Saturday, 18 June 2022

28 बुद्ध और उनके बारे में

*28 बुद्ध और उनके बारे में ।*🌹🌹🌹

इस भूमी  पर अनेक बुद्ध हुए और भविष्य मे भी होगे, जौ बुध्द हो गए उनमे अब तक बौद्ध परम्परा मे 28 बुद्ध के नाम ज्ञात है, ज्ञात बुद्ध की सूची इस प्रकार है 

1) तण्हङ्करा बुद्ध : सत्ताईस बुद्धों में से पहले हैं जिन्होंने मेधङ्करा बुद्ध और सबसे पहले ज्ञात बुद्ध के रूप में जाना था। 
जन्म स्थान : पोपफावडी 
माता -पिता :  राजा सुनन्द और रानी  सुनंदा
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : रूक्कठ्ठाना वृक्ष

2) मेधङ्करा बुद्ध : सत्ताईस बुद्धों में से दूसरे हैं जिन्होंने सरणंकरा बुद्ध से पहले जन्म लिया था। वे सरमान्दा  कल्प के दूसरे बुद्ध थे।  बुद्धवंश में, उनका संक्षेप में उल्लेख किया गया है।
जन्म स्थान : याघर 
माता -पिता :  पिता सुधेवा और माता यशोधरा 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : कैला वृक्ष

3) सरणंकरा बुद्ध: सत्ताईस बुद्धों में से तीसरे हैं, जिन्होंने कुछ परंपराओं में दिपंकर बुद्ध से पहले जन्म लिया था।  वे सरमान्दा कल्प के तीसरे बुद्ध और दीपांकर  बुद्ध के पूर्ववर्ती भी थे। पाली कैनन के बुद्धवास में, उनका संक्षिप्त उल्लेख किया गया है।
जन्म स्थान : विपुल
माता -पिता : पिता सुमगल और माता यसवति 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : पुलिला वृक्ष

4) दिपंकर बुद्ध : अतीत के बुद्धों में से एक है। उनके बारे में कहा जाता है कि वह एक लाख वर्ष  पूर्व पृथ्वी पर रह चुका है। कुछ बौद्ध परंपराओं के अनुसार, दीपंकर एक बुद्ध थे, जो गौतम बुद्ध, से पहले आत्मज्ञान युग में पहुंचे थे।
जन्म स्थान : रामवतीनगर 
माता -पिता : पिता सुदेव और माता सुमेधया 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : पिप्फल वृक्ष

5) कौंडिन्य या कोहिनारा बुद्ध : का जन्म रामवती में हुआ था। उनके पिता राजा सुनंद और उनकी माता सुजाता थे। वह कोंडनगोटा के थे,एक दन्त कथा के अनुसार वे अट्ठाईस हाथ लंबे थे । दस हज़ार वर्षों तक वह रुसी, सुरूसी और सुभा में एक आम आदमी के रूप में रहे। उनकी पत्नी रुदिदेवी और उनका पुत्र विजयसेन थे।
जन्म स्थान : रामवती
माता -पिता : पिता राजा सुनंद और माता रानी सुजाता
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : सालकल्यान वृक्ष

6) मगल बुद्ध : सत्ताईस बुद्धों में से छठे,  हैं जिन्होंने थेरवाद पाली के एक ग्रन्थ बुद्धवम्सा, और इसकी टीका के अनुसार सुमन बुध्द से पहले की थी। वह सरमान्दा कल्प  के पहले बुद्ध भी थे। 
जन्म स्थान : उत्तरानगर  (माझिम्मादेसा ) 
माता -पिता : पिता उत्तर और माता उत्तरा 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : नागा वृक्ष

7) सुमन बुध्द: सत्ताईस बुद्धों में से सातवे  हैं जिन्होंने थेरवाद पाली के एक ग्रन्थ बुद्धवम्सा, और इसकी टीका के अनुसार रेवत बुध्द से पहले के है, उनके पत्नी का नाम वतंसिका और पुत्र का नाम अनुपम था 
जन्म स्थान : मेखलानगर 
माता -पिता : पिता राजा सुदस्सन और माता रानी सिरीमा
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : नागा वृक्ष

😎 रेवत बुध्द :सत्ताईस बुद्धों में से आठवे  हैं जिन्होंने थेरवाद पाली के एक ग्रन्थ बुद्धवम्सा, और इसकी टीका के अनुसार शोबिता बुध्द से पहले के है 
उनकी पत्नी सुदासना और उनका पुत्र वरुण। उनके जीवन में उनके द्वारा रखे गए तीन महल सुदसाना, रतनगघी और ओवला थे। उन्होंने सात महीने तक कठोर तपस्या की और एक नगा पेड़ के नीचे ज्ञान प्राप्त किया, जिसके लिए साधुदेवी  ने दूध चावल की खीर और  और आजिवक वरुणिन्धरा ने आसान के लिए कुश घास दी।उनका पहला उपदेश वरुणाराम में दिया गया था।
जन्म स्थान : सुधन्नवातीनगर 
माता -पिता : पिता विपाला और माता विपुला
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : नागा वृक्ष

9) शोबिता बुध्द : सत्ताईस बुद्धों में से नैवे हैं जिन्होंने थेरवाद पाली के एक ग्रन्थ बुद्धवम्सा, और इसकी टीका के अनुसार अनोमदस्सी बुद्ध से पहले के है l
जन्म स्थान : सुधम्मानगर 
माता -पिता : पिता सुधम्म और माता सुधम्मा 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : नागा वृक्ष

10) अनोमदस्सी बुद्ध : थेरवाद बौद्ध धर्म के पाली ग्रन्थ  के बुद्धवम्सा और इसकी टीका के अनुसार, अनोमदस्सी बुद्ध सत्ताईस बुद्धों में से दसवें हैं जिन्होंने पदुमा बुद्धसे पहले जन्म लिया था। वे वरा कल्प के पहले बुद्ध भी थे।
जन्म स्थान :  चन्दावतीनगर 
माता -पिता :  पिता यसवा और माता यशोदरा 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : अज्जुना वृक्ष

