Monday, 14 August 2017

भवानी भारती : एक दुर्लभ राष्ट्रीय कविता

स्वाधीनतादिवस
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भवानी भारती : एक दुर्लभ राष्ट्रीय कविता
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"भवानी  भारती"  एक   सम्पूर्ण   राष्ट्रीय  कविता  है,  जो क्रान्तिकारी अरविन्द घोष (उन दिनों श्री अरविन्द की यही पहचान थी)ने  कांग्रेस के प्रसिद्ध सूरत अधिवेशन से कुछ समय  पहले  लिखी  थी ।  यह  कविता  उस  रहस्य   को खोलती  हुई  प्रतीत  होती  है  कि  क्यों  अरविन्द  घोष ने 1910 में राष्ट्रीय पुनर्जागरण के लिये भारत की  अध्यात्म -चेतना  को  जगाना  अपरिहार्य  समझते  हुए अपने लिये एकान्त का विकल्प स्वीकार किया। यह क्रान्तिकारी रचना देववाणी   संस्कृत   में   है ।   इस    सम्पूर्ण    कविता   में अग्निशिखाएँ  चमकती  हुई  मालूम  होती  हैं। कविता का भाषान्तर   मैंने  1985-86  में  तब  किया  था , जब  यह अमूल्य कृति ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर लिये जाने के बाद पहली बार प्रकाश में आई।अभी 2015में मूलपाठ के साथ  श्री  अरविन्द  आश्रम , पांडिचेरी  ने  यह   भाषान्तर  प्रकाशित  किया । स्वाधीनतादिवस  और  श्री अरविन्द  के जन्मदिवस   [15 अगस्त]    पर  यह  पूरी   कविता  अपने  सभी मित्रों के साथ विशेष रूप से उन संस्कृतज्ञों  के  लिये भी , जो अतीत से थोड़ा मुक्त होकर आधुनिक युग की इस ओजपूर्ण  कविता  से  रूबरू  होने  की  इच्छा   रखते  हैं।लगभग   सम्पूर्ण   साहित्य   अंग्रेजी   में  रचने  वाला  यह विलक्षण  कवि  संस्कृत को क्रान्ति  की भाषा  का  सम्मान देता है, तो नि :सन्देह भाषाओं  के ही नहीं,विश्वसाहित्य के सर्वोच्च   शिखर   पर  संस्कृत  अपनी  उज्जवल   पताका फहराती हुई हमारा मन मोह लेती है।⚘
"भवानी  भारती "  में  कुल  99  छंद  हैं। सभी छंद यहाँ दे पाना  सम्भव  नहीं  है, किन्तु  हम आरंभ के पाँच छंदों की मूलतः उपस्थिति के साथ इस आग्नेय कविता से  परिचित होने का  प्रयास करेंगे।यह कविता राष्ट्रीय सन्दर्भों  में आज भी प्रासंगिक है,और सदा रहेगी।⚘
यही  है  वह कविता , जिसमें "भारतमाता" प्रत्यक्ष हुई थी।
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सुखे निमग्नःशयने यदासं
मधोश्च रथ्यासु मनश्चचार।
स चिन्तयामास कुलानि काव्यं
दारांश्च भोगांश्च सुखं धनानि।।1।।
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कान्तैश्च श्रृंगारयुतैश्च हृष्टो
गानै:स छन्दो ललितं बबन्ध।
जगौ च कान्तावदनं सहास्यं
पूज्ये च मातुश्चरणे गरिष्ठे।।2।।
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चक्रन्द भूमि:परितो मदीया
खलो हि पुत्रानसुरो ममर्द।
स्वार्थेन नीतोऽहमनर्च पादौ
दुरात्मनो भ्रातृवधेन लिप्तौ।।3।।
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सुखं मृदावास्तरणे शयानं
सुखानि भोगान्वसु चिन्तयन्तम्।
पस्पर्श भीमेन करेण वक्षः
प्रत्यक्षमक्ष्णोश्च बभूव काली।।4।।
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नरास्थिमालां नृकपालकाञ्चीं
वृकोदराक्षीं क्षुधितां दरिद्राम्।
पृष्ठे व्रणांकामसुरप्रतोदै:
सिंहीं नदनातीमिव हन्तुकामाम्।।5।।

