Thursday, 22 December 2022

अमरहुत्मा स्वामी श्रद्धानन्द जी

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*🚩‼️ ओ३म्‼️🚩*

    *🔥शुद्धि आन्दोलन, दलितों उद्धार आन्दोलन , गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली के*प्रणेता,स्वतंत्रता सेनानी ,तपोनिष्ठ संन्यासी, अमरहुत्मा स्वामी श्रद्धानन्द जी के.९६ वें बलिदान दिवस के अवसर पर उनको शत शत नमन ।*
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    मृतप्रायः हिन्दू जाति की रगों मेें नये रक्त का संचार करने वाले, अपनी सिंह-गर्जना से देश और धर्म के दुश्मनों को कंपा देने वाले, स्वामी दयानन्द के अद्वितीय शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द का जीवन और बलिदान- दोनों ही अप्रतिम हैं। जिन्होंने मोहनदास कर्मचन्द गांधी को पहली बार ‘महात्मा’ का संबोधन दिया। विश्व के इतिहास में पहली बार किसी आर्य संन्यासी ने वेदमंत्र से प्रारम्भ करके जामा मस्जिद के मिम्बर से व्याख्यान दिया, वे स्वामी श्रद्धानन्द जी ही थे। तात्कालीन राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्र के द्दुरन्द्दर जिनके आगे अपना सिर झुकाने में गौरव समझते थे। महात्मा गांधी जिनको ‘बड़ा भाई’ कहकर संबोधित करते थे। मौलाना मोहम्मद अली ने जिनके बारे में कहा- ‘गोरखों की संगीनों के सामने अपनी छाती खोल देने वाले उस बहादुर देशप्रेमी का चित्र अपनी नजर के सामने रखना मुझे बहुत अच्छा लगता है।’ पं० मदनमोहन मालवीय ने उनके बलिदान पर कहा- ‘उनकी ऐसी मृत्यु हिन्दु धर्म के मृत शरीर में प्राण फूंकने जैसी है। हमारे प्रधान नेता ने धर्म की खातिर अपने प्राण दिये हैं।’ महात्मा गांधी ने लिखा- ‘स्वामीजी वीरों में अग्रणी थे। उन्होंने अपनी वीरता से भारत को आश्चर्यचकित किया था। उन्होंने अपनी देह को भारतवर्ष के लिए कुर्बान करने की प्रतिज्ञा ली थी-- स्वामीजी ने अछूतों के लिए जो कुछ किया उससे अधिक भारतवर्ष में किसी और पुरुष ने नहीं किया।’ गणेशशंकर विद्यार्थी ने स्वामी जी के बलिदान पर कहा-‘धर्म, देश और हिन्दू जाति के लिए उन्होंने जो कुछ किया, आगामी संतति उसके आगे श्रद्धा के साथ सिर झुकावेगी।’ सरदार वल्लभ भाई पटेल कह उठे-‘उस वीर संन्यासी का स्मरण हमारे अन्दर सदैव वीरता और बलिदान के भावों को भरता रहेगा।’ पं० हरिशंकर शर्मा के शब्दों में-
जिये तो जान लड़ाते रहे वतन के लिए।
मरे तो हो गए कुर्बान संगठन के लिए।।

    स्वामी श्रद्धानन्द के विषय में कुछ प्रसिद्ध व्यक्तियों के उद्धरण इसलिए दिये गए हैं ताकि पाठकों को स्वामी श्रद्धानन्द के व्यक्तित्त्व के कद का अनुमान हो सके। ३० मार्च १९१९ को दिल्ली में रोलेक्ट एक्ट के विरोध में होने वाले प्रदर्शन का नेतृत्त्व महात्मा गांधी को करना था, महात्माजी को दिल्ली आते हुए पलवल के स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया गया। उस समय स्वामी श्रद्धानन्द दिल्ली के हिन्दू मुसलमानों के एकछत्र नेता थे। स्वामीजी के नेतृत्त्व में जब हजारों प्रदर्शनकारियों की भीड़ चांदनी चैक के पास पहुंची तो पुलिस ने रास्ता रोक लिया। गोरखे सैनिकों ने अपनी पोजिशन ले ली। ऐसी स्थिति में यदि स्वामी श्रद्धानन्द उस भीड़ के नेता न होते तो संभवतः जंलियावाला काण्ड १४ दिन पहले दिल्ली में ही हो गया होता। एक पल की चूक हजारों लोगों की मौत का कारण बन सकती थी। स्वामी श्रद्धानन्द ने पहले तो कहा था- यदि आपकी ओर से कोई गड़बड़ न हुई तो पूरी भीड़ को संयमित रखने की जिम्मेवारी मैं लेता हूँ।’ जब गोरखे नरसंहार करने पर उतारू हो गए तो श्रद्धानन्द अपना सीना खोलकर आगे बढ़े- शांत निस्तब्द्द वातावरण में उनकी धीर गंभीर ध्वनि गूंजी-‘निहत्थी जनता पर गोली चलाने से क्या लाभ? मेरी छाती खुली है। हिम्मत है तो गोली चलाओ।’ कुछ क्षण तक संन्यासी की छाती और गोरखों की संगीनों का सामना होता रहा। भीड़ सांस रोके खड़ी थी। अचानक एक गोरे अधिकारी ने स्थिति की नाजुकता को समझा, और गोरखों को पीछे हटने का आदेश दिया। एक भयंकर नरसंहार होते होते रह गया पर-- देशभक्तों के हृदयों में संन्यासी की निर्भीकता और वीरता की धाक जम गई।

    व्यक्ति के जीवन में प्रेरणा का क्या स्थान होता है! वह अपने आपको किसी प्रेरणा के द्वारा कितना बदल सकता है यह विचारणीय प्रश्न है। स्वामी दयानन्द के सम्पर्क में आने वाले कितने ही व्यक्तियों में कितने ही ऐसे हैें जिनमें आमूलचूल परिवर्तन हो गया। यह स्वामी दयानन्द के चुम्बकीय व्यक्तित्त्व का प्रभाव था या उस व्यक्ति के अन्तरात्मा की शुद्धता- हो सकता है इस विषय पर हम और आप तुरन्त किसी निर्णय पर न पहुंच पाएँ पर श्रद्धानन्द के जीवन का परिवर्तन हमारे लिए सदा प्रेरक बना रहेगा, इसमे कोई संशय नहीं है।

