूं तो शायद न कर पाऊं। हम भी सोचेंगे कि वह आदमी कैसा आदमी रहा होगा! लेकिन वह आदमी ठीक हमारे जैसा आदमी था। हम भी उसकी जगह होते तो यही करते। और जिसे हम जिंदगी कह रहे हैं, क्या वह जिंदगी उस मरघट से बहुत भिन्न है? और जिसे हम भोजन कह रहे हैं, क्या वह उस मरघट में किए गए भोजन से बहुत भिन्न है? और जिसे हम कपड़े और रुपये का इकट्ठा करना कह रहे हैं, वह भी क्या मुर्दों से छीने गए रुपये और कपड़े नहीं हैं? बाप बूढ़ा हो गया हो, तो चाहे बच्चे कहें या न कहें, सोचते हैं कि विदा हो जाए। वे मुर्दे के कपड़े और पैसे छीनने के लिए उत्सुक हैं। राष्ट्रपति को शुभकामनाएं भी देते हैं लोग। उपराष्ट्रपति जन्मदिन पर जाकर फूलमालाएं भी चढ़ाते हैं और मन में भगवान से जाने-अनजाने प्रार्थना भी करते हैं: कब तक टिके रहिएगा? क्योंकि वे विदा हों तो उनकी मरी हुई कुर्सी किसी को, कोई उस पर सवार हो जाए। इसलिए दिल्ली में कोई मरता है, तो जो लोग चेहरे आंसू लिए हुए मरघट की तरफ ले जाते मालूम पड़ते हैं, वे ही तैयारी भी कर रहे होते हैं उसी वक्त कि कौन उसकी मरी हुई कुर्सी पर बैठ जाए। कहीं ऐसा न हो कि दूसरा बैठ जाए। बल्कि मरघट पर ले जाते वक्त भी इस बात की होड़ रहती है कि मुर्दे को सबसे पहले कौन हाथ दे रहा है, क्योंकि उसका कुर्सी पर कब्जा हो सकता है। मैंने सुना है कि गांधी मरे तो जिस टैंक पर चढ़ा कर उनको ले जाया गया था उस पर भी खड़े होने की प्रतियोगिता थी कि कौन-कौन नेता उस पर खड़े हो जाएं। क्योंकि दुनिया उनको देख ले कि वसीयतदार कौन है! यह जिसको हम जिंदगी कहते हैं, यह भी एक बड़ा मरघट है, जिसमें क्यू है मरने वालों का। कोई अभी मरेगा, कोई थोड़ी देर बाद, कोई फिर थोड़ी देर बाद, कोई कल, कोई परसों, लेकिन सब मरेंगे। और इसमें जो मकान हैं हमारे पास, वे मुर्दों से छीने गए हैं, और जो कपड़े हैं वे भी, और जो धन है वह भी। और यहां भी हम जी रहे हैं बिना किसी आनंद को जाने, बिना किसी शांति को पाए, लेकिन सिर्फ एक आशा में कि शायद कल शांति मिले, कल आनंद मिले, कल कुछ मिल जाए। तो कल तक तो जीने की कोशिश करो। किसी भी भांति कल तक जी लो। कल शायद कुछ मिल जाए। लेकिन मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि जो मरने के लिए तैयार नहीं है, उसे कभी कुछ न मिल सकेगा। और हम बहुत बार मरे हैं। लेकिन हम मरने से इतने भयभीत हैं कि मरने के बहुत पहले बेहोश हो जाते हैं। इसलिए हमें मृत्यु की कोई याद नहीं रह जाती। हम बहुत बार मरे हैं और बहुत बार जन्मे हैं, लेकिन हर बार मरने और जन्मने की क्रिया इतनी ज्यादा हमें डरा देती है कि हम बेहोशी में ही पैदा होते हैं और बेहोशी में ही मरते हैं। इसलिए उसकी मेमोरी, उसकी स्मृति नहीं बन पाती और गैप पड़ जाता है। इसलिए पिछले जन्म की भी स्मृति हमें नहीं रह जाती। पिछले जन्म की स्मृति न रह जाने का और कोई कारण नहीं है, पिछले जन्म की स्मृति न रह जाने का एक ही कारण है कि बीच में आई मृत्यु, और मृत्यु में हम इतने भयभीत हो गए कि बेहोश हो गए। और उस बेहोशी का जो अंतराल है, उसने स्मृति को दो हिस्सों में तोड़ दिया। पिछली स्मृति अलग टूट गई, यह स्मृति अलग टूट गई। इतना बड़ा बीच में गैप, अंतराल पड़ गया कि दोनों को जोड़ना मुश्किल है।