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भवानी भारती
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सुख में डूबा हुआ
सो रहा था अपनी शैया पर जब मैं,
घूम रहा था मन माधवी निकुंजों में,
सोच रहा था कुल,कविता,कामिनी और
सुखभोग-सम्पदा के बारे में।।1।।

पूजनीय माता के पावन चरणों में
मैं झूम-झूम कर,गा-गा कर
बस बना रहा था ललित छंद श्रृंगार लिये,
और प्रिया के मंजुल मुख की स्तुति में मैंने गान किये।।2।।

मेरे चारों ओर रो रही थी धरती,
रौंद रहे थे दुष्ट असुर माँ के बेटों को,
मैं डूबा अपनी चिन्ता में दबा रहा था पाँव दुष्ट के
जो मेरे ही सुहृद् बान्धवों के लोहू से सने हुए थे।।3।।

सुख से सोया था मैं कोमल शैया पर,
सुख-सुविधा,धन के बारे में सोच रहा था,
भीषण हाथ लगा मेरे ऊपर जैसे ही
भारत माँ थी प्रगट हुई चण्डी बनकर।।4।।

अस्थिहार पहने थी वह,नरमुंडों की मेखला कमर में,
आँखें वृकोदरी सी उसकी,भूखी थी वह माँ दरिद्र थी,
असुरों के आघातों से घावों के चिन्ह पीठ पर थे,
सिंहिनी गरजती हुई मारकर खा जाने को लगती थी।।5।।

सकल भुवन को जला रही थी
क्रुद्ध,भूख से व्याकुल ,अंगारों सी आँखें,
हुंकार उठी कटु स्वर में वह माँ
चीर रही थी हृदय देवताओं का भी।।6।।

भर दिया भुवन को घोर पाशविक हुंकारों से,
अपने कराल हनु को वह चाट रही थी,
क्रूर,नग्न दर्शन थे ऐसे माँ के,
ज्यों घने अंधेरे में हिंसातुर पशु की आँखें।।7।।

आलोल केश से पर्वत-शिखरों को लपेट कर,
दूर हटा सागर को दन्तप्रहारों से,
एक साँस से छिन्न-भिन्न कर दिया नभोमंडल को उसने,
पदन्यास से काँप उठी यह सारी धरती।।8।।

नक्षत्रहीन थी रात,जोर से चिल्लाई प्यासी माँ-
"उठो,उठो । दे डालो अब अपने को।"
सुन हहा घोर यह गर्जन,
भर गये सभी जन के मन,
यह रात अंधेरी गहरायी।।9।।

डरा-डरा मैं विचलित मन था,उठा तल्प से
पूछा तम से-कहो,करालि! कौन?
रात में प्रगट हुई हो मेरे उर में,
बोलो,क्या मैं करूँ,भयंकरि! तुम्हें नमन।।10।।

वन में घूम रहे हिंसातुर
क्रुद्ध सिंह सी गरज उठी वह,
और उचारे शब्द कराली ने वैसे ही
जैसे सागर जा टकराया किसी शिला से।।11।।

बेटे!मैं हूँ माता उस भारत की
जो रहा देवताओं का प्यारा और चिरंतन,
नहीं मिटाया जा सकता दुर्दैव,काल
या यम के हाथों जिसे कभी भी।।12।।

ब्रह्मचर्य से शुद्ध वीर्य है जिनका,
जो आर्य हुए हैं ज्ञान और श्रम के बल पर,
वे चमक रहे हैं सौ-सौ सूरज जैसे
इस वसुन्धरा को जग-मग-जग उज्जवल कर।।13।।

शूरवीर हैं वे प्रगल्भ हैं,
रिपुओं की स्पर्धा को तिल भर नहीं सहेंगे,
शत्रुदमन कर पूजा करते हैं माँ की वे
और समर में जीत
रुधिर से सने हुए शोभा पाते हैं।।14।।