     फरवरी सन १८५६  में जालंधर के तलवन ग्राम में एक समृद्ध क्षत्रिय परिवार में जन्म लेने वाले पुलिस के बड़े अद्दिकारी नानकचन्द का पुत्र- पतन की सारी सुविधाओं और परिस्थितियों को अनायास ही प्राप्त करता है। उसे कोई रोकने वाला नहीं है। लेकिन यह भी वह बिना विचार के नहीं करता। वह उस युग के अन्य पढ़े लिखे नौजवानों की तरह पाश्चात्य विचारों के आगे परम्परा को हेय समझने लगता है।
 अगस्त १८७९  में बांसबरेली में स्वामी दयानन्द पधारे। पिता के आग्रह पर श्रद्धानन्द (तब मुंशीराम) व्याख्यान में चले तो गए पर मन में वही भाव रहा कि केवल संस्कृत जानने वाला साधु बुद्धि की क्या बात करेगा! स्वामी दयानन्द के भव्य व्यक्तित्त्व को देखकर श्रद्धा उत्पन्न हुई। उनके व्याख्यान में पादरी टी0 जे0 स्काट व दो तीन अन्य गोरों को बैठे देखा तो श्रद्धा और बढ़ी। केवल १० मिनट व्याख्यान सुना था कि दयानन्द के हो गए। उसके बाद तो जब तक स्वामी दयानन्द वहाँ रहे, व्याख्यान में पहुंचने वाले और दयानन्द को प्रणाम करने वाले पहले व्यक्ति मुंशीराम ही होते थे। 

    दयानन्द के दर्शन करता है तो वह हिल जाता है। दयानन्द से वार्ता करता है तो उसके विश्वास डगमगाने लगते हैं। तर्क वितर्क करता है तो उसे अब तक के अपने विचार खोखले और निर्बल मालूम होते हैं। ईश्वर पर विश्वास न करने वाला युवक इतना बदल जाता है कि उसका शेष जीवन केवल श्रद्धा को मूर्तिमन्त करने में व्यतीत होता है। एक समय वह जिन पाश्चात्य विचारकों के विचारों में निमग्न है तो एक समय ऐसा आता है कि जब वह मिशनरी स्कूल में पढ़ने वाली कन्या के मुख से ‘ईसा ईसा बोल तेरा क्या लगेगा मोल’ सुनता है तो पंजाब की प्रथम कन्या पाठशाला स्थापित करने का संकल्प ले लेता है।

   उसके बाद तो उनका जीवन अपना न रहा, दयानन्द का हो गया। नहीं नहीं-- परमेश्वर का हो गया। दयानन्द तो खुद अपने ही नहीं थे। वे तो परमेश्वर की आज्ञा में ही अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। श्रद्धानन्द ने भी वही राह पकड़ ली। कभी अपने लिए सोचने का अवसर मिला तो उनके हृदय से अपने जीवनदाता ऋषि के प्रति यही उद्गार निकले- ‘ऋषिवर! -- मेरे निर्बल हृदय के अतिरिक्त और कौन मरणधर्मा मनुष्य जान सकता है कि कितनी बार गिरते गिरते तुम्हारे स्मरण मात्र ने मेरी आत्मिक रक्षा की है।  तुमने कितनी गिरी हुई आत्माओं की कायापलट की, इसकी गणना कौन मनुष्य कर सकता है! परमात्मा के सिवाय कौन कह सकता है कि तुम्हारे उपदेशों से निकली हुई अग्नि ने संसार में व्याप्त कितने पापों को दग्ध कर दिया है? किन्तु अपने विषय में मैं कह सकता हूँ कि तुम्हारे सहवास ने मुझे कैसी गिरी हुई अवस्था से निकालकर सच्चा जीवन लाभ करने योग्य बनाया। नास्तिक रहते हुए भी वास्तविक आनन्द में निमग्न कर देना ऋषि आत्मा का ही काम था।’ 

 मुंशी प्रेमचन्द के अनुसार-‘ऐसे युग में जब अन्य बाजारी चीजों की तरह विद्या बिकती है, यह स्वामी श्रद्धानन्द जी का ही दिमाग था कि उन्होंने प्राचीन गुरुकुल प्रथा में भारत के उद्धार का तत्त्व समझा।’ ऋषि के प्रति अपनी श्रद्धा को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने अपनी सम्पत्ति, कोठी, प्रिंटिंग प्रैस, अपने दोनों सुपुत्र और अपने जीवन तक का बलिदान कर दिया। उन्होंने वैदिक धर्म का प्रचार केवल भाषणों और लेखों के माध्यम से ही नहीं किया बल्कि उसको व्यावहारिक रूप दिया। उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन का उच्च स्तर तक नेतृत्त्व किया। जलियांवाला काण्ड के बाद जब अमृतसर कांगेस अधिवेशन पर खतरे के बादल मंडरा रहे थे तो स्वामीजी ने आगे बढ़कर स्वागताध्यक्ष के रूप में उसका सफल आयोजन कर दिखाया। बहुत कम लोग जानते हैं कि कांग्रेस के कार्यक्रम में दलितोद्धार को प्रमुख स्थान दिलाने का काम स्वामी श्रद्धानन्द ने ही किया था। यह वह समय था जब नेता लोग दलितों को एक जड़ सम्पत्ति समझते थे। मौलाना मुहम्मद अली ने तो दलितों को हिन्दू और मुसलमानों में आधे आधे बांट लेने का सुझाव कांग्रेस के मंच से दे डाला था। स्वामी श्रद्धानन्द दलितों को हिन्दू जाति का अंग समझते थे। जब उन्हें लगा कि कांग्रेस दलितों के मामले में और मुस्लिमों के मामले में किसी और ही राह पर चल रही है तो उन्होंने कांग्रेस को छोड़ दिया। रहतियों और मलकानों की शुद्धि कर के उन्होंने निराश और हताश हिन्दू जाति में नए प्राणों का संचार कर दिया।

   महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि पशु में और मनुष्य में क्या अन्तर होता है- ‘जितने मनुष्य से भिन्न जातिस्थ प्राणी हैं, उनमें दो प्रकार का स्वभाव है- बलवान से डरना, निर्बल को डराना और पीड़ाकर अर्थात् दूसरे का प्राण तक निकाल के अपना मतलब साध लेना देखने में आता है। जो मनुष्य ऐसा ही स्वभाव रखता है उसको भी इन्हीं जातियों में गिनना उचित है। परन्तु जो निर्बलों पर दया, उनका उपकार और निर्बलों को पीड़ा देने वाले अधर्मी बलवानों से कि×िचन्मात्र भी भय शंका न करके, इनको परपीड़ा से हटाके निर्बलों की रक्षा तन, मन और धन से सदा करना है, वही मनुष्य जाति का निज गुण है। क्योंकि जो बुरे कामों के करने में भय और सत्य कामों के करने में कि×िचत् भय शंका नहीं करते वे ही मनुष्य धन्यवाद के पात्र कहाते हैं।’

    ऋषि दयानन्द के वचनों के अनुसार श्रद्धानन्द ने अपना जीवन एक सच्चे मनुष्य की भांति जीया। उनकी शारीरिक भव्यता और मानसिक दृढ़ता उन्हें विश्व के महापरुषों में बहुत ऊँचे स्थान पर प्रतिष्ठित कर देती है। शारीरिक भव्यता के बारे में रेम्जे मैक्डानल्ड (ब्रिटिश प्रद्दानमंत्री) के विचार उल्लेखनीय हैं।- ‘यदि इस युग का कोई कलाकार ईसा मसीह का चित्र बनाने के लिए अपने सामने कोई माडल रखना चाहे, तो मैं उसे महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) के भव्य व्यक्तित्त्व की ओर संकेत करूँगा।’ निर्भीकता और दृढ़ता उनके व्यक्तित्त्व की सहचरी थी। 23 दिसम्बर १९२६ को रोगशैया पर विश्राम करते हुए दिल्ली में अब्दुल रशीद नामक एक मतान्द्द युवक ने स्वामी जी की कायरतापूर्ण तरीके से हत्या कर दी। सारा देश स्तब्द्द रह गया। गांद्दी जी ने उनके बलिदान पर लिखा- ‘स्वामी श्रद्धानन्द ऐसे सुधारक थे जो वाक्शूर नहीं, कर्मवीर थे। उनका विश्वास जीवित जाग्रत था। इसके लिए उन्होंने अनेक कष्ट उठाए थे। वे वीर सैनिक थे। वीर सैनिक रोग शैया पर नहीं किन्तु रणांगण में मरना पसंद करते हैं। मुझे उनसे तथा उनके अनुयायियों से ईष्र्या होती है। उनका कुल तथा उनका देश उनकी इस शानदार मृत्यु पर बधाई के पात्र हैं। वे वीर के समान जीये और वीर के समान ही मरे।’ 
 यदि किसी को श्रद्धा की व्याख्या समझनी हो तो वह श्रद्धानन्द के जीवन का अध्ययन करे। जैसे दयानन्द के मिलन ने उनका कायापलट कर दिया, वैसे ही श्रद्धानन्द के जीवन को समझने से भी कितने ही आत्मविमुग्द्द लोगों का कायापलट हो सकता है।

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*🕉️🚩 आज का वेद मंत्र 🕉️🚩*

*🌷 ओ३म् ,इन्द्र क्रतुं न आभर पिता पुत्रेभ्यो यथा।*
*शिक्षा णो अस्मिन् पुरुहूत यामनि जीवा ज्योतिरशीमहि।।*
*ऋग्वेद ७/३२/२६*

💐भावार्थ: हे सर्वशक्तिमन् इन्द्र! हमें ज्ञानी और उद्यमी बनाओ, जैसे पिता पुत्रों को ज्ञानी और उद्योगी बनाता है। ऐसे हम भी आपके पुत्र ब्रह्मज्ञानी और सत्कर्मी बनें ऐसी प्रेरणा करो। हे भगवन् ! हम अपने जीवन काल में ही, आपके कल्याणकारक ज्योतिस्वरूप को प्राप्त होकर, अपने दुर्लभ मनुष्य_ जन्म को सफल करें। दयामय परमात्मन् !आपकी कृपा के बिना न हम ज्ञानी बन सकते हैं, न ही सुकर्मी, अतएव हम पर आप कृपा करें कि हम आपके पुत्र ज्ञानी और सत्कर्मी बनें।

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Thursday, 1 December 2022

As if there are two minds

Q: I notice very often when I am practicing that I have other conversations going on, words, or I am hearing songs and music. But yet I still feel the sensations.

SNG: As if there are two minds. One mind is with the sensations and another mind is chattering, doing something.

Q: Yes.

SNG: It doesn’t matter. Don’t try to suppress whatever is coming in the mind, thoughts or fantasies or anything. But start giving more importance to the sensation.

Let all these thoughts be like background music. Then they will fade away automatically. If you give importance to them—either you want to get rid of them and try to push them out, or you start taking interest in them—they will become so predominant that the sensations will fade away. Always give importance to sensation; let there be any thought.

Q: Their presence doesn’t necessarily mean that there isn’t equanimity then?

SNG: No. All these thoughts won’t harm you, they will make sankhāras but they are sankhāras like a line drawn on the water. It can never go deep because you are with the sensations.