11) पदुमा बुद्ध : पादुमाय सत्ताईस बुद्धों में से ग्यारवें बुद्ध थे । उनकी पत्नी उत्तरा और उनका बेटा राममा था। धनावती ने उन्हें दूध चावल के खीर का दान दिया, और तिथका नाम के एक अजिवाक् ने  बोधि वृक्ष के नीचे आसान  के लिए घास फैला दी, जो एक महासन था । उन्होंने धनंजययाना  में अपने पहले उपदेश दिया। उनके मुख्य शिष्य उनके छोटे भाई साल और उपासल थे और उनके परिचारक वरुण थे। राधा और सुराधा उनकी प्रमुख महिला शिष्या थीं, और उनके मुख्य संरक्षक पुरुष और महिलाओं के बीच रूइया और नंदराम थे।
जन्म स्थान : चैम्पयनगर 
माता -पिता : पिता खत्तिया असमा और माता असमा 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) :  साल वृक्ष

12) नारद बुद्ध : थेरवाद बौद्ध धर्म के पाली ग्रन्थ के बुद्धवम्सा और इसकी टीका के अनुसार, नारद बुद्ध सत्ताईस बुद्धों में से बारवे हैं जिन्होंने पद्मुत्तारा बुद्ध से पहले जन्म लिया था
जन्म स्थान : धम्मावतीनगर 
माता -पिता :  राजा सुदेव और रानी अनुपमा
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : सोनका वृक्ष

13) पद्मुत्तारा बुद्ध : थेरवाद ग्रन्थ  के बुद्धवम्सा के अनुसार, पद्मुत्तारा बुद्ध सत्ताईस बुद्धों की तेरहवीं हैं जिन्होंiने सुमेध बुद्ध से पहले जन्म लिया था।
जन्म स्थान : हंसवतीनगर 
माता -पिता : पिता अनुरुला और  माता सुजाता
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : साल वृक्ष

14) सुमेध बुद्ध : थेरवाद बौद्ध धर्म के पाली ग्रन्थ की बुद्धवम्सा और इसकी टीका के अनुसार, सुमेध बुद्ध सत्ताईस बुद्धों में से चौदहवें हैं जिन्होंने सुजात बुद्ध से पहले की थी। सुमेधा बुद्ध का जन्म सुदसाना में हुआ था।और मेधराम में मृत्यु हो गईlसुमेधा बुद्ध के जीवनकाल के दौरान, गोतम बुद्ध का जन्म एक ब्राह्मण उत्तरा के रूप में जाना जाता है l
जन्म स्थान : सुदासनानगर 
माता -पिता : पिता सुमेध और  माता सुमेधा 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : निपा वृक्ष

15) सुजात बुद्ध :थेरवाद बौद्ध धर्म के पाली ग्रन्थ की बुद्धवम्सा और इसकी टीका के अनुसार, सुजात बुद्ध सत्ताईस बुद्धों में से पंद्रहवें हैं जिन्होंने पियदस्सी बुद्ध से पहले जन्म लिया था। वह मन्दा कल्प के दूसरे बुद्ध भी थे
जन्म स्थान :  सुमंगलनगर 
माता -पिता : पिता उग्गत और माता पब्बावति 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : वेलु वृक्ष

16) पियदस्सी बुद्ध :थेरवाद बौद्ध धर्म के पाली ग्रन्थ की बुद्धवम्सा और इसकी टीका के अनुसार, सुजात बुद्ध सत्ताईस बुद्धों में से सोलवे बुद्ध हैं जिन्होंने अत्थदस्सी बुद्ध से पहले जन्म लिया था।उनकी पत्नी विमला और उनका बेटा कंचनावेल (कंचना) था।, उन्हें वासभास  पुत्री द्वारा दूध चावल की खीर  और अजीवका सुजात द्वारा उनकी आसान के लिए कुश घास दिया गया था उनके  प्रमुख शिष्य भिक्षुओं के बीच पालिता और सबदबासि थे और भिक्षुनी के बीच सुजाता और धम्मिन्ना, उनकी निरंतर परिचर शोभिता था । सननाक और धम्मिक उनके प्रमुख पुरुषों में संरक्षक थे, और विशाखी और धम्मिदिन्ना  महिलाओं के बीच और उनकी मृत्यु अट्टारथामा में हुई थी
जन्म स्थान : सुदंनानागर 
माता -पिता :  पिता सुदत्त और माता सुभद्रा 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : ककुधा वृक्ष

17) अत्थदस्सी बुद्ध : थेरवाद बौद्ध धर्म के पाली ग्रन्थ की बुद्धवम्सा और इसकी टीका के अनुसार, अत्थदस्सी बुद्ध  सत्ताईस बुद्धों में से सत्तरवे बुद्ध हैं जिन्होंने धम्मदस्सी बुद्ध से पहले जन्म लिया था
जन्म स्थान : सोननगर 
माता -पिता :  पिता सागर और माता सुदस्सना 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : चंपा वृक्ष

18) धम्मदस्सी बुद्ध : थेरवाद बौद्ध धर्म के पाली ग्रन्थ की बुद्धवम्सा और इसकी टीका के अनुसार, धम्मदस्सी बुद्ध  सत्ताईस बुद्धों  में से अठारवे बुद्धों हैं जिन्होंने सिद्धार्थ बुद्ध से पहले जन्म लिया था
जन्म स्थान :  सुरनांगरा 
माता -पिता : पिता सुराणामः और माता  सुनंदा 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : बिम्बफल वृक्ष

19) सिद्धार्थ बुद्ध : थेरवाद बौद्ध धर्म के पाली ग्रन्थ की बुद्धवम्सा और इसकी टीका के अनुसार, सिद्धार्थ बुद्ध सत्ताईस बुद्धों में से उनीसवे बुद्ध हैं जिन्होंने तिस्सा बुद्ध से पहले जन्म लिया था
जन्म स्थान : विभारानगर 
माता -पिता : पिता उडेनी और माता सुपासा 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : कनिहानी वृक्ष

20) तिस्सा बुद्ध : थेरवाद बौद्ध धर्म के पाली ग्रन्थ की बुद्धवम्सा और इसकी टीका के अनुसार, तिस्सा बुद्ध सत्ताईस बुद्धों में से बीसवें बुद्ध हैं जिन्होंने पुस्य बुद्ध से पहले जन्म लिया था
जन्म स्थान :  खेमनगर 
माता -पिता : पिता  जनसंदो और माता पदमा  
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : असान वृक्ष