दीन,दरिद्र,घृणित ये पापी कौन?
जो पाप-शान्ति को गले लगाते हैं ऐसे,
अंधा गले लगाता है गणिका को जैसे।
रे कापुरुष! कुबुद्धि!
मुदित तुम हुए मृत्यु को गले लगा कर।।15।।

क्लीब! जियोगे कब तक ऐसे
वृथा प्रहारों को सह-सह कर,
हँसते हैं ये शत्रु तुम्हारे,
और खरीदे चले जा रहे धनशोषण,अपमानराशि
तुम चुप्प शान्ति से।।16।।

म्लेच्छजनों का चरणामृत पी-पी कर
यह कौन गर्व कर रहा विप्र होने का,
तुम तो हो शूद्रों से आगे के अधम शूद्र,
अब नरक मार्ग पर व्रत-उपासना क्या करते हो ?।।17।।

उठो,उठो रे जागो,जागो,
यज्ञ-हवन सब छोड़ो,छोड़ो।
तुम तो हो प्रत्यक्ष तेज उस परमपुरुष के,
उर में आग ज्वलित है एक चिरंतन सबके,
आज दहन कर दो बैरी को,
फिर निर्द्वन्द्व विहार करो।।18।।

महलों के भीतर छुप-छुप कर
राजन्य कौन यह भ्रूविलास,मदिरा में डूबा
धर्म और यश भूल गया दुर्बल! रे वंचक!
उठ,अब कर तू युद्ध
और रक्षा कर अपने धर्मों की।।19।।

लौह शिराओं में है तेरी,
प्रखर खड्ग तेरे हाथों में,
क्रूर शतघ्नी भी प्रमत्त समरांगण में हुंकार रही,
तू निरस्त्र है कहाँ? पड़ा है शव सा क्यों निष्प्राण,
जाति बचा अपनी ,शत्रु को मिटा
और बन आर्य महान्।।20।।

और कौन तू वैश्य यहाँ पर?
बाजारों में सजा रखा है यह धन कैसा?
म्लेच्छ सम्पदा है यह तो,खल!मातृद्रोही!
क्यों मुझ काली को कंगाल बनाता है?।।21।।

आग लगा दे म्लेच्छ सम्पदा को तू,
भयभीत नहीं क्या तू काली की क्रोध-अग्नि से?
अंतर में तू पूज भवानी माँ को,
जन्मभूमि की लक्ष्मी के ही लिये यत्न कर।।22।।

ओ अवन्तिवासियों! मगध के रहने वालों!
बंग-अंग में ओ कलिंग में रहने वालों!
कौरव!सैन्धव! दक्षिणप्रदेश के लोगों!
सुन लो सब,ओ आन्ध्र और तंजौरवासियों!
ओ पंजाबदेश में रहने वाले वीरों!।।23।।

वे सब सुनें,
सुनें वे सब जो पूजा करते हैं त्रिमूर्ति की,
और यवन जो पूजा करते एकमूर्ति की,
माँ मैं बुला रही,तुम सब मेरे बेटे,
निद्रा त्यागो और सुनो जो कहती हूँ मैं।।24।।

अद्रिश्रृंग से सुनो काल की भेरी,
रौद्र मृत्यु यह दूत बनी है मेरी,
दुर्भिक्ष और भूकम्प देखते हो ये
बस,समझो, मैं आ गई काल की देवी।।25।।

हो शहीद मुझ पर बलि जाओ,
मैं प्यासी हूँ,मुझे रक्त दो,
देखो मेरी ओर ,मुझे जानो,
आदिशक्ति हूँ मैं,तुम मुझको पहचानो,
घूम रही यह काली चारों ओर ,गरज रही
राजन्यों के तन की भूखी,मांग रही मस्तक।।26।।

नहीं तृप्त मैं इन सैकड़ों,हजारों,अरबों
पशुबलियों की रक्तधार से,
हृदय भेद कर मुझे रुधिर दो,
पूजा होती है ऐसे ही सनातनी माता काली की।।27।।

