श्रीभगवान् और उनका नाम अभिन्न हैं - श्रीरामकृष्ण परमहंसजीका उपदेश।
'श्रीमगवान् और उनका नाम अभिन्न हैं । नाम उनकी शक्ति है । नामकी कृपासे उनके चिन्मयरूपका दर्शन प्राप्त होता है । नामके द्वारा ज्ञान होता है, प्रेम होता है । नामकी कृपासे उनका संभोग प्राप्त होता है । नाम सत्य है, नाम नित्य है ।'
'कलियुगमें भक्तियोग है- नारदीय भक्ति । नारदीय भक्ति यानी भगवानका नाम-गुण-कीर्तन करना । कलियुगमें याग यज्ञ वेदोक्त कर्म करनेके लिये समय कहाँ है ? नामका आश्रय लेने पर विचारकी आवश्यकता नहीं रहती । नामके गुणसे सारे संदेह और कुतर्क दूर हो जाते हैं । नामसे देह-मन शुद्ध होता है और ईश्वरकी प्राप्ति होती है । निर्जनमें गुप्त रूपसे नाम लेते-लेते उनकी कृपा होती है, फिर दर्शन होते हैं । राम हैं, वहीनाम है ।'
एक साधु आये थे । नाममें उनका अनन्य विश्वास था । उनके पास और कुछ भी नहीं था- केवल एक लोटा और एक किताब । किताबको वे बड़े आदरसे रखते । प्रतिदिन फूल चढ़ाकर पूजा करते और बीच-बीचमें खोलकर देखते । उनसे बातचीत हुआ करती । एक दिन बहुत कुछ कह-सुनकर उनसे देखनेके लिये किताब माँग ली । खोलकर देखा तो उसमें लाल स्याही से बड़े-बड़े अक्षरोंमें लिखा था- 'ऊँ राम:' । उन्होंने कहा, 'बहुत ग्रन्थोंको पढ़कर क्या होता है ? एक भगवानसे ही तो सारे वेद-पुराण निकले है । उनमें और उनके नाममें अभेद है । अतएव चार वेद, अठारह पुराण- सब शास्त्रोंमें जो कुछ है, वह सभी एक नाममें विद्यमान है । इससे बस, उनका नाम ही ले रक्खा है ।'
'अमृतके कुण्डमें चाहे कोई इच्छापूर्वक उतरकर नहा ले या भूलसे गिर पडे, अथवा कोई धक्का देकर गिरा दे,---अमृतका स्पर्श होते ही वह अमर हो जाता है । इसी प्रकार भगवानका नाम चाहे जैसे भी लिया जाय- वह भगवान को मिला देता है ।
एक साघुसे किसीने पूछा- महाराज नाम लेऩेसे क्या होता है ? साधुने उत्तर दिया…'क्या होता है ?' नामसे क्या नहीं होता ? जिस मायाने जगतको मोहित कर रखा है, अज्ञानी बना रखा है- नामके प्रभावसे वह माया भी मोहित हो जाती है- अपना प्रभाव खो देती है । चाहनेसे कहीं बहुत अधिक प्राप्त होता है । चाहना-पाना दोनों मिटजाते हैं ।'
कल्पवृक्ष सम है सदा करुणामय हरिनाम ।
चाह किए देता मुकति, प्रेम किए बृज धाम ॥
'नाम कल्पतरु है- मुक्ति चाहोगे, मुक्ति मिलेगी; ब्रह्मानंद चाहोगे, ब्रह्मानंद मिलेगा; ब्रजरस चाहोगे, ब्रजरस मिलेगा । नाम सब अभीष्टका देनेवाला है । नामके लिये कुछ भी असाध्य नहीं है ।'
नामैव परमो धर्मों नामैव परमं तप: ।
नामैव परमो बन्धुर्नामैव जगतां गति: ॥
'नाम ही परम धर्म है, नाम ही परम तप है, नाम ही परम बन्धु है, नाम ही जगतकी गति है । हरिनाम सुखका धाम है, नामके समान कोई सम्पत्ति नहीं है, नामके समान शक्ति नहीं है, नामके समान संग नही है, नामके समान कुछ भी नहीं हैं ।'
'नाम ही परम गुरु है ।'
'मनुष्यकी क्या सामर्थ्य है कि वह दूसरेको संसार-बंधनसे मुक्त करे ? जिसकी भुवनमोहिनी माया है , वे ही मायासे मुक्त कर सकते हैं । सच्चिदानंदके बिना गति नहीं है। नाम ही सच्चिदानंद है।
।।ओम नारायण।।
गीता प्रेस गोरखपुरसे प्रकाशित 'भगवन्नाम महिमा और प्रार्थना अंक' (कल्याण )से।
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