21) पुस्य बुद्ध : थेरवाद बौद्ध धर्म के पाली ग्रन्थ की बुद्धवम्सा और इसकी टीका के अनुसार, पुस्य बुद्ध सत्ताईस बुद्धों में से इक्कीसवे बुद्ध हैं जिन्होंने विप्पसी बुद्ध से पहले जन्म लिया था
जन्म स्थान :  काशी 
माता -पिता : पिता जयसेन और माता श्रीमाया 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : अमला वृक्ष

22) विप्पसी बुद्ध : थेरवाद बौद्ध धर्म के पाली ग्रन्थ की बुद्धवम्सा और इसकी टीका के अनुसार, विप्पसी बुद्ध सत्ताईस बुद्धों में से बाईसवे बुद्ध हैं जिन्होंने सीखी बुद्ध से पहले जन्म लिया था
जन्म स्थान : बन्दुवतीनगर 
माता -पिता : पिता विपस्सी और माता विपस्सी 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : पतली वृक्ष

23) सीखी बुद्ध : थेरवाद बौद्ध धर्म के पाली ग्रन्थ की बुद्धवम्सा और इसकी टीका के अनुसार, सीखी बुद्ध सत्ताईस बुद्धों में से तेईसवे बुद्ध हैं जिन्होंने ऐतिहासिक गौतम बुद्ध से पहले जन्म लिया था
जन्म स्थान :  अरुणावत्तिनगर 
माता -पिता : पिता अरुणवत्त और माता प्रभावती 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : पुण्डरीको वृक्ष

24) वेस्सभू बुद्ध : थेरवाद बौद्ध धर्म के पाली ग्रन्थ की बुद्धवम्सा और इसकी टीका के अनुसार, वेस्सभू बुद्ध सत्ताईस बुद्धों में से चौबीसवे बुद्ध हैं जिन्होंने ककुसन्ध बुद्ध से पहले जन्म लिया था
जन्म स्थान : अनूपमानगर 
माता -पिता :  पिता सुप्पालीतथा और  माता यशवती
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : साल वृक्ष

25) ककुसन्ध बुद्ध : थेरवाद बौद्ध धर्म के पाली ग्रन्थ की बुद्धवम्सा और इसकी टीका के अनुसार, ककुसन्ध बुद्ध सत्ताईस बुद्धों में से पच्चीसवे बुद्ध हैं जिन्होंने कोणागमन बुध्द से पहले जन्म लिया था
जन्म स्थान : खेमवतीनगर 
माता -पिता : पिता अगिदत्त और माता विशाखा 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : आईरिस वृक्ष

26) कोणागमन बुध्द : थेरवाद बौद्ध धर्म के पाली ग्रन्थ की बुद्धवम्सा और इसकी टीका के अनुसार, कोणागमन बुध्द सत्ताईस बुद्धों में से छब्बीसवे बुद्ध हैं जिन्होंने कस्सप बुद्ध से पहले जन्म लिया था
जन्म स्थान : शोबावतीनगर 
माता -पिता : पिता यांनादत्त और माता उत्तरा 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : उदुम्बर वृक्ष

27) कस्सप बुद्ध : थेरवाद बौद्ध धर्म के पाली ग्रन्थ की बुद्धवम्सा और इसकी टीका के अनुसार, कस्सप बुद्ध  सत्ताईस बुद्धों में से सत्ताईसवे बुद्ध हैं जिन्होंने गौतम बुद्ध से पहले जन्म लिया था
जन्म स्थान :  बनारस 
माता -पिता : पिता राजा ब्रह्मदत्ता और माता धनावती
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : निग्रोद वृक्ष 

28) गौत्तम बुद्ध : बौद्ध परम्परा के अनुसार गौत्तम बुद्ध अट्ठाइसवे बुद्ध है 
जन्म स्थान : लुम्बिनी 
माता -पिता : पिता राजा शुद्धोधन और माता रानी महामाया 
ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) :अस्तु बोधि वृक्ष

29) मेत्तेय्य बुद्ध : मैत्रेय (संस्कृत), मेत्तेय्य (पाली), बौद्ध धर्मशास्त्र में इनहे  दुनिया का भावी बुद्ध माना जाता है। कुछ बौद्ध साहित्य, जैसे अमिताभ सूत्र और लोटस सूत्र में, उन्हें अजीता के रूप में जाना जाता है।
अनुमानित जन्म स्थान : केतुमति 
अनुमानित माता -पिता : पिता सुब्रमा और माता ब्रम्हावती 
अनुमानित ध्यान प्राप्ति का वृक्ष ( बोधिरुक्का ) : नागा बोधि वृक्ष