देश पर कुर्बान होने को जो
राजन्य जो तैयार रहते हैं हमेशा,
यह कराली सौम्य है उनके लिये
शत्रु का संहार करने को खड़ी है रुधिर पी कर।।28।।

आर्य! कहो ,डरते हो क्यों?
इस रक्तसिन्धु में अवगाहन कर
आर्यसत्व बनकर दिखलाओ,
देखो,देखो उस पार
दुर्धर्ष ज्योति का उदय हो रहा है त्रिशूल सा।।29।।

सुन ,माँ के ये वचन विलासी कवि!
काली विकराली चंडी की पूजा कर,
तू देखेगा निश्चय ही भारतमाता को
जो घोर समर में ध्वंस कर रही होगी
अरियों के समूह का।।30।।

आह्वान कर भारत के उन वंशधरों का
जिनमें आग चिरंतनता की सदा जल रही,
तुम जीतोगे समर,डरो मत,उठो सुप्त सिंहों!उठो,
मैं जाग उठी हूँ ,लो,
कहाँ तुम्हारा धनुष कहाँ तलवार।।31।।

घनी रात में सुन-सुन कर ये बातें
और देख कर अंधेरे में भीषण तेज फैलता
नाच उठा मेरा मन,और उसी पल
झटक दिये सुखभोग,
निकल आया घर से बाहर।।32।।

देखा मैंने-
घोर तिमिर में घिरा हुआ था अंधकारमय भारत,
आर्यभूमि पर अंधकार की चादर सी फैली थी,
रिपुओं के आघातों से क्षत-विक्षत भारत जननी को
घनी रात में फूट-फूट कर रोते देखा।।33।।

आँखें दौड़ी अंधकार में दूर-दूर तक,
अपने भाई और बन्धुओं को तलाशती,
किन्तु मिले कंकालशेष अनेक शव
जो दीन-हीन से पड़े हुए पृथ्वी पर।।34।।

तभी दिखाई दिया एक असुराधिप
जिसके माथे पर था किरीट,हाथ में वज्र,
वह पाल रहा था अपने कुल को
माँ के खून चढ़े आँसू की धारा से।।35।।

एक चरण से दबा रखा था गतमहिमा वाला हिमपर्वत,
आन्ध्र,पौंड्र को रौंद रहा था चरण दूसरा,
करवाल प्रखर वह बढ़ा रहा था
चीन और पल्हव देशों की ओर।।36।।

खल,विशाल,बलगर्वित उसको देखा,
वह अधर्ममति सिखा रहा था पाठ धर्म का,
मेरा मन यह,अग्निकुंड सा हो कर
जल उठा,सनातन क्रोध-अग्नि उपजा कर।।37।।

सोयी हुई सनातन मानवता को
लगी जगाने फिर से महिमा की देवी,
क्रूर गर्जना करती हुई चली आयी वह
मेरे पास गहन रजनी में।।38।।

भीषण,कठोर उसकी आवाजें सुन कर
काँप उठी धरती,हिल गया समन्दर,गरज उठा आकाश,
और भयावह क्रोधदृष्टि से उसकी
लगा दहकने यह सारा ब्रह्मांड,
बरसने लगी आग हो जैसे।।39।।

गूँज उठे तीनों लोक
काली के उन्माद भरे आवाहन से,
शब्द अजस्र कंठ से उसके फूटे ऐसे
जैसे ज्वालामुखी,
गर्भ में जिसके दारुण वन्हि बसी हो।।40।।

जड़-चेतन के तीव्र क्षोभ से
क्षुब्ध हुई सेना को मैंने देखा,
जो अभी स्वप्न से उठी हुई लगती थी,
और रुद्र-आवेशित होकर चीख उठी-
अरे!मार डालो इस अत्याचारी को।।41।।

माँ को रोता देख,देख उसके घावों को
बिजली सी शत-शत-शत आँखें चमक उठीं,
और सहस्र भयानक मुख वे मुड़े रोष से भर कर
उस भीम महादानव की ओर।।42।।

