Friday 13 October 2017

Why Divine Mother is superior ?

💧💦💧💦💧💦💧💦💧💦💧

*एक बहुत अदभुत घटना मैं आपसे कहता हूं।*
वाचस्पति मिश्र का विवाह हुआ। पिता ने आग्रह किया, वाचस्पति की कुछ समझ में न आया; इसलिए उन्होंने हां भर दी। सोचा, पिता जो कहते होंगे, ठीक ही कहते होंगे। वाचस्पति लगा था परमात्मा की खोज में। उसे कुछ और समझ में ही न आता था। कोई कुछ भी बोले, वह परमात्मा की ही बात समझता था। पिता ने वाचस्पति को पूछा, विवाह करोगे? उसने कहा, हां।

उसने शायद सुना होगा, परमात्मा से मिलोगे? जैसा कि हम सब के साथ होता है। जो धन की खोज में लगा है, उससे कहो, धर्म खोजोगे? वह समझता है, शायद कह रहे हैं, धन खोजोगे? उसने कहा, हां। हमारी जो भीतर खोज होती है, वही हम सुन पाते हैं। वाचस्पति ने शायद सुना; हां भर दी।

फिर जब घोड़े पर बैठ कर ले जाया जाने लगा, तब उसने पूछा, कहां ले जा रहे हैं? उसके पिता ने कहा, पागल, तूने हां भरा था। विवाह करने चल रहे हैं। तो फिर उसने न करना उचित न समझा; क्योंकि जब हां भर दी थी और बिना जाने भर दी थी, तो परमात्मा की मर्जी होगी।

वह विवाह करके लौट आया। लेकिन पत्नी घर में आ गई, और वाचस्पति को खयाल ही न रहा। रहता भी क्या! न उसने विवाह किया था, न हां भरी थी। वह अपने काम में ही लगा रहा। वह ब्रह्मसूत्र पर एक टीका लिखता था। वह बारह वर्ष में टीका पूरी हुई। बारह वर्ष तक उसकी पत्नी रोज सांझ दीया जला जाती, रोज सुबह उसके पैरों के पास फूल रख जाती, दोपहर उसकी थाली सरका देती। जब वह भोजन कर लेता, तो चुपचाप पीछे से थाली हटा ले जाती। बारह वर्ष तक उसकी पत्नी का वाचस्पति को पता नहीं चला कि वह है। पत्नी ने कोई उपाय नहीं किया कि पता चल जाए; बल्कि सब उपाय किए कि कहीं भूल-चूक से पता न चल जाए, क्योंकि उनके काम में बाधा न पड़े।

बारह वर्ष जिस पूर्णिमा की रात वाचस्पति का काम आधी रात पूरा हुआ और वाचस्पति उठने लगे, तो उनकी पत्नी ने दीया उठाया--उनको राह दिखाने के लिए उनके बिस्तर तक। पहली दफा बारह वर्ष में, कथा कहती है, वाचस्पति ने अपनी पत्नी का हाथ देखा। क्योंकि बारह वर्ष में पहली दफा काम समाप्त हुआ था। अब मन बंधा नहीं था किसी काम से। हाथ देखा, चूड़ियां देखीं, चूड़ियों की आवाज सुनी। लौट कर पीछे देखा और कहा, स्त्री, इस आधी रात अकेले में तू कौन है? कहां से आई? द्वार मकान के बंद हैं, कहां पहुंचना है तुझे, मैं पहुंचा दूं!

उसकी पत्नी ने कहा, आप शायद भूल गए होंगे, बहुत काम था। बारह वर्ष आप काम में थे। याद आपको रहे, संभव भी नहीं है। बारह वर्ष पहले, खयाल अगर आपको आता हो, तो आप मुझे पत्नी की तरह घर ले आए थे। तब से मैं यहीं हूं।

वाचस्पति रोने लगा। उसने कहा, यह तो बहुत देर हो गई। क्योंकि मैंने तो प्रतिज्ञा कर रखी है कि जिस दिन यह ग्रंथ पूरा हो जाएगा, उसी दिन घर का त्याग कर दूंगा। तो यह तो मेरे जाने का वक्त हो गया। भोर होने के करीब है; तो मैं जा रहा हूं। पागल, तूने पहले क्यों न कहा? थोड़ा भी तू इशारा कर सकती थी। लेकिन अब बहुत देर हो गई।

