श्रीमाँ का दक्षिणेश्वर में ,ठाकुर के समीप सर्वप्रथम
आगमन ई.सन 1872 में हुआ था। तब से लेकर 15 अगस्त 1886 ,उनके देहावसान तक के 15 वर्षों को उनके जीवन का कठोर 'साधना-काल' कहा जा सकता है। उस समय श्रीरामकृष्ण की सेवा ही उनके लिए सबसे अधिक तीव्र साधना थी। इसके समक्ष उनकी बाद की, वृंदावन तथा बेलुड़ में अनुष्ठित 'पंचतपा' आदि साधनाएं भी फीकी पड़ जाती हैं। उक्त साधना-काल में 'विश्वमातृत्व' के विकास के लिए आविर्भूत श्रीमाँ को हम एक 'आदर्श पत्नी' के रूप में देखते हैंं।.. श्रीमाँ ने स्वयं कहा था--"संसार में मातृभाव के विकास के लिए ही वे ,मुझे अबकी बार छोड़ गए हैं।"..
श्रीरामकृष्ण के अंतरंग शिष्य स्वामी प्रेमानंदजी ने एक बार आवेगपूर्वक कहा था --"श्रीमाँ शक्तिरूपिणी हैं, इसीलिए उनमें छिपाने की शक्ति असीम है।श्रीरामकृष्ण प्रयत्न करने पर भी छिपाने में सफल नहीं होते थे। उनकी आंतरिक दशा का बाह्यप्रकाश हो ही जाता था। पर माँ जब भावाविष्ट होती हैं ,उस समय क्या किसी को कुछ पता चलता है?" वे सहज ही भावराज्य में विलास और नित्य-लीला संपन्न कर सकती थीं।"..
श्रीरामकृष्ण आदर्श पति थे। सेवा को माध्यम बनाकर उन दोनों का नित्यमिलन हुआ था एवं उसी साधना के द्वारा उनमें अभेदज्ञान का विकास हुआ था।श्रीमाँ ने आगे चलकर अपने शरीर की ओर संकेत करते हुए कहा था; "इसके अंदर सूक्ष्म शरीर से वे ही विद्यमान हैं। ठाकुर ने स्वयं कहा है ,"मैं तुम्हारे अंदर ,सूक्ष्म शरीर में रहूंगा।"...
श्रीमाँ ने ठाकुर को 'सर्वदेवदेवीस्वरूप' माना था।वे ही उनके गुरु ,इष्ट ,पुरुष ,प्रकृति--सब कुछ थे। उनकी यह अनुभूति थी कि ठाकुर में ही सारे देवी देवता थे,यहां तक कि शीतला,
मनसा, आदि तक।..वे श्रीरामकृष्ण को सब देवी देवताओं के साथ अभिन्न रूप से देखती थीं।
बहुत दिनों बाद की एक घटना है-- "तब श्रीमाँ ,उद्बोधन कार्यालय में थीं। एक सन्यासी पुजारी दो अलग-अलग पात्रों में श्रीसिद्धेश्वरी देवी एवं श्रीठाकुर का चरणामृत लेकर आये । श्रीमाँ ने उनसे कहा,"दोनों एक ही हैं ,मिला दो।" दोनों देवताओं का चरणामृत एक साथ मिलाकर उन्होंनेे ग्रहण किया।
ॐ,
No comments:
Post a Comment