समरोत्सुक पुत्रों के सोते हुए कौन यह
आर्या माँ का रुधिर पी रहा असुर निशाचर?
तू यम का आहार कौन रे नीच!
जो बलशाली होकर अबला का दमन कर रहा।।43।।

इस तरह रोष से ललकारा काली ने,
अग्निगर्भ-धनुशस्त्र उठा कर
झपट पड़ी चिल्लाती हुई उग्र वह
भयकारी रिपु के आगे-पीछे।।44।।

तीव्र क्रोध की ज्वालाओं से
धू-धू करने लगी धरा यह ,और गगन
त्राहि-त्राहि कर उठा जगत्
जब युद्धभूमि मे गूँज उठी दुन्दुभियाँ
और हिनहिना उठे दानव के घोड़े।।45।।

नभ में खौल रहे थे बादल रंगे खून से,
यहाँ धरा पर बरस रहा था रुधिर मूसलाधार,
अद्रिसंघ उठ रहे रक्तसागर से,
वसुन्धरा यह रक्तमयी लगती थी।।46।।

देवानांप्रिय भारतपुत्रों की सेना को
रौंद रहा था असुर भयंकर बलशाली वह अंधियारे में,
देवों का उन्मत्त शत्रु वह चिल्लाया अत्यंत गर्व से-
"कौन पुरुष मेरे समान विक्रमशाली?"।।47।।

तभी गगन में मैंने देखा नन्हा सूरज,
लाल उजाला फूट रहा था उसके तन से,
चीर रहा था रश्मिशरों से अंधकार को,
उस उगते सूरज को मैंने जीभर देखा।।48।।

ब्रह्मा को देखा मैंने तब मेघरूप में
जो भविष्य के उज्ज्वल मुखमंडल से दमक रहे थे,
थीं हजार आँखें उनकी
जो आतुर थीं पाने को माँ से अभयदान।।49।।

तभी दूऽऽर उत्तरदिशि में
वह शुभ्र ज्योति सी उठी सौम्य तन्वंगी,
अरि-विनाशिनी,रम्य तेज-बल की देवी
जैसे द्विकोटि भास्वर सूरज ही चमक रहे हों।।50।।

ज्योतिर्मय लोकों में स्तुति के गीत मुदित देवों ने गाये,
अंतरिक्ष में पंछी गाने लगे मधुर मधुगान,
धरती पर जन-जन ने गाये नम्रभाव से गीत उसीके,
दिव्य ज्योति जब आई इस जगती का दुःख दूर करने को।।51।।

हिमशिखरों पर जो हिम ही हो गये
ध्यान में बैठे हुए अनेकों युग से,,
वे भारत के प्रहरी ,धीर,महायोगी
मुदित हुए,माता का करने लगे स्तवन।।52।।

युगों-युगों से संचित हिम को
दूर हटा कर ज्ञानचक्षु से
भीमकान्ति -देवी-बलिनी के गाये गीत
महाप्रतापी ध्यानावस्थित उन वीरों ने।।53।।

ओ विशालशक्ति!देवि!तुम्हें प्रणाम।
ओ महिमामयी ,करुणामयी,बलशालिनी!
हो तुम ही हे देवि! सबकी तारिणी।
ओ आदिदेवि!प्रणाम ओजस्विनी।।54।।

कौन समर्थ?करे जो तेरे बल का वर्णन,
ओ प्रचंडद्युति! तेरे ही करपल्लव में है
सूर्य और तारों की गति-अपगति,
ओ अनंतवीर्य!तेरे इंगित पर ही है
स्थिति और सर्जना निखिल विश्व की।।55।।

चीत्कार उठते शृगाल
जब महासागर में नाच रही होती हो तुम,
हे घोर चंडि! त्रिशूलधारिणि!
छू भर लेती हो जब तुम अस्त्रों को,
काँप-काँप जाते हैं तारे अनगिन नभ में।।56।।

रोती जनता ,और दया से भर आता है चित्त तुम्हारा,
आततायियों के मस्तक तुम कुचल-कुचल देती हो,
रहता है तेरे त्रिशूल में भुवनभक्षी
रौद्ररूप वह मृत्युराज किंकर है तेरा।।57।।

