उत्तर- जब तक ईश्वर का ज्ञान नहीं होता तब तक मिथ्या है, जब तक मनुष्य उन्हें भूल कर, मैं -मेरा करते हुए माया में बद्ध होकर कामिनी, कांचन के मोह में मुग्ध होकर संसार में और भी डूबता जाता है। माया के कारण मनुष्य इतना अंधा हो जाता है कि जाल में से भागने का रास्ता रहने पर भी नहीं भाग पाता। तुम लोग तो स्वयं ही देखते हो कि संसार कैसा अनित्य है। देखो न यहां कितने लोग आए और चले गए। पैदा हुए और कितने मर मिटे। संसार इस क्षण है तो दूसरे ही क्षण नहीं। यह अनित्य है। जिन्हें तुम इतना मेरा मेरा कह रहे हो तुम्हारे आंखें बंद करते ही वे कोई नहीं रहेंगे। संसार में कोई नहीं है फिर भी इतनी आसक्ति कि नाती के लिए काशी यात्रा नहीं हो पाती। कहते हैं मेरे बेटे हरि का क्या होगा? जाल में से निकलने की राह खुली है; फिर भी मछली भाग नहीं सकती। रेशम का कीड़ा अपने ही लार से कोष बनाकर उसमें फंस कर जान गवा देता है। संसार इस प्रकार मिथ्या है, अनित्य है।
अहंकार को कैसे दूर करना चाहिए जानते हो? चावल कांड़ते समय बीच-बीच में रुक कर देखना पड़ता है। यदि कांड़ना ठीक नहीं हुआ तो फिर कांड़ना पड़ता है। निकती पर कोई वस्तु तौलते समय, जब तक कांटा ठीक न हो तब तक ठहर कर देखना पड़ता है। मैं समय-समय पर अपनेको गालियां देकर देखता था कि मुझ में अहंकार उठता है या नहीं और विचार करता था भला यह शरीर क्या है, सिर्फ हाड़ मांस का ढांचा। इसके अंदर क्या है खून, पीप, गंदी चीजें। जिस शरीर के भीतर सदा मल भरा हुआ है, उस पर भला इतना अहंकार क्यों किया जाए।
मान लो हण्डी में चावल पक रहा है। चावल पका है कि नहीं यह देखने के लिए तुम उसमें से एक ही सीथ लेकर उसे दबा कर देखते हो और उसी पर से समझ लेते हो कि चावल पका है या नहीं। तुम चावल के सभी सीथों को एक-एक करके परखकर नहीं देखते; फिर भी यह समझ लेते हो। यहां जिस प्रकार पूरा चावल पक चुका है या कच्चा है यह एक सीथ को देखकर तुम समझ लेते हो, उसी प्रकार यह संसार सत्य है या असत्य, नित्य है या अनित्य यह भी तुम संसार की दो-चार वस्तुओं को परख कर ही जान सकते हो। मनुष्य जन्मता है कुछ दिन जीता है फिर मर जाता है। पशु का भी यही हाल होता है और वृक्ष का भी। विचार करके देखने पर तुम्हारी समझ में आ जाता है। जो भी वस्तु नाम और रूप से युक्त है उसकी यही गति है। पृथ्वी, सूर्यलोक, चंद्रलोक सभी के नाम और रूप हैं, उनकी भी गति यही है। इस प्रकार जब तुम जान जाते हो कि सारे संसार का यही स्वभाव है, तब तुम्हें संसार की सभी वस्तुओं का स्वभाव ज्ञात हो जाता है या नहीं? इसी तरह जब तुम संसार को सचमुच अनित्य असद् अनुभव करोगे तब तुम उस पर प्यार नहीं कर सकोगे, तब तुम उसे बिल्कुल मन से त्याग कर वासना रहित बन जाओगे। जब तुम इस प्रकार पूर्ण त्याग करने में समर्थ हो जाओगे, तभी तुम जगत कारण परमेश्वर के दर्शन पाओगे। इस तरह से जिसने ईश्वर दर्शन प्राप्त कर लिया है, वह व्यक्ति यदि सर्वज्ञ नहीं हुआ तो फिर क्या हुआ?
श्री रामकृष्ण देव अमृतवाणी से
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