श्रीमाँ के बाल्यजीवन में साधनानुष्ठान ,आध्यात्मिक
अनुभूति ,अथवा भावसमाधि होने के विषय में कोई विवरण नहीं मिलता। उनका तो ग्रामीण वातावरण में लालन -पालन हुआ था तथा उसी वातावरण में वे निबद्ध थीं। 19 वर्ष की उम्र में जब वे दक्षिणेश्वर के कालीमंदिर में पधारीं तभी
षोडशीपूजा' की रात्रि में वे प्रथम बार समाधिस्थ हुई थीं। इस रात्रिपूजा के बाद ही मानों श्रीमाँ के आध्यात्मिक जीवन का प्रथम उन्मेष हुआ था।
श्रीरामकृष्णदेव के साधन-जीवन का धारावाहिक इतिहास
साधारणतया प्राप्य है। किंतु श्रीमाँ के जीवन की बहुत सी घटनाओं की तरह, उनके 'साधन-जीवन' का इतिहास भी अज्ञात है।श्रीमाँ स्वयं ही नित्यसिद्धा हैं,उनके लिए साधना का प्रयोजन ही क्या है?... इसी बात की व्याख्या करते हुए 'महापुरुष महाराज' ने श्रीमाँ के संबंध में किसी भक्त को
दि.12/08/1920 को एक पत्र में लिखा था--"वे साधारण मानवी नहीं है; न तो वे साधिका ही है और न सिद्धा। वे नित्यसिद्धा हैं--उस आद्याशक्ति की ही अंशस्वरूप हैं।"..
जयरामवाटी में अपने अंतिम दिनों में श्रीमाँ ने किसी मुमुक्षु भक्त से यह सार बात कही थी,"आप होकर माया के हाथ से मुक्त होने की सामर्थ्य मनुष्य में कहां है? इसीलिए तो ठाकुर ने इतनी साधनाएं की और उनका सारा फल जीवों के उद्धार के लिए दे गए।"...ऐसा प्रतीत होता है ,श्रीमाँ को जीवों के उद्धार कार्य में संलग्न करने से पूर्व श्रीरामकृष्ण ने उन्हें विभिन्न मंत्रों तथा साधनतत्वों के बारे में शिक्षाएं प्रदान की थीं। तभी तो उन्होंने मुक्त ह्रदय से आध्यात्मिक शक्ति का वितरण किया था और लोगों को मुक्ति का मार्ग बतलाया था।
श्रीमाँ अपने कृपापात्र के कल्याण के लिए स्वतः प्रवृत्त हो जाती थीं।उनके अंतिम जीवन की ,एक घटना है--"एक दिन कलकत्ते की बागबाजार आश्रम में किसी ब्रह्मचारी ने अश्रुमुख हो श्रीमाँ को साधन-भजन संबंधीअपनी अक्षमता बतलाते हुए उनकी कृपाप्राप्ति के लिए अत्यंत अनुनय-विनय किया तब करुणामयी माँ ने उसे अभय देते हुए कहा--"हां बेटा ,मेरे करने से ही तुम्हारा हो जाएगा।"...जीवों के कल्याण के निमित्त ही उनका साधन-अनुष्ठान था अन्यथा उन्हें अपने लिए साधन की कोई आवश्यकता ही नहीं थी।
ॐ,
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