क्रुद्ध हुई उस कोटि-कोटि जनता की
तुम प्रबुद्ध सर्वोच्चशक्ति हो माता,
तुम ही एक किनारा विपदाग्रस्त हुए उन आर्यजनों का,
युग-युग की तू समरतारिणी माता।।58।।

देख रहा हूँ अभी-अभी मैं उत्तर के पर्वतशिखरों पर
दीप्तिमान-वपु-धवल तुम्हारा,
दमक रही हो हे ज्योतिर्मयि! हे सुभगे!तुम
अपनी द्युति से सकल भुवन को जग-मग-जग कर।।59।।

उन्मत्त धेनु पर समारूढ तुम देवी
मनमोहक छबि ले विचर रही हो समरांगण में,
असुरों के दल गिर-गिर पड़ते तेरे चारों ओर
ज्यों समूल ही गिरी जा रही शैलशिखाएँ।।60।।

उजली-उजली धेनु धवल हिम की ढेरी सी
विचर रही है इधर-उधर बिजली सी,
वर्तुल-श्यामलशृंगा,देवों की अति प्यारी
है यह आर्या भारतभुवि जो
धेनुरूप में किये जा रही रिपुसंहार।।61।।

हुए अचानक ही विवर्णमुख भय से
दानवदल,जीत चुके थे जो देवों को
निस्तेज भागते चले जा रहे थे वे नीच
जैसे पर्वत से निर्झर कोलाहल करते हुए वेग से।।62।।

सुन रहा पंजाब में तेरे सुरों को,
सुन रहा जयगान जन-जन से भवानी!
सुन रहा हूँ और भी ऊँचे स्वरों में
ओ भयंकरि!रिपुहनन की यह कहानी।।63।।

श्रीकृष्ण की प्यारी यमुना कल-कल करती
हुई रक्त से लाल,नील छबि को बिसरा कर,
देखो बंगभूमि में कीचड़ हुआ रक्त का,
दक्षिण की यह दिशा लग रही कैसी
लाल-लाल लोहू से रंगी हुई हो जैसे।।64।।

तव त्रिशूल से छूकर नभ में लाल-लाल हो उठी दिशाएँ,
और बादलों ने पाई लाली,
जब किया भवानी !तूने यह दारुण संग्राम।।65।।

पाषाणों के बीच सिन्ध के तट पर
देखा मैंने देवी का संग्राम
और वध होते हुए शेष असुरों का,
क्रोधानल से भरी,दया को छोड़ शिवा वह
मिटा रही थी शिव के रिपुओं को त्रिशूल से।।66।।

स्वर्गधेनु के खुरन्यास से
कुचली पड़ी हुई क्या है यह अंधकार  सी गहन कालिमा,
देख रहा हूँ-यह तो माँस-पिंड धरती पर
अब तेरे पापी रिपुओं का शेष यही है।।67।।

किन-किन के नरमुंड भग्न ये
झाँक रहे हैं इस विरूप वध की लीला में,
इधर पाँव हैं,उधर किसी के हाथ पड़े हैं,
इस विभीषिका में तुम कितनी क्रूर हुई हो माँ रुद्राणी।।68।।

क्रूर है तू या दया दिखला रही ,माँ!
दुष्ट,हत्यारे,प्रजा के त्रासदायक,गर्व से उन्मत्त असुरों पर,
तव दया से समर में वे मृत्यु पावें
क्यों न फिर वे स्वर्गपथ की ओर जावें।।69।।

रुद्रशत्रु निष्प्राण हुआ था फिर भी
अपने क्षत-विक्षत  जले हुए हाथों से
वह लिये हुए था अस्त्र एक विस्फोटक
फेंक रहा मानो देवी पर,दग्ध प्राण ही जैसे अपने।।70।।

देख रहा हूँ महाअस्त्र के मुख से उठी आग की लपटें,
खड़ा हुआ है धृष्ट असुर चंडी के आगे,
किन्तु नहीं छू सका दिव्य आभामंडल को।।71।।