*           *           *

Saturday, 12 November 2022

अभिन्न

अभिन्न ।
🌹🌹🌹
स्वामी सारदानंद जी महाराज कहते हैं ; 
श्रीमाँ को, माँ काली का ,पहला दर्शन जयरामवाटी 
से दक्षिणेश्वर आते समय ,तारकेश्वर के पास, सड़क 
के किनारे स्थित एक, धर्मशाला में हुआ था।..
दक्षिणेश्वर में निवास करते समय श्रीरामकृष्णदेव 
विभिन्न विषयों पर माँ सारदामणि की सलाह मांगा 
करते थे ।
वे जब किसी बात में स्पष्ट नहीं होती थीं ,----
तब कहती थीं, अभी मैं कुछ नहीं कह सकती ,बाद 
में विषय की स्पष्ट धारणा हो जाएगी ,तब आपको बताऊंगी।
माँ ,नौबतखाने में जाकर, मां काली से ,करूण स्वर में प्रार्थना करतीं --फिर उनके मन में जो बात आती ,उसे ठाकुर को कह देतीं।
ठाकुर के जीवन के अंतिम समय में ,वे उनके साथ 'काशीपुर उद्यान' में निवास कर रही थीं। एक दिन
जब वे बड़ी ,दुःख-पूर्ण मनस्थिति में लेटी हुई थीं कि ,
उन्होंने देखा ,लहराते हुये केशों वाली एक सांवली सी महिला आयी और उनके पास ही बैठ गई।
माँ उन्हें पहचान गईं--बोलीं-- तो यह तुम हो?
मां काली ने कहा ~हां~ मैं दक्षिणेश्वर से आई हूं ।
दोनों थोड़ी देर तक बातचीत करते रहे।... 
इस बीच माँ ने देखा कि सांवली महिला की गर्दन 
एक ओर थोड़ी झुकी हुई है।
मां ने पूछा --तुम्हारा गला और सिर एक ओर झुका 
हुआ क्यों है?
माँ काली ने उत्तर दिया~~ 'गले में घाव के कारण'।
माँ बोली -- कैसी विचित्र बात है, ठाकुर के गले में घाव हुआ है, और तुम्हारे गले में भी।
मां काली ने कहा ~~~हां !
इस प्रकार माँ काली ने श्रीमाँ के मन में यह बात बिठा 
दी कि वे और श्रीरामकृष्णदेव एक तथा अभिन्न हैं ।
ठाकुर अपने इष्ट के साथ इस तरह जुड़े हुए थे कि 
उनके लिए मृत्यु भी ,अमरत्व प्रदान करने वाली हो 
गयी ।
जय काली ।
🌹🌹🌹🌹

Monday, 7 November 2022

ईश-कृपा

 

ईश-कृपा ;
स्वामी 'अतुलानंदजी' महाराज (१८७०-१९६६)रामकृष्ण मिशन के एक अमेरिकी सन्यासी थे। वे श्रीमां सारदादेवी के मंत्रशिष्य एवं स्वामी अभेदानंदजी महाराज द्वारा दीक्षित सन्यासी थे। उन्हें मिशन में "गुरूदास महाराज" के नाम से पुकारा जाता था। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम 40 वर्ष भारत में बिताए थे। वे रामकृष्णदेव के सभी शिष्यों से मिले थे ,(केवल योगानंदजी एवं निरंजनानंद जी महाराज को छोड़कर।)
एक बार अतुलानंदजी महाराज बद्रीनाथ और केदारनाथ की यात्रा पर निकले । तब उनके साथ चार सन्यासी भी थे,जिनमें स्वामी प्रभवानंदजी शामिल थे । यह संस्मरण स्वामी प्रभवानंद जी ने लिखा है--हम सभी बद्रीनाथजी के मंदिर के सामने सीढ़ियों पर बैठे थे । तब मंदिर का दरवाजा बंद था। एक गौरवर्ण का 22/ 23 वर्ष का नौजवान ,भव्य पुजारी, हमारे पास आया और हमें अपने साथ चलने के लिए कहा ।उसने हमें मंदिर के एक अन्य द्वार से भीतर प्रवेश कराया। हमने भगवान के दर्शन किए ।उन्होंने पूछा~ क्या दर्शनों से संतुष्टि मिली ? हमारी सहमति के बाद फिर उन्होंने हमें मंदिर से बाहर कर ,भीतर से दरवाजा बंद कर लिया ।
हम वहाँ चार दिन के प्रवास पर थे न जाने किसकी प्रेरणा से मुख्य पुजारी ने हमें बुलवाया और पूछा कि साथ में जो सन्यासी हैं~ क्या वे विदेशी हैं? तत्कालीन नियमों के अनुसार उन्हें मंदिर में प्रवेश करने की इजाजत नहीं होगी। फिर भी उन्होंने हमारे रहने और भोजन की बड़ी अच्छी व्यवस्था की एवं प्रतिदिन मंदिर में आरतियों के समय हमें बाहर से आरती देखने का सुअवसर प्रदान किया। मंदिर में बहुत से पुजारी कार्यरत थे पर फिर कभी हमने उस पुजारी को नहीं देखा, जिसके कारण हमें भगवान के दर्शन का अवसर मिला था। क्या इस 'अमेरिकी सन्यासी 'को दर्शन देने के लिए भगवान ने स्वयं कुछ व्यवस्था की थी।
जय ठाकुर ।

Sunday, 6 November 2022

Anicca, anicca

Q: I find myself saying sometimes “Anicca, anicca” when I’m meditating. Is that good or not?

SNG: Don’t repeat it so often and make it a mantra because a mantra won’t help. But understand anicca, that everything is changing. If once in a while you say “Anicca” and then understand it, nothing wrong. But don’t repeat it so often.

Q: Okay. And then I have trouble up here [top of the head] and it keeps me from starting for a long time.

SNG: Then start with Anapana. Yes, whenever you find you can’t start from here that shows that the mind is a little dull, it can’t work. So work here [area of the nostrils], the mind becomes sharp and then start from here [top of the head].

Q: And do that often?

SNG: Yes, yes.

* * *

Q: In the technique, you said we should go part by part, each by each. As I move faster and faster this last half an hour or so, I seem to have gone into the whole part and felt the whole part at one time.

SNG: Doesn’t matter. Tomorrow, the day after tomorrow you will be doing that. If you have started doing it now, nothing wrong. Do that, do that.

* * *

Friday, 4 November 2022

Let all these thoughts be like background music

Q: I notice very often when I am practicing that I have other conversations going on, words, or I am hearing songs and music. But yet I still feel the sensations.

SNG: As if there are two minds. One mind is with the sensations and another mind is chattering, doing something.

Q: Yes.

SNG: It doesn’t matter. Don’t try to suppress whatever is coming in the mind, thoughts or fantasies or anything. But start giving more importance to the sensation.

Let all these thoughts be like background music. Then they will fade away automatically. If you give importance to them—either you want to get rid of them and try to push them out, or you start taking interest in them—they will become so predominant that the sensations will fade away. Always give importance to sensation; let there be any thought.

Q: Their presence doesn’t necessarily mean that there isn’t equanimity then?

SNG: No. All these thoughts won’t harm you, they will make sankhāras but they are sankhāras like a line drawn on the water. It can never go deep because you are with the sensations.