साधु साधु  साधु अनुमोदामि
#भिक्खुसाक्यमुनि

Friday, 17 June 2022

वृन्दावन की एक सत्य घटना

वृन्दावन की एक सत्य घटना  - VERY HEART TOUCHING :
  - एक बार वृन्दावन में एक संत हुए श्री देवाचार्य नागाजी महाराज(कोई कहता नागा बाबा) - निम्बार्क सम्प्रदाय में। उनकी बड़ी बड़ी जटाएं थी। वो वृन्दावन के सघन वन में जाके भजन करते थे।"हा राधे हा गोविंद" बोलके रोता था।
 एक दिन जा रहे थे तो रास्ते में उनकी बड़ी बड़ी जटाए झाडियो में उलझ गई। उन्होंने खूब प्रयत्न किया किन्तु सफल नहीं हो पाए।
 और थक के वही बैठ गए और बैठे बैठे गुनगुनाने लगे -
"हे मुरलीधर छलिया मोहन
 हम भी तुमको दिल दे बैठे,
गम पहले से ही कम तो ना थे,
एक और मुसीबत ले बैठे "
बहोत से ब्रजवासी जन आये और बोले बाबा हम सुलझा देवे तेरी जटाए तो बाबा ने सबको डांट के भगा दिया और कहा की जिसने उलझाई वोही आएगा अब तो सुलझाने।एक गहरा बिस्वास है मन मन्दिरमें भगवान के प्रति,एहि तो है भक्ति की असली शक्ति!!
 बहोत समय हो गया बाबा को बैठे बैठे......१ दिन,२दिन,३ दिन हो गये ...
 "कब कृपा करोगी राधे,
कब दोगी दर्शन,
तुम बिन शुना शुना,
मेरा यह जीवन"।
तभी सामने से १५-१६वर्ष का सुन्दर किशोर हाथ में लकुटी लिए आता हुआ अकेला दिखा। जिसकी मतवाली चाल देखकर करोडो काम लजा जाएँ। मुखमंडल करोडो सूर्यो के जितना चमक रहा था। और चेहरे पे प्रेमिओ के हिर्दय को चीर देने वाली मुस्कान थी।
 आते ही बाबा से बोले " बाबा हमहूँ सुलझा दें जटा"।
 बाबा बोले आप कोन हैं श्रीमान जी?
तो ठाकुर जी बोले -"हम है व्रजबिहारी"।
 तो बाबा बोले हम तो किसी व्रजबिहारी को नहीं जानते।
 तो भगवान् फिर आये थोड़ी देर में और बोले -"बाबा अब सुलझा दें"।
 तो बाबा बोले अब कोन है श्रीमान जी ।
 तो ठाकुर बोले -"हम हैं  वृन्दावन बिहारी"।
 तो बाबा बोले हम तो किसी वृन्दावन बिहारी को नहीं जानते।
 तो ठाकुर जी बोले तो बाबा किसको जानते हो बताओ?
तो बाबा बोले हम तो निकुंज बिहारी को जानते हैं।
 तो भगवान् ने तुरंत निकुंज बिहारी का स्वरुप बना लिया - हातो में बंशी,माथे पे मौरमुकुट,पीताम्बर धारण किये,बांकेबिहारी सी झलक।
और ठाकुरजी बोले -"ले बाबा अब जटा सुलझा दूँ"।
 तब बाबा बोले  -"च्यों रे लाला हमहूँ पागल बनावे लग्यो!
 निकुंज बिहारी तो बिना श्री राधा जू के एक पल भी ना रह पावे और एक तू है अकेलो आये मुझे ठगने के लिये।
 तभी पीछे से मधुर रसीली आवाज आई -" बाबा, हम यही हैं " - ये थी हमारी श्री राधाजी।
 और राधाजी बोली - "अब सुलझा देवे बाबा आपकी जटा"।
 तो बाबा मन्द मन्द मुस्कुराए और बोले -"लाडली जू, आपके साथ ठाकुजी का युगल दर्शन पा लिया अब ये जीवन ही सुलझ गया तो जटा की क्या बात है" !!!

राधे राधे ।।

**(यह स्थान अभी भी है,कदम्बखण्डी,भक्त सब दर्शन करते है।कहाँ जाता है कि, ठाकुरजी खुद बाबा की जटा खोल दिया,और राधाजी अपने हातो से बाबा को प्रसाद खिलाया,
उस स्थान पे अब राधाकृष्ण निकुंज बिहारी मंदिर है निम्बार्क सम्प्रदाय(सबसे प्राचीन राधाकृष्ण युगल भजन धारा) सेबित,उस मन्दिरमें इस घटना को पत्थर पे खोदाई किया गया है,यह बरसाना से गाड़ी में आधा घन्टा दूर है)

Path of Devotion

DEVOTEE: "Has God form, or is He formless?"

MASTER:"Wait, wait! 
First of all you must go to Calcutta; then only will you know where the Maidan, the Asiatic Society, and the Bengal Bank are located. If you want to go to the brahmin quarter of Khardaha, you must first of all go to Khardaha.

"Why should it not be possible to practice the discipline of the formless God? 
But it is very difficult to follow that path. One cannot follow it without renouncing 'woman and gold'. There must be complete renunciation, both inner and outer. You cannot succeed in this path if you have the slightest trace of worldliness.

"It is easy to worship God with form. But it is not easy as all that.

"One should not discuss the discipline of the Impersonal God or the path of knowledge with a bhakta.
Through great effort perhaps he is just cultivating a little devotion. You will injure it if you explain away everything as a mere dream.

"Kabir was a worshipper of the Impersonal God. He did not believe in Śiva, Kāli, or Krishna. He used to make fun of them and say that Kāli lived on the offerings of rice and banana, and that Krishna danced like a
monkey when the gopis clapped their hands. (All laugh).

"One who worships God without form perhaps sees at first the deity with ten arms, then the deity with four arms, then the Baby Krishna with two arms. At last he sees the Indivissible Light and merges in It.

"It is said that sages like Dattatreya and Jadabharata did not return to the relative plane after having the visition of Brahman. According to some people Sukadeva tasted only a drop of that Ocean of Brahman-
Consciousness. He saw and heard the rumbling of the waves of that Ocean, but did not dive into It.

"A brahmachari once said to me, 'One who goes beyond Kedār cannot keep his body alive.' Likewise, a man cannot preserve his body after attaining Brahmajnana. The body drops off in twenty-one days.

"There was an infinite field beyond a high wall. Four friends tried to find out what was beyond the wall.
Three of them, one after the other, climbed the wall, saw the field, burst into loud laughter, and dropped to the other side. These three could not give any information about the field. Only the fourth man came back and told people about it. He is like those who retain their bodies, even after attaining Brahmajnana, in order to teach others. Divine Incarnations belong to this class.

"Parvati was born as the daughter of King Himalaya. After Her birth She revealed to the king Her various divine forms. 
The father said: 'Well, Daughter, You have shown me all these forms. That is nice. But You have another aspect, which is Brahman. Please show me that.' 
'Father,' replied Parvati, 'if you seek the Knowledge of Brahman, then renounce the world and live in the company of holy men.' But King Himalaya insisted. 
Thereupon Parvati revealed Her Brahman-form, and immediately the king fell down unconscious.

"All that I have just said belongs to the realm of reasoning. Brahman alone is real and the world illusory-that is reasoning. And everything but Brahman is like a dream. But this is an extremely difficult path. To one who follows it even the divine play in the world becomes like a dream and appears unreal; his 'I' also vanishes.
The followers of this path do not accept the Divine Incarnation. It is a very difficult path. The lovers of God should not hear much of such reasoning.

"That is why God incarnates Himself as man and teaches people the path of devotion. He exhorts people to cultivate self-surrender to God. Following the path of devotion, one realizes everything through His grace both
Knowledge and Supreme Wisdom.

- The Gospel of Sri Ramakrishna

Saturday, 11 June 2022

ENCOUNTER WITH GHOST

ENCOUNTER WITH GHOST 

Swami Trigunatitananda doubted the existence of ghosts. He visited some haunted houses in the hope of seeing ghosts, but he was unsuccessful. Someone told him that at a certain house in Baranagar, ghosts can be seen at midnight. Without telling anyone, he went there before midnight and waited for the ghost. Suddenly he saw a faint light appear in the corner of the room. The light grew brighter and there appeared an eye at the centre. It approached him with deadly malevolence. The Swami felt his blood dry up in his veins and his body withering fast in the sinister light of that eye. He was about to faint. Immediately Sri Ramakrishna appeared.

