जिन खोजा तिन पाइयाँ ..ओशो(प्रवचन--18)
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इसलिए कई बार स्त्रियों ने साधारण पुरुष के प्रेम में भी चौथा शरीर पार कर लिया। जिनको हम सती कहते हैं, उनका कोई और दूसरा मतलब नहीं है—इसोटेरिक अर्थों में। उनका और कोई मतलब नहीं। उनका यह मतलब नहीं है कि जिनकी दृष्टि दूसरे पुरुष पर नहीं उठती। सती का मतलब यह है कि जिनके पास दूसरों पर दृष्टि उठाने को बची नहीं। सती का मतलब यह नहीं है कि जिनकी दृष्टि दूसरे पुरुष पर नहीं उठती है। सती का मतलब यह है कि जिनके पास अब स्त्री ही नहीं बची जो दूसरे पर दृष्टि उठाए।
अगर साधारण पुरुष के प्रेम में भी कोई स्त्री इतनी समर्पित हो जाए, तो उसको यह यात्रा करने की जरूरत नहीं, उसके चार शरीर इकट्ठे होकर पांचवें के द्वार पर वह खड़ी हो जाएगी।
इसी वजह से, जिन्होंने यह अनुभव किया था, उन्होंने कहा कि पति परमात्मा है। उनके पति को परमात्मा कहने का मतलब पुरुष को कोई परमात्मा बनाने का नहीं था, लेकिन उनके लिए पति के माध्यम से ही पांचवें का दरवाजा खुल गया था। इसलिए उनके कहने में कोई भूल न थी; उनका कहना बिलकुल उचित था। क्योंकि जो साधक को बड़ी मेहनत से उपलब्ध होता है, वह उनको प्रेम से ही उपलब्ध हो गया था; और एक व्यक्ति के प्रेम में ही वे उस जगह पहुंच गई थीं।
सीता जैसी पूर्ण स्त्री की तेजस्विता:
अब जैसे सीता है। सीता को हम उन स्त्रियों में गिनते हैं जिनको कि सती कहा जा सके। अब सीता का समर्पण बहुत अनूठा है; समर्पण की दृष्टि से पूर्ण है; और टोटल सरेंडर है। रावण सीता को ले जाकर भी सीता का स्पर्श भी नहीं कर सका। असल में, रावण अधूरा पुरुष है और सीता पूरी स्त्री है। पूरी स्त्री की तेजस्विता इतनी है कि अधूरा पुरुष उसे छू भी नहीं सकता उसकी तरफ आंख उठाकर भी जोर से नहीं देख सकता।
वह तो अधूरी स्त्री को ही देखा जा सकता है। और जब एक पुरुष एक स्त्री को छूता है, तो सिर्फ पुरुष जिम्मेवार नहीं होता, स्त्री का अधूरा होना अनिवार्य रूप से भागीदार होता है। और जब कोई रास्ते पर किसी स्त्री को धक्का देता है, तो धक्का देनेवाला आधा ही जिम्मेवार होता है, धक्का बुलानेवाली स्त्री भी आधी जिम्मेवार होती है, वह धक्का बुलाती है, निमंत्रण देती है। चूंकि वह पैसिव है, इसलिए उसका हमला हमें दिखाई नहीं पड़ता। पुरुष चूंकि एक्टिव है, इसलिए उसका हमला दिखाई पड़ता है। दिखाई पड़ता है कि इसने धक्का मारा; यह हमें दिखाई नहीं पड़ता कि किसी ने धक्का बुलाया।
रावण सीता को आंख उठाकर भी नहीं देख सका। और सीता के लिए रावण का कोई अर्थ नहीं था। लेकिन, जीत जाने पर राम ने सीता की परीक्षा लेनी चाही, अग्नि—परीक्षा लेनी चाही। सीता ने उसको भी इनकार नहीं किया। अगर वह इनकार भी कर देती तो सती की हैसियत खो जाती। सीता कह सकती थी कि आप भी अकेले थे, और परीक्षा मेरी अकेली ही क्यों हो, हम दोनों ही अग्नि—परीक्षा से गुजर जाएं! क्योंकि अगर मैं अकेली थी किसी दूसरे पुरुष के पास, तो आप भी अकेले थे और मुझे पता नहीं कि कौन स्त्रियां आपके पास रही हों। तो हम दोनों ही अग्नि—परीक्षा से गुजर जाएं!
लेकिन सीता के मन में यह सवाल ही नहीं उठा; सीता अग्नि—परीक्षा से गुजर गई। अगर उसने एक बार भी सवाल उठाया होता तो सीता सती की हैसियत से खो जाती—समर्पण पूरा नहीं था, इंच भर फासला उसने रखा था। और अगर सीता एक बार भी सवाल उठा लेती और फिर अग्नि से गुजरती, तो जल जाती; फिर नहीं बच सकती थी अग्नि से। लेकिन समर्पण पूरा था, दूसरा कोई पुरुष नहीं था सीता के लिए।
इसलिए यह हमें चमत्कार मालूम पड़ता है कि वह आग से गुजरी और जली नहीं! लेकिन कोई भी व्यक्ति, जो अंतर— समाहित है...... साधारण व्यक्ति भी किसी अंतर—समाहित स्थिति में आग पर से निकले तो नहीं जलेगा। हिप्नोसिस की हालत में एक साधारण से आदमी को कह दिया जाए कि अब तुम आग पर नहीं जलोगे, तो वह आग पर से निकल जाएगा और नहीं जलेगा।
(क्रमशः)♣
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