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Sunday, 23 October 2022

विपश्यना और दर्द-निवारण

🌷 विपश्यना और दर्द-निवारण 🌷

📃 वैसे तो मार्च सन् 1975 में मैंने प्रथम दस दिन शिविर लिया किंतु मुझे इगतपुरी में प्रथम एक माह के दीर्घ शिविर में भाग लेने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। 

इस शिविर के पहले मेरी कमर में दर्द था जो बिना किसी औषधि के शिविर में ही समाप्त हो गया। इसी शिविर में मैंने उत्पाद और व्यय को ठीक से समझा, जो मेरे जीवन में रामबाण सिद्ध हुआ और हो रहा है। दर्द में जब उत्पाद समाप्त कर व्यय पर ही ध्यान लगाया जाए तो दर्द समाप्त हो जाता है। 

पांच साल पहले मेरे हार्निया का ऑपरेशन गुजरात में सिद्धपुर, पाटन में एक प्राइवेट नर्सिंग हॉस्पिटल में हुआ। ऑपरेशन रात्रि को 10 बजे हुआ और मुझे दर्द निवारक गोलियां रात्रि में लेने की सलाह दी गई। मैंने
कोई गोली नहीं ली और उक्त विधि का प्रयोग करके आराम से सो गया। सुबह डॉक्टर साहब ने गोलियां न लेने पर आश्चर्य प्रकट किया तो इसे मैंने उन्हें अपनी साधना का कमाल बताया।

मुझे पुरानी आर्थराइटिस भी है और मैं मन को दोनों घुटनों से होकर प्रति दिन गुजारता हूं। अतः घुटने थोड़े सख्त अवश्य हो गये हैं किंतु मुझे यह बीमारी अब नहीं सताती। कभी दर्द जरूर होता है तो मैं उत्पाद-व्यय के ज्ञान से ठीक कर लेता हूं। हां, साक्षीभाव प्रत्येक अवस्था में आवश्यक है। 

मुझे डॉक्टर ने एनलार्ड प्रौस्ट्रेट की बीमारी बताई, क्योंकि रात्रि में पेशाब करने के लिए अधिक उठना पड़ता था। मैंने दवाइयां भी लीं, कई बार ऑपरेशन का भी विचार किया, किंतु अब मुझे ऑपरेशन का विचार ही नहीं आता है। क्योंकि मैं प्रोस्ट्रेट पर साक्षीभाव से ध्यान केंद्रित करता रहता हूं।

मेरी आयु 73 साल की है। अतः कहीं न कहीं दर्द होता रहता है। सतिपट्ठान की शिक्षा से अब यह दर्द मुझे परेशान नहीं करता क्योंकि 'अरे कल्याण हो गया। इस पर ध्यान लगाने से अपने पूर्व जन्म के संस्कारों का क्षय होता है'- गुरुजी के ये वाक्य मुझे सांत्वना देते हैं और पुराने संस्कारों को निकालता निकालता दर्द भी समाप्त कर लेता हूं। प्रत्येक विपश्यना बैठक के बाद जो हल्कापन महसूस होता है तो ऐसा मालूम होता है कि व्याधि किस प्रकार आती है और कैसे दूर की जा सकती है।

✍️ बी. के. बिन्जू
(आई. ए. एस. निवृत्त, जयपुर)

पुस्तक: विपश्यना पत्रिका संग्रह (भाग-7)
प्रकाशक : विपश्यना विशोधन विन्यास ॥

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                 ✺ भवतु सब्ब मङ्गलं ✺
                 ✺ भवतु सब्ब मङ्गलं ✺
                 ✺ भवतु सब्ब मङ्गलं ✺    
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Friday, 7 October 2022

That's what Maa Kali's blessings can do!

An old priest used to always worship Maa Kali in the morning. His ritual included an offering of a cup of milk. So one day, he was sick and asked his grandson (hardly 2–3 years old kid) to go on his behalf. The kid happily went to the temple. As he completed his tasks of cleaning, putting flowers etc, he remembered his Grandfather's instructions and offered the milk to Maa Kali speaking in his innocent voice, “Maa please drink your milk!” So simple was his devotion that Maa appeared and drank up the whole cup! The happy kid went back to his Grandfather who was surprised. Then the kid asked for his food! The Grandpa decided to see if the kid had drank up the milk or the Godess actually had. So he sent him off to the temple with the empty bowl and tell Maa, “Maa, you drank up all the milk, now what will Grandpa and I have?” The toddler obviously did as instructed.

Maa Kali appeared again and laughed, “Is it so? Let me refill the cup!” She squeezed her breast and filled the cup with her own milk! The kid happily took it to his grandfather who now believed him looking at the cupful of milk! He asked the kid to have all the milk since it was his Karma which got him the divine darshan! The child later on became a very famous poet called Baldev Ratha. This is an 18th century incident. He is called as KaviSurya (Sun among poets) and even a city is named after him! That's what Maa Kali's blessings can do!

Thursday, 6 October 2022

How can we cut kammas that are to come, by Vipassana?

 



🌷Que-Ans :Kalyanmitra S N Goenka ji🌷
1) How can we cut kammas that are to come, by Vipassana?
Goenkaji: When kamma ripens it brings its fruit. Before the fruit comes, the sensation comes. If we weaken the inevitable fruit by observing the sensations then the fruit that comes will be weaker.
Otherwise it would have come large and ripe, filled with bitterness or sweetness as the case may be.
Now we have demolished it by cutting at the roots.
We cannot forget the fundamental law of kamma, that no one else can remove our kamma. To dream that some guru or anyone else will remove it for us someday is to live with false hope.
🌷 2) Perhaps we are unable to cut our kamma, but we face it bravely and bear its fruit with resilience.
SNG: This is what we are doing.
The fruit of kamma that would have come along with unbearable suffering has come as a sensation and we dissolve it by observing it with equanimity; thus becoming free with very little suffering.
This is the rare and supreme gift of the Buddha.
He discovered where the starting point of kamma was and gave us this knowledge. Fruits of all our kamma will come inevitably. If we start watching sensations as soon as they arise, then when the fruit does come, it will be a weak fruit with no strength or power.
Even when a difficult and a particularly large fruit ripens it will cease to affect us. We will accept it smilingly, knowing that as kammas bringing unhappiness have borne fruit, so also kammas bringing happiness will bear fruit. We must remain steadfast with equanimity and fearless in both situations.
In my life also a major fruit of kamma came in all its bitterness. Large businesses, properties and riches were taken over by the government overnight, without our knowledge. Though we remained steadfast and grounded in Dhamma, we would have been better equipped to deal with it if we had been forewarned. We would have worked at weakening its impact. However that did not happen; never mind as we gained more time and opportunity to ripen in Dhamma.