Holding his hand, the Master said: "My child, why are you so foolishly taking chances with certain death? It is sufficient to keep your mind fixed on me." With those words the Master disappeared. His spirit at once revived and he left the house, his curiosity about ghosts satisfied forever.

Swami Trigunatitananda once found himself on the bank of a river with no way to cross except by walking over a ruined dam. He decided to cross the river by seeing the rocks by the moon light. When he reached the mid-stream, suddenly cloud hid the moon light and he was helpless in the pitch dark. One false step meant sure death. Suddenly he heard a voice: "Follow me."

He went forward. Before he knew it, he was already on firm ground on the other bank! Now the moon shone again but there was nobody around. He understood that the Master's grace and protection were still with him.

SRI RAMAKRISHNA .
The All Encompassing Supreme Lord . 
Author : Swami Jnanadananda .

Wednesday, 8 June 2022

वामाखेपा - भगवती तारा का अनोखा भक्त

#माँ_का_अनोखा_भक्त
पश्चिम बंगाल के एक गांव में वामा चरण नाम के बालक का जन्म हुआ । बालक के जन्म के कुछ समय बाद उसके पिता का देहांत हो गया । माता भी गरीब थी । इसलिए बच्चों के पालन पोषण की समस्या आई । उन्हें मामा के पास भेज दिया गया । मामा तारापीठ के पास के गांव में रहते थे । जैसा कि आमतौर पर अनाथ बच्चों के साथ होता है । दोनों बच्चों के साथ बहुत अच्छा व्यवहार नहीं हुआ ।
धीरे-धीरे वामाचरण की रुचि साधु संगति की तरफ होने लगी। गांव के मशान में आने वाले बाबाओं की संगत में रहते हुए बामाचरण में भी देवी के प्रति रुझान बढ़ने 
लगा। अब वह तारा माई को बड़ी मां कहते और अपनी मां को छोटी मां ।
   
बामा चरण कभी श्मशान में जलती चिता के पास जाकर बैठ जाता, तो कभी यूं ही हवा में बातें करता रहता। ऐसे ही वह युवावस्था तक पहुंच गया। उसकी हरकतों की वजह से उसका नाम बामाचरण से वामा खेपा पड़ चुका था। खेपा का मतलब होता है पागल। यानी गांव वाले उसको आधा पागल समझते थे। उसके नाम के साथ उन्होंने पागल उपनाम जोड़ दिया था। वे यह नहीं जानते थे कि वस्तुत: कितनी उच्च कोटि का महामानव उनके साथ है।

वह भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि थी । मंगलवार का दिन था । भगवती तारा की सिद्धि का परम सिद्ध मुहूर्त । रात का समय था । बामाखेपा जलती हुई चिता के बगल में श्मशान में बैठा हुआ था तभी !

नीले आकाश से ज्योति फूट पड़ी और चारों तरफ प्रकाश ही प्रकाश फैल गया। 

उसी प्रकाश में वामाचरण को माँ तारा के दर्शन हुए। ।
कमर में बाघ की खाल पहने हुए !

एक हाथ में कैंची लिए ।

एक हाथ में खोपड़ी लिए ।
   
एक हाथ में नीले कमल का पुष्प लिए ।

एक हाथ में खड्ग लिए हुए।

महावर लगे सुंदर पैरो में पायल पहने ।

खुले हुए कमर तक बिखरे केश से युक्त ,

परम ब्रह्मांड की स्वामिनी, सौंदर्य की प्रतिमूर्ति ।

नील वर्णी , मंद मंद मुसकाती माँ तारा, वामाखेपा के सामने खड़ी थी…….

वामाखेपा उस भव्य और सुंदर देवी को देखकर खुशी से भर गए। माता ने उसके सर पर हाथ फेरा और वामाखेपा वही समाधिस्थ हो गए  । 

3 दिन और 3 रात उसी समाधि की अवस्था में वे श्मशान में रहे । 3 दिन के बाद उन्हें होश आया और होश आते ही वह मां मां चिल्लाते हुए इधर उधर दौडने लगे । अब गांव वालों को पूरा यकीन हो गया कि बामा पूरा पागल हो गया है । बामा की यह स्थिति महीने भर रही ....

कुछ दिन बाद वहां की रानी जी को सपने में भगवती तारा ने दर्शन दिए और निर्देश दिया कि मसान के पास मेरे लिए मंदिर का निर्माण करो और बामा को पुजारी बनाओ। अगले दिन से मंदिर निर्माण का कार्य प्रारंभ हो गया। कुछ ही दिनों में मंदिर बनकर तैयार हो गया और बामा को मंदिर का पुजारी बना दिया गया। बामा बेहद खुश हो गए क्योंकि  उनकी बड़ी मां अब उनके साथ थी…...
  

रानी के द्वारा बनाया मंदिर अर्थात मोटे चढ़ावे की संभावना। अब ऐसे मंदिर में एक आधे पागल को पुजारी बनाना बहुत से पण्डों को रास नहीं आया। वे बामाखेपा को निपटाने का मार्ग खोजते रहते थे। बामाखेपा की हरकतें अजीब अजीब हुआ करती थी । कई बार वह दिन भर पूजा करता । कई बार दो-तीन दिन तक पूजा ही नहीं करता। कभी देवी को माला पहनाता कभी खुद पहन लेता । इनमें से कोई भी क्रम पंडों के हिसाब से शास्त्रीय पूजन विधि से मैच नहीं खाता था ।  यह बात उनको खटक रही थी।

फिर एक दिन ऐसा हुआ कि प्रसाद बना और प्रसाद बनने के बाद जब मंदिर में पहुंचा तो देवी को भोग लगाने से पहले वामा चरण के मन में विचार आया, कि इसे चख कर देख लो कि यह माता के खाने के लायक है या नहीं । बस फिर क्या था । उन्होंने प्रसाद की थाली में हाथ डाला और चखने के लिए अपने मुंह में डाल लिया । चखने के बाद जब सही लगा तो बाकी प्रसाद उन्होंने माई को अर्पित कर दिया  ।
   
