एक बार एक सन्त कहीं प्रवचन दे रहे थे। अपने प्रवचन खत्म करते हुए उन्होंने आखिर में कहा–‘जागो, समय हाथ से निकला जा रहा है।’ सभा विसर्जित होने के बाद उन्होंने अपने शिष्य से कहा–‘चलो थोड़ी दूर घूम कर आते हैं। गुरु-शिष्य के साथ चल दिए। अभी वे पण्डाल के मुख्य दरवाजे तक ही पहुँचे थे कि एक किनारे रुक कर खड़े हो गए।
प्रवचन सुनने आए लोग एक-एक कर बाहर निकल रहे थे। इसलिए भीड़-सी हो गई थी। अचानक उसमें से निकल कर एक स्त्री सन्त से मिलने आई।
औरत ने कहा–‘मैं नर्तकी हूँ। आज नगर सेठ के घर मेरे नृत्य का कार्यक्रम पहले से तय था, लेकिन मैं उसके बारे में भूल चुकी थी। आपने कहा, समय निकला जा रहा है तो मुझे तुरन्त इस बात की याद आई।’ उसके जाने के बाद एक डकैत सन्त की ओर आया।
डकैत ने कहा–‘मैं आपसे कोई बात छिपाऊँगा नहीं। मैं भूल गया था कि आज मुझे एक जगह डाका डालने जाना था कि आपने कहा, समय निकला जा रहा है, यह सुनते ही मुझे अपनी योजना याद आ गई। बहुत-बहुत धन्यवाद आपका।’ उसके जाने के बाद धीरे-धीरे चलता हुआ एक बूढ़ा व्यक्ति सन्त के पास आया।
वृद्ध ने कहा–‘जिन्दगी भर दुनियादारी की चीजों के पीछे भागता रहा। अब मौत का सामना करने का दिन नजदीक आता जा रहा है, तब मुझे लगता है कि सारी जिन्दगी यूँ ही बेकार हो गई। आपकी बातों से आज मेरी आँखें खुल गईं। आज से मैं अपने सारे दुनियारी का मोह छोड़कर भगवान् का भजन करना चाहता हूँ।’
सबके जाने पर सन्त ने शिष्य से कहा–‘देखो प्रवचन मैंने एक ही दिया, लेकिन उसका मतलब सबने अलग-अलग निकाला। जिसकी जितनी झोली होती है, उतना ही दान वह समेट पाता है। भगवान् की प्राप्ति के लिए भी मन की झोली को उसके लायक होना होता है। इसके लिए मन का शुद्ध होना बहुत जरूरी है।
Jai Gurudev
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