मां का वैराग्य
श्रीरामकृष्णदेव ने षोडशी पूजा के माध्यम से श्रीमाँ
के सुषुप्त देवीत्व को जागृत किया था। देहधारिणी आद्याशक्ति को जैसे उन्होंने उनके स्वरूप के विषय में सचेतन कर दिया ताकि निकट भविष्य में वे विश्वजननी होकर उनके लोक-कल्याणव्रत को पूर्ण कर सकें।
देहत्याग के पूर्व ठाकुर स्पष्ट रुप से श्रीमां को यह दायित्व सौंप गए।
श्रीमां ने कहा -मैं एक स्त्री ऐसा ,कैसे कर पाऊंगी?
ठाकुर ने कहा -- क्या सारा दायित्व केवल मेरा ही है ,तुम्हारा भी दायित्व है।
ठाकुर के गले का रोग क्रमशः तीव्र होता गया। शरीर एकदम जीर्ण शीर्ण हो गया ।डॉक्टरों की चेष्टा सफल न होते देख श्रीमां ने 'तारकेश्वर' मे धरना दिया।
दो दिन निर्जला उपवास में पड़ी रहींं ।
विधि के विधान से तीसरे दिन रात को श्रीमां को परम "वैराग्य " जागृत हुआ। उनको लगा -- 'इस जगत में कौन,किसका पति है?
व्रत तोड़कर तोड़कर लौट आयीं ।
श्रीरामकृष्ण ने मजाक करते हुए पूछा; क्यों क्या हुआ?
मां ने कहा -- कुछ भी नहीं।
अंततः ठाकुर ने 16 अगस्त 1886 को निजधाम के लिए प्रयाण किया ।
श्रीमां ,सारे आभूषण खोल देने के पश्चात जब सोने के कंगनों का जोड़ा खोलने जा रही थी कि ठाकुर पूर्ण स्वस्थ मूर्ति में आविर्भूत हुए और उनका हाथ पकड़कर कहा; मैं क्या मर गया हूं ,जो तुम सधवा स्त्री की वस्तु ,हाथ से खोल रही हो ?
मां ने फिर कंगन नहीं उतारे और विधवा का वेश धारण नहीं किया। पतले लाल किनारे की साड़ी पहनतीं और हाथों में दो कंगन होते ।
ठाकुर के विरह को भूलने के लिए मां ने एक वर्ष तक तीर्थाटन किया । फिर वे कामारपुकुर लौटीं।
तब एक दिन उन्होंने देखा ,सामने के रास्ते से ठाकुर आ रहे हैं और उनके पीछे-पीछे नरेंद्र, बाबूराम ,राखाल ,आदि चल रहे हैं। ठाकुर के पादपद्मों से जलधारा निकल रही है।
श्रीमां समझ गई -- यही तो सब हैं, इनके पादपद्मों से ही तो गंगा बहती है ।
मुट्ठी मुट्ठी जवाफूल तोड़कर श्रीमां उस गंगा में पुष्पांजलि देने लगीं ।
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