Thursday 11 May 2017

श्रीअरविन्द के योग जीवन

श्रीअरविन्द के योग जीवन                             शिष्य --मनुष्य की हड्डी कितने समय तक बढ़ती रहती है?      श्रीअरविन्द--कपाल ५५ वर्ष और मज्जिका ५० वर्ष।               शिष्य --जब आपने राजनीति में प्रवेश किया तो आपकी उम्र कितनी थी?                            श्रीअरविन्द--तैंतीस वर्ष।             शिष्य --और आपने योग कब शुरू किया?                             श्रीअरविन्द--१९०५ के आस-पास ।                                      शिष्य --और आपने कैसे शुरू किया?                                           श्रीअरविन्द--भगवान् जाने कैसे ! वह बहुत जल्दी शुरू हो गया था शायद।जब मैं भारतभूमि पर उतरा तो मेरे अंदर बड़ी शान्ति अचंचलता का अवतरण हुआ।कुछ अन्य विशेष अनुभूतियां भी हुईं -पुणे में, पार्वती गिरि पर, और फिर कश्मीर में शंकराचार्य की पहाड़ी पर, - एक महान् अनन्त यथार्थता का अनुभव हुआ।वह बहुत वास्तविक था।    उसके बाद बड़ौदा में देशपाण्डे ने मुझे योग की ओर मोड़ने की कोशिश की, लेकिन मेरे अन्दर उसके बारे में वही सामान्य विचार थे कि इसके लिये सब कुछ छोड़ना होगा और वन में निवास करना होगा।मुझे देश की स्वाधीनता में रस था।।लेकिन मैंने हमेशा यही सोचा कि संसार के महापुरुष किसी ख-पुरुष के पीछे नहीं लगे होंगे और अगर सचमुच कोई ऐसी शक्ति है तो उसका उपयोग देश की स्वाधीनता के लिये क्यों न किया जाये।                      बारीन बड़ौदा में स्वचालित लेखन किया करता था।एक बार बुलाने पर मेरे पिता की आत्मा आ गयी।उन्होंने कुछ विशेष भविष्यवाणियां कीं।अपने परिचय का प्रमाण देने के लिये उन्होंने यह तथ्य बतलाया कि उन्होंने ने बारीन को एक सोने की घड़ी दी थी।उसके बाद उन्होंने देवधर के घर में एक चित्र की बात की पर उसका कहीं पता न लगा।लोगों ने खोजने की कोशिश की पर वहां कोई चित्र न मिला।जब यह बात उस आत्मा से कही गयी तो उसने अपनी बात दोहराई और कहा फिर से ढूंढो। जब देवधर की बूढ़ी मां से इसके बारे में पूछा गया तो उसने कहा कि वहां एक चित्र हुआ करता था, परंतु अब उसपर सफेदी कर दी गयी है।                                जब उस आत्मा से तिलक के बारे में पूछा गया तो उसने कहा, " जब कार्य की परीक्षा हो रही होगी और अधिकतर लोग अपना सिर झुका लेंगे तब भी यह एक ऐसा आदमी होगा जो कभी सिर न झुकायेगा।" उसके बाद हमने रामकृष्ण को बुलाया।उन्होंने कुछ भी न कहा केवल अंत में बोले, " मन्दिर गढ़ो"। उस जमाने के वातावरण में हमने इसका अर्थ दिया राजनीतिक संन्यासियों के लिये मन्दिर बनाओ।परंतु बाद में मैंने उसका ठीक अर्थ लगाया, " स्वयं अपने अन्दर मन्दिर बनाओ।" मैंने लगभग १९०५ में प्राणायाम शुरू किया।मैंने इंजीनियर देवधर से उसकी शिक्षा लेनी शुरू की जो स्वामी ब्रह्मानंद के शिष्य थे और बाद में मैं अपने ही बल पर खड़ा हो गया। मैं बड़ौदा में खासीराव यादव के घर पर प्राणायाम का अभ्यास किया करता था।इसके परिणाम बहुत विलक्षण आये: (१) मैं बहुत -से अन्तर्दर्शन, दृश्य और रूप देखा करता था।(२) मुझे अपने सिर के चारों ओर बिजली की शक्ति का सा अनुभव होता था।(३) मेरी लिखने की क्षमता लगभग सूख सी गयी थी, लेकिन प्राणायाम के अभ्यास के बाद फिर से तरोताजा हो गयी। मैं बड़ी गति के साथ गद्य और पद्य दोनों लिखने लग गया और यह प्रवाह फिर कभी नहीं सूखा। इसके बाद अगर मैंने और कुछ नहीं लिखा तो इसका कारण यह था कि मेरे पास और बहुत -सा काम करने के लिये था।