अंतिम अवसर अवरुद्ध हुआ असुर का,
देवी ने जब शृंगों के बीच खड्ग दे मारा,
ओ विशालवीर्ये! लगता है मुझको
बस,अब हो ही गया महाव्रत पूर्ण तुम्हारा।।72।।

ओ विशालशक्ति!तुम्हें प्रणाम।
ओ कष्टसाध्ये!घोर व्रतिनी! तारिणी!
भारती!भारतजनों की माँ भवानी!
शोभिनी! चल-अचल जग की धारिणी।।73।।

तू देवी ,तू जन-जन की माँ
प्रभुता,शुद्ध तेज,सुख-वरदायिनी माँ,
कौन जग में और? ऐसा दे हमें वर,
दायिनी तू,क्रुद्धरूप ,विनाशिनी माँ।।74।।

जय हो माँ! तेरी जय-जय हो,
मधु-विशाललोचने देवि!तेरी जय हो,
हिम सा शुभ्र ,मनोरम तेरा वाहन यह
पूँछ उठाकर ,उसके श्यामल अग्रभाग को
फहरा रहा ध्वजा हो जैसे।।75।।

घोर युद्ध में वेणीबंध खुला तेरा
बिखरे केश तुम्हारे ,इतने बल से
उड़ने लगे व्योम में,लम्बे -घुंघराले
उमड़-घुमड़ छा रहे मेघ हों जैसे।76।।

शुभ्रानने! भूमि पर तुम विद्युत सी हो,
चमक रही हैं आँखें तेरी तीव्र रोष से,
खेल रहा तेरी आँखों में अट्टहास,
घने बादलों में ज्यों खेल रही हो बिजली।।77।।

मरे पड़े रिपुओं पर आँखें टिकी हुई,
ग्रीवा शुभ्र तुमाहारी थोड़ी झुकी हुई,
और भवानी! चरण शुभ्र आजानु तुम्हारे
उनमें हिमस्तम्भों की द्युति सी जगी हुई।।78।।

ज्योतिर्मय घन और पवन सा धवल वसन
उन्मुक्त समीरण में लहराया,
और वसन से झाँक उठी
चन्द्रप्रभा सी उज्जवल मंजुल तेरी काया।।79।।

और पयोधर तेरे ऐसे है,माँ!
जैसे क्षीरसमुद्र
और उसमें उठती फेनिल लहरें हों धवल दुग्ध की,
दर्शन तेरा बड़ा कठिन माँ!
दृष्टि पराजित हुई
तुम्हारे अंग-अंग से फूट रही द्युति के आगे।।80।।

देवि!सनातनि! तुम्हें नमन।
तुमने धारण किया यह युवती-वदन।
जग में शिव से भी पहले तेरा चरण।
ओ अनादि माँ भीमे! तुम्हें नमन।
शरणागत जन के हित कोमल बन।।81।।

ओ करुणामयि! दीख रही तुम
विटपयूथ  सी श्यामल
गिरिशिखरों के विस्तृत अन्तराल में,
और तुम्हारा हाथ भूमि को लक्षित फैला हुआ
ओ रुद्राणि! अभयदान दे रही प्रजा को।।82।।

तेरे करपल्लव के एक इशारे से
भारत की धरती का दूर हुआ अंधियारा,
और लहू के बादल  भी छँट गये गगन से,
शुभे!प्रसन्ने! शक्ति कल्पनातीत तुम्हारी।।83।।

सौम्य अंग तेरे ,हिमवर्ण सदृश तुम आर्या,
उल्लास भरा तेरा मुखमंडल है उदार,
शुक्ल वसन पहने,यौवन की शुभ्र कान्ति से दीपित
स्नेह भरी आँखों वाली बलशालिनी माँ भवानि! नमामि।।84।।

कहाँ?कहाँ अन्तर्हित ही हो गई कराली,
अस्थिहार पहने थी जो ,नरमुंडों की मेखला कमर में,
नग्न भयंकर थी जो भीमा खुले हुए मुख वाली,
उठ बैठा हूँ मैं उसके ही महाघोष पर।।85।।