Monday, 3 October 2022

कन्या_पूजन

#कन्या_पूजन से सभी तरह के वास्तु दोष, विघ्न,भय और शत्रुओं का नाश होता है।

⚱ *नवरात्रि में कन्या पूजन में ध्यान रखे कि कन्याओ की उम्र दो वर्ष से कम और दस वर्ष से ज्यादा भी न हो ।*

⚱ *शास्त्रों के अनुसार दो वर्ष की कन्या kanya को कुमारी कहा गया है । कुमारी के पूजन से सभी तरह के दुखों और दरिद्रता का नाश होता है ।*

⚱ *तीन वर्ष की कन्या को त्रिमूर्ति माना गया है । त्रिमूर्ति के पूजन poojan से धन लाभ होता है ।*

⚱ *चार वर्ष की कन्या को कल्याणी कहते है । कल्याणी के पूजन poojan से जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता और सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है ।*
 
⚱ *पांच वर्ष की कन्या kanya को रोहिणी कहा गया है । माँ के रोहणी स्वरूप की पूजा करने से जातक के घर परिवार से सभी रोग दूर होते है।*

⚱ *छः वर्ष की कन्या kanya को काली कहते है । माँ के इस स्वरूप की पूजा करने से ज्ञान, बुद्धि, यश और सभी क्षेत्रों में विजय की प्राप्ति होती है ।*

⚱ *सात वर्ष की कन्या को चंडिका कहते है । माँ चण्डिका के इस स्वरूप की पूजा करने से धन, सुख और सभी तरह की ऐश्वर्यों की प्राप्ति होती है ।*

⚱ *आठ वर्ष की कन्या को शाम्भवी कहते है । शाम्भवी की पूजा करने से युद्ध, न्यायलय में विजय और यश की प्राप्ति होती है ।*

⚱ *नौ वर्ष की कन्या को दुर्गा का स्वरूप मानते है । माँ के इस स्वरूप की अर्चना करने से समस्त विघ्न बाधाएं दूर होती है, शत्रुओं का नाश होता है और कठिन से कठिन कार्यों में भी सफलता प्राप्त होती है ।*

⚱ *दस वर्ष की कन्या को सुभद्रा स्वरूपा माना गया हैं। माँ के इस स्वरूप की आराधना करने से सभी मनवाँछित फलों की प्राप्ति होती है और सभी प्रकार के सुख प्राप्त होते है ।*

⚱ *इसीलिए नवरात्र के इन नौ दिनों तक प्रतिदिन इन देवी स्वरुप कन्याओं को अपनी श्रद्धा और सामर्थ्य से भेंट देना अति शुभ माना जाता है। इन दिनों इन नन्ही देवियों को फूल, श्रंगार सामग्री, मीठे फल (जैसे केले, सेब,नारियल आदि), मिठाई, खीर , हलवा, कपड़े, रुमाल,रिबन, खिलौने, मेहंदी आदि उपहार में देकर मां दुर्गा की अवश्य ही कृपा प्राप्त की जा सकती है ।*

⚱ *इन उपरोक्त रीतियों के अनुसार माता की पूजा अर्चना करने से देवी मां प्रसन्न होकर हमें सुख, सौभाग्य,यश, कीर्ति, धन और अतुल वैभव का वरदान देती है।*

Sunday, 2 October 2022

Swami Vivekanand on Children

Swami Vivekanand on Children
Swami Vivekananda was very interested in children. He felt that children held the key to the future evolution of man. In America he would sit and chat with the children of his devotees and even play with them as he ventured to unravel the mystery of the child-mind. He held the view that children think in a very different way than adults. He cited 'Alice in Wonderland' as a perfect book written for children. The fantastic things happening there in the plot of the novel, Swamiji thought was the way children fantasised and that was quite in keeping with Vedanta as Swamiji understood it. After all Swamiji was one of the first thinkers in modern times in the world and certainly the first thinker in modern India who held the view that Nature was both deterministic and non-deterministic in different phases and in different readings of the human mind. Today, these two opposing views are held by Einstein's General Theory of Relativity and Quantum Mechanics developed by Heisenberg and others. At the macroscopic level Nature seems to be causal in her behaviour but at the microscopic level Nature seems entirely unpredictable and, hence, probabilistic in her behaviour. These two opposing theories have long eluded the synthesis that Einstein so sought -- the Unified Field Theory.

The Quantum Theory of Gravity and the Unified Field Theory are both incomplete and do not successfully explain all of physical reality. Perhaps it was Swamiji who was after all right. His Vedantic theory was that all physical laws of Nature were thought-sequences and generalisations of thought, arrangements of the data of the human mind. In the 1890s Swamiji had pronounced these ideas which were in altered particulate terms corroborated much later by the discoveries of Quantum Physics. Today we know that the observer plays his role in altering the status of the observed event which is somewhat akin to Swamiji's ideas about phenomena perhaps. This, so far as Swamiji's deterministic ideas are concerned. But then he also held the view that there is after all no intrinsic correlation in the events taking place in Nature, that these correlations are our attempts to classify the events but that they are fundamentally mental constructs of varying degrees of refinement from the very gross physical, material hard-core facts of experience to the progressively subtler world of ideas culminating in transcendence of the mind and so achieving freedom from its processes, patterns and orderings. This meant total lawlessness at the very base or absolute freedom from determinism. Nature thus operates according to Swamiji in, so to say, three phases. First, the lowest deterministic phase, then the probabilistic phase and finally, the freedom 'phase' if one may be allowed the latitude to say so.

Events are disjoint, unconnected in themselves, only appearing to be connected by the queer phenomenon of the tendency of the mind to connect them, for thoughts have perhaps a certain sequential nature at the human level at least. Well, Shankaracharya had pronounced the epic statement, 'Anirvachaniya Maya,' that is, 'phenomenal reality is inexpressible.' The ancient seer must have thereby meant that Nature has discrepancies which make any pronouncement on its functioning puerile. Even Sri Ramakrishna had said that there are many contradictions in the functioning of Maya. Swamiji had said that since there was no way to know this world adequately well, the best alternative was to reject the very attempt to do so and try to free oneself of it. Even his Master Sri Ramakrishna had said that one may never get to comprehend a ten-millionth part of phenomena were one to analyse it for ten million years. Therefore, one should concentrate on realising the spiritual ideal rather than spend one's mental resources on this unknowable phenomenal reality.

