Wednesday, 22 February 2023

भूमिपूजन

अपने यहां एक परंपरा है- भूमिपूजन होता है। शुद्ध धरम के रास्ते क्या भूमिपूजन होता है -भूमि का सम्मान इसी तरह किया जाता है कि तपते हैं उस भूमि पर बैठकर । तप करके जो शुद्ध तरंगें पैदा करेंगे, इससे बढ़कर कोई धरती सम्मानित नही हो सकती, पूजित नही हो सकती । तो इसीलिए यहाँ तपे, तप करके भूमि का सम्मान किया। अधिक से अधिक धरम की तरंगें इस भूमि पर स्थापित हों, इस वातावरण में स्थापित हों ताकि अधिक से अधिक लोगों का कल्याण हो, यही भूमिपूजन है। यही भूमि का सम्मान है।

जो भी साधक अब तक यहाँ तपते रहे है, अपना मैल उतारते रहे हैं, जिसका थोड़ा भी मैल उतर जाता है मन में मंगल-मैत्री जागती ही है कि जैसे मेरा कल्याण हुआ, जैसी सुख-शांति मुझे मिली, थोड़ी-सी ही मिली, ऐसी सुख-शांति, अधिक से अधिक लोगों को मिले। अधिक से अधिक लोगों के करम-बंधन टूटें। अधिक से अधिक लोगों को मुक्ति का रास्ता मिले। ऐसा मंगलभाव मन में जागता है, कि मैं उसमें कैसे सहायक हो सकूं ! 
अनेक प्रकार से सहायक हो सकता है - जिसके पास जो शक्ति है. उस शक्ति के बल पर सहायक हो सकता है। शरीर की सेवा करके सहायक हो सकता है। वाणी द्वारा सहायक हो सकता है। किसी के पास धन है, धन द्वारा सहायक हो सकता है। पर उन सबसे बढ़कर एक बहुत बड़ी सहायता होती है, तपकर सहायक होता है।
पुराना साधक इस धरती पर जितना तपेगा उतना ही अनेक लोगों के मंगल का कारण बनेगा।

गुरुदेव के जीवनकाल में देखते थे – कि अनेक लोग ऐसे जो निर्वाणीक अवस्था तक पहुचे हुये और उस अवस्था तक जो पहुँचता है वह जब जी चाहे, जितने समय के लिए जी चाहे, निवृणिक अवस्था की अनुभूति करता है। ऋण से मुक्त होना है तो कैसे हो सकते हो? और लोग अपनी ओर से शरीर-श्रम का दान दे करके, धन का दान दे करके, अन्य प्रकार से सहायता करके, अपने-अपने ऋण से मुक्त होने का प्रयत्न करेंगे। लेकिन इतने अच्छे तापस के लिए तो यही उचित है कि कम से कम समाह में एक बार यहां आ जाया करो और किसी शून्यागार में बैठ करके एक घंटे की निर्वाणक समाधि लेकर चले जाया करो। बस, हो गया! कितनी बड़ी सेवा हो गयी। सारा का सारा आश्रम उन धरम कि तरंगो से इतना अल्पवित हो उठेगा ! तो जो भी साधक जिस-जिस अवस्था तक पहुँचा है, जितना भी तपा है उतनी तरंगें पैदा करेगा ही।

शुन्यगार बना कर लोगों को उसमे जो तपने की सहूलियत दे रहे हैं, यह तो अपने आपमें बहुत पुण्य की बात है ही, पर उससे कही बड़े पुण्य कि बात यह होगी कि, हर साधक सप्ताह में एक बार यहां आकर के तपेंगे। यह अपने तप का दान है। अपने तप की तरंगों का दान है। वह इस धरती को खूब अधिक पकायेगा. खूब अधिक तपायेगा। जिससे कि जो भी व्यक्ति आये वह थोड़े ही श्रम से अधिक प्राप्त कर सके। अपने विकारों से युद्ध करने की मेहनत तो हर व्यक्ति को करनी पड़ेगी। लेकिन आसपास का वातावरण धर्म कि तरंगो से तरंगित है तो मेहनत आसान हो जायगी। बाहर की तरंगें अगर दृषित हैं तो बाधायें अधिक आयेंगी। भीतर की तरंगों से यानी अपने विकारों से भी लड़ रहा है और बाहर कि तरंगे भी ऐसी है जो पाँव खीचने वाली है, तो काम नही करने देती। उससे बचाव हो जायगा। बहुत बड़ा बल मिलता है, बहुत बड़ी सहायता मिलती है।

साधकों को चाहिए कि अपने भीतर मंगल मैत्री जगायें। अपना कल्याण तो है ही। जब आकर तपेंगे तब अपना कल्याण तो है ही । लेकिन उस तपने से और न जाने कितनो का कल्याण होगा। सदियों तक कल्याण होने वाला है। जहां धरम की तरंगे जगने लगी तो लोग अपने आप खीचते हुये चले आयेगे । इस स्थान पर धर्म अपने शुद्ध रूप में जितनी सदियों तक रहेगा, उतनी सदियों तक न जाने कितने लोग आयेगे, तपेंगे , अपना अपना कल्याण करेंगे।

इस समय जो भी तप रहे हैं, भविष्य में आकर जो भी तपेंगे उन सब का मंगल हो ! उन सब का कल्याण हो ! मुक्ति हो, उन सब की स्वस्ति मुक्ति हो!

कल्याण मित्र, स.ना.गोयंका.

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