" लीला संवरण "
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महासमाधि के आठ नौ रोज पहले श्रीरामकृष्ण ने योगीन से बंगला पंचांग से 25 श्रावण ( 9 अगस्त ) के आगे के दिन पढ़ने के लिए कहा । योगीन जब पढ़ते हुए श्रावण मास की अन्तिम तिथि तक पहुँचे , तो उन्होंने इशारे से बतलाया कि वे अब और नहीं सुनना चाहते । इसके चार पाँच दिन बाद उन्होंने नरेन्द्र को अपने पास बुलाया । कमरे में और दूसरा कोई न था । उन्होंने नरेन्द्र को अपने सामने बैठने के लिए कहा और उनकी ओर निर्निमेष दृष्टि से देखते हुए वे समाधि में मग्न हो गये । नरेंद्र ने अपने शरीर के भीतर विद्युत के झटके की नाई सूक्ष्म शक्ति को प्रवेश करते अनुभव किया । धीरे धीरे वे भी बाह्य चेतना खो बैठे । उन्हें स्मरण नहीं रहा कि वे वहाँ कितनी देर बैठे रहे । जब उनकी सामान्य चेतना लौटी , तो उन्होंने श्रीरामकृष्ण को अश्रुपूरित नेत्रों से देखते पाया । श्रीरामकृष्ण ने उनसे कहा , " आज मैं तुझे सब कुछ देकर फकीर हो गया ! इस शक्ति के द्वारा तू संसार का महान कल्याण करेगा और तभी तू वापस जा सकेगा । " इस तरह श्रीरामकृष्ण ने नरेंद्र के भीतर अपनी सारी शक्ति संचारित कर दी और गुरु तथा शिष्य एक अभिन्न आत्मा हो गये ।
इसके दो ही दिन नरेन्द्र के मन में श्रीरामकृष्ण की उस उक्ति को कि वे अवतार हैं , परीक्षा की कसौटी पर कसने का विचार उदित हुआ । उन्होंने अपने मन में सोचा , " यदि ऐसी भयानक शारीरिक यंत्रणा के बीच वे अपने अवतारत्व की घोषणा करें , तब मैं विश्वास करूँगा ।" आश्चर्य की बातहै , नरेन्द्र के मन में इस विचार का उठना ही था कि श्रीरामकृष्ण अपनी सारी शक्ति संचित कर स्पष्ट शब्दों में बोल उठे , ' जो राम था , जो कृष्ण था , वही इस शरीर में रामकृष्ण हुआ है --- किन्तु तेरे वेदान्त की दृष्टि से नहीं । ' इतने रहस्योद्घाटनों के बावजूद श्रीरामकृष्ण के प्रति मेरी शंका बनी रही , यह सोच नरेन्द्र लज्जा और अनुताप से गड़ गये ।
अन्त में भक्तों कि वह हृदय-विदारक दिवस आ पहुँचा । उस दिन रविवार था , 15 अगस्त , 1886 : श्रावण मास का अन्तिम दिन । श्रीरामकृष्ण की पीड़ा चरम पर थी । भक्त गण व्यथित हो रो रहे थे । वे उनके बिस्तरे के चारों ओर खड़े थे । संध्या के समय श्रीरामकृष्ण अचानक समाधि में मग्न हो गये । उनका शरीर जड़ हो गया । शशि को यह समाधि कुछ असामान्य सी प्रतीत हुई और वे रोने लगे । मध्यरात्रि के पश्चात श्रीरामकृष्ण की बाह्य चेतना लौटी । उन्होंने स्पष्ट शब्दों में तीन बार काली का नाम उच्चारित किया और धीरे से लेट गये । रात्रि के एक बजकर दो मिनट पर उनका शरीर रोमांचित हो उठा , बाल खड़े हो गये , नेत्र नासिका के अग्रभाग पर केन्द्रित हो गये तथा मुखमंडल मुस्कान से खिल उठा । श्रीरामकृष्ण महासमाधि में लीन हो गये । इस प्रकार सोमवार , 16 अगस्त 1886 को ब्राह्ममुहुर्त में अपने भक्तों और स्नेहियों को दु:खसागर में डुबा वे इस जगत् से महाप्रयाण कर गये ।
पाँच बजे उनकी पूत देह को नीचे लाकर खाट पर रखा गया । उसे गेरुआ वस्त्र पहनाकर चन्दन - लेप और फूलों से. सजाया गया । एक घंटे पश्चात देह को भजन - कीर्तन के साथ काशीपुर श्मशान घाट ले जाया गया । महाप्रयाण की इस यात्रा को देख दर्शकों के आंसू बहने लगे । देह चिता पर लिटा दी गयी और कुछ ही घंटों में सब कुछ शेष हो गया ।
श्मशान घाट से बिदा लेते समय भक्तों का हृदय आत्मसमर्पण की एक अपूर्व शान्त भावना से पूरित हो उठा , क्योंकि सभी को ऐसा अनुभव हुआ कि श्रीरामकृष्ण उनके अन्त:करण में सर्वदा विद्यमान हैं । वे , उनके प्रभु , जैसे भौतिक देह में थे , ठीक वैसे ही अपार्थिव अवस्था में भी विराजित हैं । उनके ही शब्दों में , मानो उन्होंने केवल एक कमरे से दूसरे में प्रवेश किया है । भक्तों ने श्रीरामकृष्ण देव की जय का नारा लगाते हुए वे काशीपुर उद्यान लौट आये ।
-- " श्रीरामकृष्ण ( संक्षिप्त जीवनी से साभार )
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