Question arises what was Swamiji trying to understand from his interactions with small children in America? Was he trying to understand the workings of Maya through his attempted understanding of the carefree, unconditioned thought-processes of the child-mind? Did he get any inkling of the laws of Nature through his study of child psychology which devoid of the trappings of the adult mind must have been so different from it? Did Swamiji get to understand the laws of the evolution of the human mind which may have been so pertinent to him in his quest for the formula of engineering the accelerated evolution of the human species unto Godhead? Who can tell? But the fact remains that Swamiji perhaps believed that the study of the child-mind held the key to the principal questions of human evolution and thus he was so very eager to get the little children into chatting with him on their own terms and never his. Of course one cannot discount his vast love that naturally made him the friend of these innocent ones! Sweet little kids, unto you belongs the future of humanity. Jai Swamiji! Jai Hind!

Written by Sugata Bose

Wednesday, 28 September 2022

When we go to the Divine for help

Once there was a great shortage of cement in the Ashram and as I was then in charge of purchases the responsibility for procuring it rested on me. So I asked our Mother to do something about it as really all our building work had come to a standstill. The suppliers of cement kept on regretting their inability to supply cement to us. The Mother said She would look into the matter.
      Then the cement began to come, a regular flood. All our warehouses were full and we could not use the cement fast enough to meet the inflow. So the departments concerned asked me to stop the supply. I did this without consulting the Mother. The supply stopped. It stopped completely for such a long time that there was again a shortage, worse than before. I went once more to the Mother for Her help and told Her the whole story. She was displeased at my action in stopping the supply.
      She said to me that when we go to the Divine for help we must be prepared to receive it in whatever measure it comes. If the supplies were large, we should have enlarged our capacity to use them. To have stopped the supply, as I did, showed a great lack of understanding of the Divine's way of working and so was quite unspiritual.

Tuesday, 27 September 2022

NAVARAATRI SANDESH नवरात्रि संदेश:

नवरात्रि संदेश:
हम अपने पिछले अनुभवों के आधार पर भविष्य के सुख-दुख की कल्पना करते हैं। भविष्य में दुख की संभावना को खत्म करने के लिए हम आज योजना बनाते हैं। लेकिन अगर हम आज कल की बाधा के लिए योजना बनाते हैं; इससे हमें फायदा होगा या नुकसान? हम अक्सर इस सवाल को नज़रअंदाज कर देते हैं।
सच तो यह है कि एक समस्या और उसका समाधान दोनों एक साथ पैदा होते हैं- मनुष्य और प्रकृति दोनों के लिए भी। है न? अपने अतीत के बारे में सोचें, इतिहास को देखें, आपको पता चलेगा कि जब भी कोई समस्या आती है तो उसका समाधान भी उसके साथ ही होता है। यही ब्रह्मांड का नियम है।
इसलिए एक समस्या वास्तव में समाधान के जन्म का कारण है। जब भी कोई व्यक्ति किसी समस्या को हल करने और उससे बाहर निकलने में सक्षम होता है, तो वह एक कदम आगे बढ़ता है। वह समझदार है और वह न केवल अपने लिए बल्कि दुनिया के लिए भी आत्मविश्वास से भरपूर है। है न? वास्तव में, समस्या स्वयं को बदलने, विचारों को व्यापक बनाने, आत्मा को मजबूत और अधिक प्रबुद्ध बनाने का अवसर है। जो ऐसा करने में सक्षम है, उसे कभी किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है। लेकिन जो ऐसा करने में विफल रहता है; दुनिया के लिए खुद एक समस्या है। उस पर चिंतन करें।

NAVARAATRI SANDESH 
On the basis of our past experiences we assume the joys and sorrows of the future. To eliminate the chances of sorrow in the future, we make plans today. But if we plan for tomorrow’s hurdle today; will it benefit us or harm us? We often overlook this question. 
The truth is that a problem and its solution are both born together- for both man and nature too. Isn’t it? Think of your past, look at history, you will realise that whenever a problem arises so does it solution arise simultaneously with it only. That’s the law of the universe. 
Therefore a problem actually is the reason for the birth of the solution. Whenever a person is able to resolve a problem and emerge out of it, then he progresses a step further. He is wiser and he is high of confidence, not just for himself but for the world as well. Isn’t it? In reality, a problem is an opportunity given to change oneself, to broaden ones views, to make the soul stronger and more enlightened. The one, who is able to do so, never faces any problems. But the one who fails to do this; is himself a problem to the world. Reflect upon it.

Saturday, 24 September 2022

Swami Akhandananda Tithi Puja Toda

🌺Swami Akhandananda Tithi Puja Today 🌺
Satyen (Swami Atmabodhananda) of Udbodhan Math used to sell books from a small book-shop in College Street, Calcutta, when he was an inmate of the Advaita Ashrama. He would take a simple meal at 10 a.m. and spend the whole day in the book shop. 

One day I chanced to visit him there, and standing just in front of the shop I gave him a good lecture which Satyen remembers even now. He told me, 'Maharaj, that inspiration is still driving me!' I told him: 'It is not an easy task you have taken up. How much of renunciation and service and Tapasya (austerity) is involved in this work! This is real Sadhana. In the morning you come here after a bare meal. Others enjoy a full meal at noon-this is renunciation. Then you have to stay seated in this small room—this is Tapasya. Then again from the books sold here, people are getting the ideas of our Master and Swamiji. It is through your hands that they are reaching the people. This is a great service to the Master. Do you think that only the service done in the shrine is service to him?'

 - Swami Akhandananda (The call of the Spirit)

Money Manangement

Money Manangement.

I once asked the Mother what is the right attitude to money, should we store money, should we be misers or should we be spendthrifts. she told me something which has always stuck in my mind. It is a paradox.

She said you should be both.  You should welcome money, conserve it with attention to the last pie; it is an occult law that where money is treasured, where money is respected, there it flows. 

Money flows where it is welcomed, where it is cherished, where it worshipped. That is why money in the west has always flowed to the jewish community. 

