कृपामयी,
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वाराणसी से श्रीमाँ सब लोगों के साथ ईसवी सन 1913 के जनवरी की 17 वीं तारीख को कलकत्ता आयीं और लगभग एक मास तक वहां रहीं। उनके पास दीक्षा लेने के लिए बहुत से भक्त आते रहते थे।....
एक दिन बागबाजार में भक्तगण उनकी अयाचित कृपा
के संबंध में चर्चा कर रहे थे,---"श्रीमाँ बिना विचार किए कितने लोगों को दीक्षा दे रही हैं और उनके 'पाप-ताप' आप ले रही हैं।...
योगीन-माँ ने हंसते-हंसते श्रीमाँ की ओर देखकर कुछ ऊँची आवाज में कहा--"मां, हम लोगों को भले ही कितना भी प्यार करें ,पर ठाकुर के समान नहीं कर सकतीं,लड़कों के लिए ठाकुर की कैसी व्याकुलता, कैसा प्यार देखा है मैंने ,व्यक्त नहीं कर सकती!"...
सुनकर श्रीमाँ कुछ हंसते हुए बोली --"सो नहीं होगा? उन्होंने तो सब चुन-चुन कर शिष्य बनाएं और फिर उस पर यहां-वहां स्पर्श करके उन लोगों में अपनी मंत्रशक्ति द्वारा ,
आध्यात्मिकता भर दी।और मेरे लिए ? मेरे पास-- तो उन्होंने एकदम चीटियों की जमात ठेल दी है!"...
'मातृ-सदन' में एक ब्रह्मचारी सेवक ने श्रीमाँ से पूछा था,
"मां ! यह जो इतने लोग मंत्र लेते हैं ,इनको क्या मिलता है? भला बाहरी दृष्टि से तो ऐसा दिखता है कि दीक्षा लेने से पहले व्यक्ति जैसा था ,दीक्षा के बाद भी वैसा ही है।"
श्रीमाँ ने उत्तर दिया, " मंत्र के माध्यम से शक्ति संचारित होती है। गुरु की शक्ति शिष्य में आती है और शिष्य के पाप-ताप गुरु में आते हैं । इसीलिए मंत्र देने से पाप, अपने ऊपर लेने के कारण, देह में इतनी व्याधियों होती हैं । गुरु होना बड़ा कठिन है--शिष्य के पाप लेने पड़ते हैं।"...
श्रीमाँ दूरस्थ-भक्तों पर भी अपनी कृपा करती थीं। सुदूर 'बरिशाल' का एक भक्त असाध्य यक्ष्मा-रोग से ग्रसित हो गया। उसने श्रीमाँ को चिट्ठी लिखी ; "मां अब मैं नहीं बचूंगा । एकमात्र इच्छा है तुम्हें देखने की, पर मैं तो आ न सकूंगा । अतः, तुम ही आ जाओ, मां !अपने इस बच्चे को देख जाओ।" ....
चिट्ठी पाकर श्रीमाँ बहुत व्यग्र हो उठीं। उन्होंने पत्र के जवाब में लिखवाया ; "बेटा ! डर नहीं है । तुम्हारी बीमारी ठीक हो जाएगी। इतनी दूर जाना मेरे लिए संभव नहीं है । मैं अपना फोटो भेजती हूं उसी को देखना और 'उद्बोधन' पढ़ना।"
वह भक्त श्रीमाँ के चित्र को अपने सिरहाने पर रखकर अंतिम सांस तक आश्वस्ति पाता रहा।...
ॐ,
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