इतना बड़ा अवसर पंडित कहाँ छोड़ते । उन्होंने बवाल मचा दिया कि, देवी के प्रसाद को बामा ने खा लिया है । उसे जूठा कर दिया है। जूठा प्रसाद देवी को चढ़ा दिया 
है । अब देवी रुष्ट हो जाएगी, उसका प्रकोप सारे गांव को झेलना पड़ेगा । उसके बाद भीड़तंत्र का बोलबाला हुआ और गांव वालों ने मिलकर पंडों के साथ बामाचरण की कस कर पिटाई कर दी । उसे श्मशान में ले जाकर फेंक दिया ।
मंदिर पर पण्डों का कब्जा हो गया । उन्होंने शुद्धिकरण और तमाम प्रक्रियाएं की । उस दिन पूजन पण्डों के अनुसार संपन्न हुआ ।

उधर बामाखेपा को होश आया तो वह माई पर गुस्सा हो गया - मैंने गलत क्या किया जो तूने मुझे पिटवा दिया । तुझे देने से पहले खाना स्वादिष्ट है या नहीं देख रहा था । इसमें मेरी गलती क्या थी ? मैं तो तुम्हें स्वादिष्ट भोग लगाने का प्रयास कर रहा था और चाहता था कि तुझे अच्छे स्वाद का प्रसाद ही मिले । अगर स्वाद गड़बड़ होता तो उसे फेककर दूसरा बनवाता । लेकिन तूने बेवजह मुझे पिटवाया जा मैं अब तेरे पास नही आऊंगा ।

मसान घाट पर बैठकर बामाचरण ने मां को सारी बातें सुना दी और वहां से उठकर चला गया जंगल की ओर । जंगल में जाकर एक गुफा में बैठ गया । यह स्थिति बिलकुल वैसे ही थी जैसे अपनी मां से रूठ कर बच्चे किसी कोने में जाकर छुप जाते हैं । बामाचरण और तारा माई के बीच में मां और बेटे जैसा रिश्ता था । यह रिश्ता बिल्कुल वैसा ही था जैसे एक अबोध शिशु और उसकी मां की बीच में होता है ।

अपने शिशु की व्यथा तारा माई को सहन नहीं हुई । उसी रात रानी के स्वप्न में माई प्रकट हुई । 

क्रोधित माई ने रानी को फटकार लगाई - तेरे पण्डों ने मेरे पुत्र को बुरी तरह से मारा है । मैं तेरा मंदिर छोड़ कर जा रही हूं । अब तुझे और तेरे राज्य को मेरा प्रकोप सहना पड़ेगा, अगर उससे बचना चाहती है तो कल के कल मेरे पुत्र को वापस लाकर मंदिर में पूजा का भार सौंप,  वरना प्रतिफल भुगतने के लिए तैयार रह ।

एक तो तारा माई का रूप ऐसे ही भयानक है । क्रोधित अवस्था में तो सीधी सरल माता भी काली से कम नहीं दिखाई देती । क्रोधित माई का स्वरूप व्याख्या से परे 
था ।

रानी हड़बड़ा कर पलंग पर उठ बैठी । रानी के लिए रात बिताना भी मुश्किल हो गया । उसने सारी रात जागकर बिताई ।

अगले दिन अपने सेवकों को दौड़ाया और मामले का पता    लगाने के लिए कहा । जैसे ही पूरी जानकारी प्राप्त हुई रानी अपने लाव लश्कर के साथ मंदिर पहुंच गई । सारे पण्डों को कसकर फटकार लगाई और मंदिर में प्रवेश से प्रतिबंधित कर दिया । अपने सेवकों को आदेश दिया कि जैसे भी हो बामाखेपा को ढूंढ कर लाओ ।

अब सारे सेवक चारों तरफ बामाखेपा की खोज में लग गए । एक सेवक को गुफा में बैठा हुआ बामाखेपा मिल गया । बड़ी मनोव्वल के बाद भी वह नहीं माना तो सेवक ने जाकर रानी को बात बताई । अंततः रानी खुद गुफा तक पहुंची ।

बामा ने उनपर भी अपना गुस्सा उतारा - आप के कहने पर मैं पूजा कर रहा था और मुझे देखो इन लोगों ने कितना मारा !

उनकी बाल सुलभ सहजता को देखकर रानी का नारी हृदय भी ममत्व से भर गया । उनकी समझ में आ गया कि तारा माई का मातृत्व इस बामाखेपा के प्रति क्यों है ।

उन्होंने फरमान जारी कर दिया -  इस मंदिर का पुजारी बामाखेपा है । उसकी जैसी मर्जी हो जैसी विधि वह करना चाहे उस प्रकार से पूजा करने के लिए वह स्वतंत्र है। कोई भी उसके मार्ग में आएगा तो दंड का भागी होगा। यह मंदिर बामाखेपा का है और तारा माई भी बामाखेपा की है। वह जिस विधान को सही समझे, उस विधान से पूजा करेगा और वही विधान यहां पर सही माना जाएगा।

बामाखेपा को तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गई । मां और बेटे का मिलन हो चुका था । मंदिर व्यवस्था फिर से बामाखेपा के हिसाब से चलने लगी ।

ऐसा माना जाता है कि तारा माई खुद बामाखेपा के हाथ से प्रसाद ग्रहण करती थी । ऐसे अद्भुत ढंग से बामाखेपा तारा माई के पूजन करते जिसका कोई नियम नहीं था । कभी सुबह 4 बजे पूजा चल रही है तो कभी दोपहर 12 बजे तक पूजा प्रारंभ नहीं होती । कभी रात भर पूजा चल रही है तो कभी पूरे दिन भर मंदिर की ओर बामाखेपा के दर्शन ही नहीं होते थे। उनकी पूजन विधि लोगों को पसंद नहीं थी, लेकिन उनके पास कोई उपाय नहीं था, क्योंकि रानी का फरमान था । बामाखेपा अपनी मस्ती में जीते थे और लोग उन्हें नीचा दिखाने का रास्ता खोजते । 

एक दिन बामाखेपा की मां का निधन हो गया । नदी में बाढ़ थी । नदी के उस पार गांव था ।बामा जिद पर अड़ गए छोटी मां का दाह संस्कार बड़ी मां के पास वाले श्मशान में किया जाएगा । गांव वाले बाढ़ वाली नदी को पार करने में  जान का खतरा है यह जानते थे, लेकिन बामा को समझाना किसी के बस की बात नहीं ।

नाव वाले से बाबा ने देह को नदी के पार पहुंचाने की बात की । नाव वाले ने साफ इंकार कर दिया । बाबा ने नाव देने के लिए कहा । नाव वाला हाथ जोड़कर बोला - 
"बाबा यही मेरे जीवन का सहारा है अगर बाढ़ में यह बह गया तो मैं घर कैसे चलाउँगा ?"

