Wednesday, 21 October 2020

श्रीरामकृष्ण - लीला संवरण

" लीला संवरण "
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        महासमाधि के आठ नौ रोज पहले श्रीरामकृष्ण ने  योगीन से बंगला पंचांग से 25 श्रावण ( 9 अगस्त ) के आगे के दिन पढ़ने के लिए कहा ।  योगीन जब पढ़ते हुए श्रावण मास की अन्तिम तिथि तक पहुँचे , तो उन्होंने इशारे से बतलाया कि वे अब और नहीं सुनना चाहते ।  इसके चार पाँच दिन बाद उन्होंने नरेन्द्र को अपने पास बुलाया । कमरे में और दूसरा कोई न था । उन्होंने नरेन्द्र को अपने  सामने बैठने के लिए कहा और उनकी ओर निर्निमेष दृष्टि से देखते हुए वे समाधि में मग्न हो गये ।  नरेंद्र ने अपने शरीर के भीतर विद्युत के झटके की नाई सूक्ष्म शक्ति को प्रवेश करते अनुभव किया ।  धीरे धीरे वे भी बाह्य चेतना खो बैठे ।  उन्हें स्मरण नहीं रहा कि वे वहाँ कितनी देर बैठे रहे ।  जब उनकी सामान्य चेतना लौटी ,  तो उन्होंने श्रीरामकृष्ण को अश्रुपूरित नेत्रों से देखते पाया ।  श्रीरामकृष्ण ने उनसे कहा , " आज मैं तुझे सब कुछ देकर फकीर हो गया ! इस शक्ति के द्वारा तू संसार का महान कल्याण करेगा और तभी तू वापस जा सकेगा । "  इस तरह श्रीरामकृष्ण ने नरेंद्र के भीतर अपनी सारी शक्ति संचारित कर दी और गुरु तथा शिष्य एक अभिन्न आत्मा हो गये ।
              इसके दो  ही दिन  नरेन्द्र के मन में श्रीरामकृष्ण की उस उक्ति को कि वे  अवतार हैं ,  परीक्षा की कसौटी पर कसने का विचार  उदित हुआ ।  उन्होंने अपने मन में सोचा ,  " यदि ऐसी भयानक शारीरिक यंत्रणा के बीच  वे अपने  अवतारत्व  की  घोषणा करें , तब मैं  विश्वास करूँगा ।"  आश्चर्य की बातहै ,  नरेन्द्र के मन में इस विचार का उठना ही था कि श्रीरामकृष्ण अपनी सारी शक्ति संचित कर स्पष्ट शब्दों में बोल उठे , ' जो राम था ,  जो कृष्ण  था ,  वही  इस  शरीर  में  रामकृष्ण  हुआ है --- किन्तु तेरे वेदान्त की दृष्टि से नहीं । '  इतने रहस्योद्घाटनों के बावजूद  श्रीरामकृष्ण  के प्रति  मेरी शंका बनी रही ,  यह सोच  नरेन्द्र लज्जा और अनुताप  से  गड़  गये ।
                  अन्त में भक्तों कि वह हृदय-विदारक  दिवस आ पहुँचा ।  उस दिन रविवार था , 15 अगस्त , 1886 :  श्रावण मास का  अन्तिम दिन ।  श्रीरामकृष्ण  की  पीड़ा  चरम  पर  थी ।  भक्त गण  व्यथित  हो  रो  रहे  थे  ।  वे  उनके  बिस्तरे  के  चारों  ओर  खड़े  थे ।  संध्या  के  समय  श्रीरामकृष्ण  अचानक  समाधि  में  मग्न  हो  गये ।  उनका  शरीर  जड़  हो  गया ।  शशि  को यह  समाधि  कुछ  असामान्य  सी  प्रतीत  हुई  और  वे  रोने  लगे ।  मध्यरात्रि  के  पश्चात  श्रीरामकृष्ण  की  बाह्य चेतना  लौटी ।  उन्होंने  स्पष्ट  शब्दों  में  तीन  बार  काली  का  नाम  उच्चारित  किया  और  धीरे  से  लेट  गये ।  रात्रि  के  एक  बजकर  दो  मिनट  पर  उनका  शरीर रोमांचित  हो  उठा ,  बाल  खड़े  हो  गये ,  नेत्र  नासिका के  अग्रभाग  पर  केन्द्रित  हो  गये तथा   मुखमंडल  मुस्कान  से  खिल  उठा ।   श्रीरामकृष्ण   महासमाधि  में  लीन  हो  गये ।  इस  प्रकार  सोमवार ,  16  अगस्त 1886  को  ब्राह्ममुहुर्त  में  अपने  भक्तों  और  स्नेहियों  को  दु:खसागर  में  डुबा  वे  इस  जगत्  से  महाप्रयाण  कर  गये ।
                  पाँच  बजे  उनकी  पूत  देह  को  नीचे  लाकर  खाट  पर  रखा  गया ।  उसे  गेरुआ  वस्त्र  पहनाकर  चन्दन - लेप  और  फूलों  से. सजाया  गया ।  एक  घंटे  पश्चात  देह  को  भजन -  कीर्तन  के  साथ  काशीपुर  श्मशान  घाट  ले  जाया  गया ।  महाप्रयाण  की  इस  यात्रा  को  देख  दर्शकों  के  आंसू  बहने  लगे । देह  चिता  पर  लिटा  दी  गयी  और  कुछ  ही  घंटों  में  सब  कुछ  शेष  हो  गया ।
                   श्मशान  घाट  से  बिदा  लेते  समय  भक्तों का  हृदय  आत्मसमर्पण  की  एक  अपूर्व  शान्त  भावना से  पूरित  हो  उठा ,  क्योंकि  सभी  को  ऐसा  अनुभव  हुआ  कि  श्रीरामकृष्ण  उनके   अन्त:करण  में  सर्वदा  विद्यमान  हैं ।  वे ,  उनके  प्रभु ,  जैसे  भौतिक  देह  में  थे ,  ठीक  वैसे  ही  अपार्थिव  अवस्था  में  भी  विराजित  हैं ।  उनके  ही  शब्दों  में ,  मानो  उन्होंने  केवल  एक  कमरे  से  दूसरे  में  प्रवेश  किया  है ।  भक्तों  ने  श्रीरामकृष्ण  देव  की  जय का  नारा  लगाते  हुए  वे  काशीपुर  उद्यान  लौट  आये ।
      -- " श्रीरामकृष्ण ( संक्षिप्त जीवनी से साभार )

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