यह  जो नदी सी बह रही रक्त की,
उसमें बसी हँसती हुई सी एक छाया
असि घुमात,गरजती चंडी विवसना
माँ महाकाली! तुम्हें मेरा नमन।।86।।

तुम ही काली,कितनी निष्ठुर हो तुम
तुम ही अन्नपूर्णा,सदया सरला हो,
हे भुवनान्तकारिणी!रुद्रभवानी!
प्रेमविव्हले राधे! तुम्हें मेरा नमन।।87।।

तू ही है यह तेज और तू ही है बलवानों का बल,
तू कोमल से कोमलतर है,सर्वशक्ति तू
कौन करे तेरे अनंत बल का वर्णन
जो प्रगट हुआ है विपुल,ऋद्धि से आपूरित।।88।।

प्रसन्नवदने! द्विभुजे! तुम्हें प्रणाम।
ओ त्रिशूलिनी!अभयदायिनी!तुम्हें प्रणाम।
सावित्री तुम ,माँ कल्याणी!त्रिलोचना!
शुभ्रांगी,शुक्लाम्बरा वृषवाहना।।89।।

दस आयुध तू धारण किये हुए माँ!
दुर्लभ है तू दसों दशाओं में भी,
आर्यजनों की रक्षा में रत दसों भुजाएँ
हैं पुत्रों पर तेरे अगणित वरद हस्त,
हे अकूत बलशालिनि! माता जगत्-योनि।।90।।

घने अंधेरे में फैलाती हुई उजाला,
जलते पर्वत सी तेरी भीषण काया,
देख रहा हूँ,शस्त्र हाथ में लिये खड़ी है देवी सरला
आर्यभूमि के नगर-नगर,द्वारे-द्वारे।।91।।

कलि का हुआ दमन तेरे हाथों जन-जननी!
स्वाधीनवृत्ति से चलने लगे यहाँ के लोग
वेदमार्ग पर,देख रहा मैं।।92।।

वैदिक मंत्रों के स्वर गूँज रहे फिर
वनप्रान्तों में ये दिये सुनाई मुझको,
वे ही स्वर हैं हिय का अमृत निर्झर,
यह जनसरिता है बही जा रही ,देखो
मुनिजन के गुरुतर ज्ञानपूर्ण श्रमपथ पर।।93।।

सूर्यवंश में जन्म लिया है जिन आर्यों ने
वे चल रहे सनातन धर्ममार्ग पर फिर से,
स्मित मुख,उज्ज्वल-उज्ज्वल लक्ष्मी अचला
भारत भुवि पर राज रही है फिर से।।94।।

इसी पुरातन मातृभूमि के पथ पर चला आ रहा भारत,
मातृवंदना,स्तवन-गीत यह गाता चला आ रहा भारत,
पूरब-पश्चिम में कोलाहल निखिल विश्व का सुना-
मातृचरणों में चला आ रहा भारत।।95।।

सत्यधर्मधारिणी!महाव्रतचारिणी!तेरी वंदना,
सरला,विकराला,अनादि देव्या:प्रिया,धरणी!वंदना,
शक्तिशालिनी!तीर्थरूपिणी!तेरी वंदना।।96।।

जो जन रहते हैं शिव की काशी में
हो जाते हैं मुक्त,स्पर्श से जैसे शिव के,
देवी के पावन पादार्पण से ही वैसे
आर्यभूमि यह जग की काशी बन जाएगी।।97।।

प्रीति,दया तू,धैर्य,अदम्य शौर्य,श्रद्धा तू,
तू ही क्षमा,विविध विद्या तू,
ओ अनंतरूपा!प्रसन्न हो
भारत के जन मन में तेरा चिर निवास हो।।98।।

सिन्धु-हिमालय को अपने
कोमल प्रकाश से जगमग कर दे,
अजर अमर चिरकीर्तिशालिनी!
महिमामयी प्रतापिनी!
जग के हित में आर्यभूमि पर
चिरनिवास कर मंगल वर दे
जय भारती भवानी।।99।।

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मूल रचना:श्री अरविन्द
भाषान्तर: मुरलीधर चाँदनीवाला

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