बामा के चेहरे में रहस्यमई मुस्कान बिखर गई । जैसे उन्होंने कोई निर्णय ले लिया हो । उन्होंने अपनी माता के शव को उठाया और खुद नदी पर चलते हुए इस पार पहुंच गए । गांव वाले आंखें फाड़े उस दृश्य को देखते रह गए । बामा की इच्छा के अनुसार ही उन्होंने माई के मंदिर के पास वाले श्मशान में अपनी मां का दाह संस्कार संपन्न किया ।

मृत्यु भोज के लिए आसपास के सारे गांव में जितने लोग हैं, सभी को निमंत्रित करने के लिए बामाखेपा ने अपने घर के लोगों और आसपास के लोगों को कहा । सब इसे बामाखेपा का पागलपन समझकर शांत रहें । जिसके पास दो वक्त की रोटी का पता नहीं वह आसपास के 20 गांव को खाना कैसे खिलाएंगा यह उनके लिए कल्पना से भी परे की बात थी ।

जब कोई भी निमंत्रण देने जाने को तैयार नहीं हुआ तो बामाखेपा अकेले निकल पड़े । उन्होंने आसपास के 20 गांवों में हर किसी को मृत्यु भोज के लिए आमंत्रित कर लिया । सारे गांव वाले यह देखने के लिए तारापीठ पहुंचने लगे कि देखा जाए यह पगला किस प्रकार से इतने सारे लोगों को मृत्यु भोज कराता है ।

गांव वालों की आंखें उस समय फटी की फटी रह गई जब सुबह से बैल गाड़ियों में भर-भर कर अनाज सब्जी आदि तारापीठ की तरफ आने लगी । बैल गाड़ियों का पूरा एक काफिला मंदिर के पास पहुंच गया । अनाज और सब्जियों का ढेर लग गया । जो लोग आए थे उन्होंने खाना बनाना भी प्रारंभ कर दिया । दोपहर होते-होते सुस्वादु भोजन की गंध से पूरा इलाका महक रहा था ।

प्रकृति भी अपना परीक्षण कब छोड़ती है, आसमान में बादल छाने लगे। प्रकृति ने भी उग्र रूप धारण कर लिया। बिजली कड़कने लगी । हवाएं चलने लगी और जोरदार बारिश के आसार नजर आने लगे । बामाखेपा अपनी जगह से उठे और जिस जगह पर श्राद्ध भोज होना था, उस पूरे जगह को बांस के डंडे से एक घेरा बनाकर घेर दिया ।

घनघोर बारिश चालू हो गई लेकिन घेरे के अंदर एक बूंद पानी भी नहीं गिरी । गांव वाले देख सकते थे कि वे जहां बैठकर भोजन कर रहे हैं वह पूरा हिस्सा सूखा हुआ है, और उस घेरे के बाहर पानी की मोटी मोटी बूंदें बरस रही है । जमीन से जल धाराएं बह रही हैं । वह पूरा इलाका जिसमें भोज का आयोजन था ,पूरी तरह से सूखा हुआ था । 20 गांव से आए हुए सभी लोगों ने छक कर भोजन किया । हर कोई तृप्त हो गया ।

अब बारी थी वापस अपने अपने गांव जाने की । घनघोर बारिश को देखते हुए वापस जाने के लिए दिक्कत आएगी यह सोचकर सभी चिंतित थे । 

बामाखेपा ने माई के सामने अपना अनुरोध पेश किया और कुछ ही क्षणों में आसमान पूरी तरह से साफ हो गया और धूप खिल गई । सारे लोग बड़ी सहजता से अपने अपने गांव तक पहुंच गए ।

इस घटना के बाद बामाखेपा की अलौकिकता के बारे में लोगों को पता लगा । धीरे-धीरे लोगों की भीड़ बामाखेपा की तारा पीठ में बढ़ने लगी । कोई बीमार आता तो बामाखेपा उस पर हाथ फेर देते तो वह स्वस्थ हो जाता 
है । निसंतानों को संतान की प्राप्ति हो जाती और सभी आगंतुकों की इच्छा और मनोकामना तारापीठ में पूरी होने लगी ।

बामाखेपा कभी भी बिना चखे माई को भोजन नहीं कराते थे । माई स्वयं अपने हाथ से उनको भोजन खिलाती थी और उनके हाथों से भोजन ग्रहण करती थी । ऐसे अद्भुत महामानव बामाखेपा अपने अंत समय में माई की  प्रतिमा में लीन हो गए ।
                            जय माँ तारा 
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श्रीभगवान् और उनका नाम अभिन्न हैं