लेकिन मैं जब भी कुछ लिखना चाहूं तो प्रवाह आ जाता है।(४) मेरा स्वास्थ्य सुधर गया, मैं ह्रष्ट-पुष्ट और बलवान् बन गया, मेरी त्वचा चिकनी और गोरी हो गयी और मेरी लार में मिठास का प्रवाह होने लगा।मुझे अपने सिर के चारों ओर प्रभा-मण्डल का अनुभव होने लगा ।वहां मच्छर तो बहुत थे परन्तु वे मेरे पास न आते थे।               मैं अधिकाधिक प्राणायाम करने बैठने लगा परंतु और कोई परिणाम न आया।उन्हीं दिनों मैंने मांसाहार छोड़ दिया जिससे मुझे शरीर में हल्केपन और शुद्धि का अनुभव होने लगा।मांसाहार राजसिक है और विवेकानन्द भारतीय लोगों से इसकी सिफारिश करते थे।वह शरीर को एक तरह का बल और ऊर्जा देता है।इसी कारण भारत के क्षत्रियों ने मांसाहार नहीं छोड़ा। तुम तमस् से रजस् में चले जाते हो और विवेकानन्द की बात बिलकुल गलत नहीं थी।                                      एक सन्यासी ने आकर मुझे एक बहुत उग्र काली का स्रोत दिया जिसके अंत में आता था" जहि,जहि - मार डालो", यह भारत की स्वाधीनता के लिये था परन्तु इसका कोई परिणाम नहीं आया।                               एक बार मैं ब्रह्मानंद की मृत्यु के बाद केशवानंद के होते हुए गंगानाथ( चांदोद) गया था।          अपने यूरोपीय मन के कारण मैं मूर्तिपूजा पर विश्वास नहीं करता था,मुझे भगवान् की उपस्थिति पर भी मुश्किल से विश्वास था।मैं करनाली गया जहां बहुत से मन्दिर थे। उनमें से एक काली का था और जब मैंने काली की मूर्ति को देखा तो मुझे उसमें एक जीवित जाग्रत् उपस्थिति दिखलायी दी। यह पहली बार मुझे भगवान् की उपस्थिति पर विश्वास हुआ।                         एक बार साधना करते हुए मैं सब प्रकार के परीक्षण यह जानने के लिये किया करता था कि क्या होता है और इनका सत्य के साथ कहां तक संबंध है। मैंने भांग, गांजा, चरस आदि नशीली चीजें भी ली थीं। मैं यह जानना चाहता था कि इससे क्या होता है और साधु -सन्यासी इन्हें किसलिये लेते हैं। परिणामस्वरूप मैं कभी -कभी समाधि में चला जाता था और कभी -कभी उच्चतर चेतना में चला जाता था। ( परंतु इस पद्धति की सबसे बड़ी त्रुटि है बाहरी उद्दीपकों पर निर्भरता।)            जब मैं किसी पथ-प्रदर्शक की खोज में था तो लेले से मिला और उनके साथ ध्यान करते हुए, सरदार मजूमदार के मकान में, मुझे निर्वाण का अनुभव हुआ।उसके बाद मुझे साधना के लिये आंतरिक पथ-प्रदर्शन पर ही आश्रित रहना पड़ा।अलीपुर में साधना बहुत तेज चली; वह अत्यधिक आह्लादक और अमर्यादित थी।प्राणमय स्तर पर यह संकटमय और अनर्थकारी हो सकती है।मैंने अलीपुर में दस-ग्यारह दिन उपवास किया और मेरा भार दस पाउंड कम हो गया।पांडिचेरी में भार इतना कम नहीं हुआ, यद्यपि भौतिक पदार्थ कम होना शुरू हो गया था।यह शंकर चेट्टी के मकान की घटना है।तेईस दिन के उपवास में मैं आठ घंटे रोज टहलता था।योगियों को प्राणिक स्तर पर जो चमत्कारपूर्ण या विलक्षण शक्तियां प्राप्त होती हैं वे सब भौतिक स्तर पर सच्ची नहीं होतीं।प्राण में बहुत- से गढ़े और फंदे होते हैं। ये प्राणिक शक्तियां हिटलर जैसे लोगों को भी हाथ में लेकर उससे यूं कहकर, " यह ऐसा होगा", अपना कार्य करवा लेती हैं। ऐसे साधकों के कई उदाहरण हैं जो प्राणमय लोक की इन आवाजों पर कान देकर अपनी साधना खो बैठे और मजाक यह कि वे सभी कहते हैं कि ये आदेश माताजी से या मुझसे आते हैं!  ( सांध्य वार्ताएं, पृ-९२-९५)

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