  ओशो♣♣♣♣

जिसकी जैसी भावना

.                      “जिसकी जैसी भावना”

           एक बार एक सन्त कहीं प्रवचन दे रहे थे। अपने प्रवचन खत्म करते हुए उन्होंने आखिर में कहा–‘जागो, समय हाथ से निकला जा रहा है।’ सभा विसर्जित होने के बाद उन्होंने अपने शिष्य से कहा–‘चलो थोड़ी दूर घूम कर आते हैं। गुरु-शिष्य के साथ चल दिए। अभी वे पण्डाल के मुख्य दरवाजे तक ही पहुँचे थे कि एक किनारे रुक कर खड़े हो गए।
           प्रवचन सुनने आए लोग एक-एक कर बाहर निकल रहे थे। इसलिए भीड़-सी हो गई थी। अचानक उसमें से निकल कर एक स्त्री सन्त से मिलने आई। 
           औरत ने कहा–‘मैं नर्तकी हूँ। आज नगर सेठ के घर मेरे नृत्य का कार्यक्रम पहले से तय था, लेकिन मैं उसके बारे में भूल चुकी थी। आपने कहा, समय निकला जा रहा है तो मुझे तुरन्त इस बात की याद आई।’ उसके जाने के बाद एक डकैत सन्त की ओर आया।
           डकैत ने कहा–‘मैं आपसे कोई बात छिपाऊँगा नहीं। मैं भूल गया था कि आज मुझे एक जगह डाका डालने जाना था कि आपने कहा, समय निकला जा रहा है, यह सुनते ही मुझे अपनी योजना याद आ गई। बहुत-बहुत धन्यवाद आपका।’ उसके जाने के बाद धीरे-धीरे चलता हुआ एक बूढ़ा व्यक्ति सन्त के पास आया।
           वृद्ध ने कहा–‘जिन्दगी भर दुनियादारी की चीजों के पीछे भागता रहा। अब मौत का सामना करने का दिन नजदीक आता जा रहा है, तब मुझे लगता है कि सारी जिन्दगी यूँ ही बेकार हो गई। आपकी बातों से आज मेरी आँखें खुल गईं। आज से मैं अपने सारे दुनियारी का मोह छोड़कर भगवान् का भजन करना चाहता हूँ।’ 
           सबके जाने पर सन्त ने शिष्य से कहा–‘देखो प्रवचन मैंने एक ही दिया, लेकिन उसका मतलब सबने अलग-अलग निकाला। जिसकी जितनी झोली होती है, उतना ही दान वह समेट पाता है। भगवान् की प्राप्ति के लिए भी मन की झोली को उसके लायक होना होता है। इसके लिए मन का शुद्ध होना बहुत जरूरी है।
                           Jai Gurudev

Monday, 14 April 2025

Ma Kali and Ma Anandmayi

"In 1930, a strange incident happened when Ma was staying for a short period at Cox Bazaar (now in Bangladesh) which was far away from Dhaka. Ma behaved strangely in one night when She began twisting Her own hand with the other and said She was going to break it. However, Ma was stopped doing-so by devotees  forcefully, holding Her hand firmly. Though a divine smile flitted on Her face, Her eyes were full of tears. The whole night Ma was in a strange condition. Few days later, a letter was received written by Bhaiji from Dhaka, which revealed that a thief had broken into the temple of Ramna Ashram and had stolen a gold ornaments with breaking one hand of the murti of Ma Kali. It was found that it all happened at the same moment, when Ma intended to break her hand exactly at the same point where Ma Kali's hand was broken. Later, when restoration of the broken hand was taken up by using some clay, Ma contributed few drops of her blood to be mixed in that clay. It was one of the many unique  incidents revealing again that MA and Kali were the same."

नारियल की तीन आँखें: एक आध्यात्मिक और ब्रह्मांडीय दृष्टिकोण

नारियल की तीन आँखें: एक आध्यात्मिक और ब्रह्मांडीय दृष्टिकोण                           ● • (भाग-४) ● •  ● गुरु पूर्णिमा का दिन सन...