॥ ओम नारायण ॥
श्रीभगवान् और उनका नाम अभिन्न हैं - श्रीरामकृष्ण परमहंसजीका उपदेश।

      'श्रीमगवान् और उनका नाम अभिन्न हैं । नाम उनकी शक्ति है । नामकी कृपासे उनके चिन्मयरूपका दर्शन प्राप्त होता है । नामके द्वारा ज्ञान होता है, प्रेम होता है । नामकी कृपासे उनका संभोग प्राप्त होता है । नाम सत्य है, नाम नित्य है ।' 
       'कलियुगमें भक्तियोग है- नारदीय भक्ति । नारदीय भक्ति यानी भगवानका नाम-गुण-कीर्तन करना । कलियुगमें याग यज्ञ वेदोक्त कर्म करनेके लिये समय कहाँ है ? नामका आश्रय लेने पर  विचारकी आवश्यकता नहीं रहती । नामके गुणसे सारे संदेह और कुतर्क दूर हो जाते हैं । नामसे देह-मन शुद्ध होता है और ईश्वरकी प्राप्ति होती है । निर्जनमें गुप्त रूपसे नाम लेते-लेते उनकी कृपा होती है, फिर दर्शन होते हैं । राम हैं, वहीनाम है ।' 
        एक साधु आये थे । नाममें उनका अनन्य   विश्वास था । उनके पास और कुछ भी नहीं था- केवल एक लोटा और एक किताब । किताबको वे बड़े आदरसे रखते । प्रतिदिन फूल चढ़ाकर पूजा करते और बीच-बीचमें खोलकर देखते । उनसे बातचीत हुआ करती । एक दिन बहुत कुछ कह-सुनकर उनसे देखनेके लिये किताब माँग ली । खोलकर देखा तो उसमें लाल स्याही से बड़े-बड़े अक्षरोंमें लिखा था- 'ऊँ राम:' । उन्होंने कहा, 'बहुत ग्रन्थोंको पढ़कर क्या होता है ? एक भगवानसे ही तो सारे वेद-पुराण निकले है । उनमें और उनके नाममें अभेद है । अतएव चार वेद, अठारह पुराण- सब शास्त्रोंमें जो कुछ है, वह सभी एक नाममें विद्यमान है । इससे बस, उनका नाम ही ले रक्खा है ।' 
       'अमृतके कुण्डमें चाहे कोई इच्छापूर्वक उतरकर नहा ले या भूलसे गिर पडे, अथवा कोई धक्का देकर गिरा दे,---अमृतका स्पर्श होते ही वह अमर हो जाता है । इसी प्रकार भगवानका नाम चाहे जैसे भी लिया जाय- वह भगवान को मिला देता है । 
       एक साघुसे किसीने पूछा- महाराज  नाम लेऩेसे क्या होता है ? साधुने उत्तर दिया…'क्या होता है ?' नामसे क्या नहीं होता ? जिस मायाने जगतको मोहित कर रखा है, अज्ञानी बना रखा है- नामके प्रभावसे वह माया भी मोहित हो जाती है- अपना प्रभाव खो देती है । चाहनेसे कहीं बहुत अधिक प्राप्त होता है । चाहना-पाना दोनों मिटजाते हैं ।' 
       कल्पवृक्ष सम है सदा करुणामय हरिनाम ।
       चाह किए देता मुकति, प्रेम किए बृज धाम ॥
        'नाम कल्पतरु है- मुक्ति चाहोगे, मुक्ति मिलेगी; ब्रह्मानंद चाहोगे, ब्रह्मानंद मिलेगा; ब्रजरस चाहोगे, ब्रजरस मिलेगा । नाम सब अभीष्टका देनेवाला है । नामके लिये कुछ भी असाध्य नहीं है ।' 
             नामैव परमो धर्मों नामैव परमं तप: ।
             नामैव परमो बन्धुर्नामैव जगतां गति: ॥
        'नाम ही परम धर्म है, नाम ही परम तप है, नाम ही परम बन्धु है, नाम ही जगतकी गति है । हरिनाम सुखका धाम है, नामके समान कोई सम्पत्ति नहीं है, नामके समान शक्ति नहीं है, नामके समान संग नही है, नामके समान कुछ भी नहीं हैं ।' 
        'नाम ही परम गुरु है ।' 
       'मनुष्यकी क्या सामर्थ्य है कि वह दूसरेको संसार-बंधनसे मुक्त करे ? जिसकी भुवनमोहिनी माया है , वे ही मायासे मुक्त कर सकते हैं । सच्चिदानंदके बिना गति नहीं है। नाम ही सच्चिदानंद है।
।।ओम नारायण।।

गीता प्रेस गोरखपुरसे प्रकाशित 'भगवन्नाम महिमा और प्रार्थना अंक' (कल्याण )से।

Shiva and Shakti

One Tuesday evening, that I spent with Mother after Saraswati Puja, will remain forever etched in my memory. When I went to the rear entrance quarter to meet Mother that evening, I found her already seated there. She did not notice my presence. Having misgivings, I stood apart silently and waited to see how long it would take her to notice me and speak to me. As I observed her closely, I noticed that though She was seated with her legs stretched out before her due to rheumatism, her body was held erect. Her eyes were open but unseeing. I did not disturb her and stood waiting quietly, drinking in the expression on that face with a steadfast gaze. After ten or fifteen minutes she spoke. She said: “How long have you been here?” I said: “Not very long. How long ago did you come here, Mother?” “I don't like being cooped up indoors. So when others went to rest in the afternoon, I came out to be by myself, in the solitude”, - she said. It struck me that this was just why in Kolkata, whether in the rented houses or even in her own house, she would sometimes go up to the roof and sit there alone. 

Mother continued to speak. The manner, in which she spoke I shall not try to describe for my judgement may be faulty. What conception do we have of such souls? I’m only repeating her words. She said: “This coming again and again is there no escape from it? Where there is Shiva, there is also Shakti - Shiva, Shakti, together. Time and again the same Shiva, the same Shakti. No escape. People still fail to realize what pain Master undergoes for their sake. Such arduous austerities! What’s the need for them? Even then austerities, only for the sake of people. Are the people themselves capable of it? Do they have that energy, that strength? That’s why Master has to do it all. There’s a song they sing at Kankurgachhi, do you know it?” 

I asked: “Which song, Mother?” 

Mother: “”The Master of the destitutes has come, for the sake of the destitutes”. My sons are truly destitute. Once they call out “Mother”, can one remain unmoved? At once Master has to come”. 

I asked: “Was this same Master manifested in Chaitanyadeva too?” 

Mother: “Yes, yes! This same Master, over and over again. The same moon everyday. There is no escape. He is committed. They are all His creatures. If He does not take care of them, who will? He has promised “whenever you call me, I shall come to you”. Keep this in mind, don’t forget. You just have to call Him to come - after all He is the Kalpataru (the wish-fulfilling tree)!” 

I said: “I know only my Mother”. 

Mother replied: “It is the Master, who taught the word “Mother”. Was it in use before? His creation - He procreates and He devours. What does “devour” signify? It signifies Liberation. It is his recreation, his play!” 

Ashutosh Mitra
(“Reminiscences of Sri Sarada Devi by Monastics, Devotees, and Others” compiled and edited by Swami Purnatmananda, Advaita Ashrama 2007, Ashutosh Mitra, pp. 220-1)

अफजल खां का वध

20 नवम्बर, 1659 ई. - अफजल खां का वध :- बीजापुर की तरफ से अफजल खां को छत्रपति शिवाजी महाराज के खिलाफ भेजा गया। अफजल खां 10 हज़ार क...