वाचस्पति की आंखों में आंसू देख कर पत्नी ने उसके चरणों में सिर रखा और उसने कहा, जो भी मुझे मिल सकता था, वह इन आंसुओं में मिल गया। अब मुझे कुछ और चाहिए भी नहीं है। आप निश्चिंत जाएं। और मैं क्या पा सकती थी इससे ज्यादा कि वाचस्पति की आंख में मेरे लिए आंसू हैं! बस, बहुत मुझे मिल गया है।

वाचस्पति ने अपने ब्रह्मसूत्र की टीका का नाम भामति रखा है। भामति का कोई संबंध टीका से नहीं है। ब्रह्मसूत्र से कोई लेना-देना नहीं है। यह उसकी पत्नी का नाम है। यह कह कर कि अब मैं कुछ और तेरे लिए नहीं कर सकता, लेकिन मुझे चाहे लोग भूल जाएं, तुझे न भूलें, इसलिए भामति नाम देता हूं अपने ग्रंथ को। वाचस्पति को बहुत लोग भूल गए हैं; भामति को भूलना मुश्किल है। भामति लोग पढ़ते हैं। अदभुत टीका है ब्रह्मसूत्र की। वैसी दूसरी टीका नहीं है। उस पर नाम भामति है।

फेमिनिन मिस्ट्री इस स्त्री के पास होगी। और मैं मानता हूं कि उस क्षण में इसने वाचस्पति को जितना पा लिया होगा, उतना हजार वर्ष भी चेष्टा करके कोई स्त्री किसी पुरुष को नहीं पा सकती। उस क्षण में, उस क्षण में वाचस्पति जिस भांति एक हो गया होगा इस स्त्री के हृदय से, वैसा कोई पुरुष को कोई स्त्री कभी नहीं पा सकती। क्योंकि फेमिनिन मिस्ट्री,वह जो रहस्य है, वह अनुपस्थित होने का है।

छुआ क्या प्राण को वाचस्पति के? कि बारह वर्ष! और उस स्त्री ने पता भी न चलने दिया कि मैं यहीं हूं। और वह रोज दीया उठाती रही और भोजन कराती रही। और वाचस्पति ने कहा, तो रोज जो थाली खींच लेता था, वह तू ही है? और रोज सुबह जो फूल रख जाता था, वह कौन है? और जिसने रोज दीया जलाया, वह तू ही थी? पर तेरा हाथ मुझे दिखाई नहीं पड़ा!

भामति ने कहा, मेरा हाथ दिखाई पड़ जाता, तो मेरे प्रेम में कमी साबित होती। मैं प्रतीक्षा कर सकती हूं।

तो जरूरी नहीं कि कोई स्त्री स्त्रैण रहस्य को उपलब्ध ही हो। यह तो लाओत्से ने नाम दिया, क्योंकि यह नाम सूचक है और समझा सकता है। पुरुष भी हो सकता है। असल में, अस्तित्व के साथ तादात्म्य उन्हीं का होता है, जो इस भांति प्रार्थनापूर्ण प्रतीक्षा को उपलब्ध होते हैं।

*"इस स्त्रैण रहस्यमयी का द्वार स्वर्ग और पृथ्वी का मूल स्रोत है।'*

चाहे पदार्थ का हो जन्म और चाहे चेतना का, और चाहे पृथ्वी जन्मे और चाहे स्वर्ग, इस अस्तित्व की गहराई में जो रहस्य छिपा हुआ है, उससे ही सबका जन्म होता है।

इसलिए मैंने कहा, जिन्होंने परमात्मा को मदर, मां की तरह देखा, दुर्गा या अंबा की तरह देखा, उनकी समझ परमात्मा को पिता की तरह देखने से ज्यादा गहरी है।

अगर परमात्मा कहीं भी है, तो वह स्त्रैण होगा। क्योंकि इतने बड़े जगत को जन्म देने की क्षमता पुरुष में नहीं है। इतने विराट चांदत्तारे जिससे पैदा होते हों, उसके पास गर्भ चाहिए। बिना गर्भ के यह संभव नहीं है।

*ताओ उपनिषद (भाग--1) प्रवचन--18*

*💕ओशो 💕👏👏👏👏👏*

No comments:

Post a Comment

THE LAST DAYS OF MRINALINI DEVI AND SRI AUROBINDO’S LETTER TO HIS FATHER-IN-LAW

THE LAST DAYS OF MRINALINI DEVI AND SRI AUROBINDO’S LETTER TO HIS FATHER-IN-LAW This is the last of the posts we have published ...