And once it starts coming, it forms a habit of pouring there. So you conserve, you have to be a careful accountant when you get and keep the money. 

But she said, when you spend you have to be liberal, be generous; do not calculate when you spend. 

Choose a good cause, spend , but do not waste. 

Whether it is coins, currency notes or food or clothes, do not waste but spend wisely; Nature always rushes things where they are properly used.

So we have to educate ourselves on both the fronts, on acquiring money without greed as a force of god to be won, treasured, cherished and utilised.

Pandit, M.P., Art of Living, Talks on the Mother's Affirmative Spirituality,  p.159.

Monday, 19 September 2022

Miser

“For example, a miser who is concentrated upon his money, when he dies, the part of the vital that was interested in his money will be stuck there and will continue to watch over the money so that nobody may take it. People do not see him, but he is there all the same, and is very unhappy if something happens to his precious money. I knew quite well a lady who had a good amount of money and children; she had five children who were all prodigals each one more than the other. The same amount of care she had taken in amassing the money, they seemed to take in squandering it; they spent it at random. So when the poor old lady died, she came to see me and told me: “Ah, now they are going to squander my money!” And she was extremely unhappy. I consoled her a little, but I had a good deal of difficulty in persuading her not to keep watching over her money so that it might not be wasted.”

Excerpt From -
The Mother's Vision ,
The Mother.

Saturday, 10 September 2022

Swami Vivekananda: We manufacture our own lives

Swami Vivekananda: We manufacture our own lives
What we think, that our body becomes. Everything is manufactured by thought, and thus we are the manufacturers of our own lives. We alone are responsible for whatever we do. It is foolish to cry out: "Why am I unhappy?" I made my own unhappiness. It is not the fault of the Lord at all....

Each one of us reaps what we ourselves have sown. These miseries under which we suffer, these bondages under which we struggle, have been caused by ourselves, and none else in the universe is to blame. God is the least to blame for it.

Source: Complete Works, Volume 9 : The First Step towards Jnana.

Thursday, 8 September 2022

श्राद्ध_क्या_है_संपूर्ण_जानकारी

#श्राद्ध_क्या_है_संपूर्ण_जानकारी
भाद्रपद की पूर्णिमा और अश्विन मास की कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को पितृ पक्ष कहते हैं।  ब्रह्मपुराण के अनुसार मनुष्य को देवताओं की पूजा करने से पहले अपने पूर्वजों की पूजा करनी चाहिए क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इससे देवता प्रसन्न होते हैं। इसी वजह से भारतीय समाज में बड़ों का सम्मान और मरणोपरांत पूजा की जाती है। ये प्रसाद श्राद्ध के रूप में होते हैं जो पितृपक्ष में पड़ने वाली मृत्यु तिथि (तारीख) को किया जाता है और यदि तिथि ज्ञात नहीं है, तो अश्विन अमावस्या की पूजा की जा सकती है जिसे सर्व प्रभु अमावस्या भी कहा जाता है। श्राद्ध के दिन हम तर्पण करके अपने पूर्वजों का स्मरण करते हैं और ब्राह्मणों या जरूरतमंद लोगों को भोजन और दक्षिणा अर्पित करते है

श्राद्ध क्या है संपूर्ण जानकारी । श्राद्ध दो प्रकार के होते है , 1)पिंड क्रिया 2) ब्राह्मणभोज 1)पिण्डक्रिया* यह प्रश्न स्वाभाविक है कि श्राद्ध में दी गई अन्न सामग्री पितरों को कैसे मिलती है...? 
"नाम गौत्रं च मन्त्रश्च दत्तमन्नम नयन्ति तम। अपि योनिशतम प्राप्तान्सतृप्तिस्ताननुगच्छन्ति"।। (वायुपुराण) 

श्राद्ध में दिये गये अन्न को नाम , गौत्र , ह्रदय की श्रद्धा , संकल्पपूर्वक दिये हुय पदार्थ भक्तिपूर्वक उच्चारित मन्त्र उनके पास भोजन रूप में उपलब्ध होते है , 

2)ब्राह्मणभोजन निमन्त्रितान हि पितर उपतिष्ठन्ति तान द्विजान । वायुवच्चानुगच्छन्ति तथासिनानुपासते ।। (मनुस्मृति 3,189) अर्थात श्राद्ध में निमंत्रित ब्राह्मण में पितर गुप्तरूप से प्राणवायु की भांति उनके साथ भोजन करते है , म्रत्यु के पश्चात पितर सूक्ष्म शरीरधारी होते है , इसिलिय वह दिखाई नही देते , *तिर इव वै 1पितरो मनुष्येभ्यः* ( शतपथ ब्राह्मण ) अर्थात सूक्ष्म शरीरधारी पितर मनुष्यों से छिपे होते है । *धनाभाव में श्राद्ध* धनाभाव एवम समयाभाव में श्राद्ध तिथि पर पितर का स्मरण कर गाय को घांस खिलाने से भी पूर्ति होती है , यह व्यवस्था पद्मपुराण ने दी है , यह भी सम्भव न हो तो इसके अलावा भी , श्राद्ध कर्ता एकांत में जाकर पितरों का स्मरण कर दोनों हाथ जोड़कर पितरों से प्रार्थना करे न मेस्ति वित्तं न धनम च नान्यच्छ्श्राद्धोपयोग्यम स्वपितृन्नतोस्मि । तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयोतौ कृतौ भुजौ वर्तमनि मारुतस्य ।। (विष्णुपुराण) अर्थात ' है पितृगण मेरे पास श्राद्ध हेतु न उपयुक्त धन है न धान्य है मेरे पास आपके लिये ह्रदय में श्रद्धाभक्ति है मै इन्ही के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूं आप तृप्त होइये श्राद्ध सामान्यतः 3 प्रकार के होते है *नित्य नैमितकम काम्यम त्रिविधम श्राद्धम उच्यते* यम स्मृति में 5 प्रकार तथा , विश्वामित्र स्मृति में 12 प्रकार के श्राद्ध का वर्णन है ,किंतु 5 श्राद्ध में ही सबका अंतर्भाव हो जाता है , 1)नित्य श्राद्ध* प्रतिदिन किया जाने बाला श्राद्ध , जलप्रदान क्रिया से भी इसकी पूर्ति हो जाती है 2)नैमितकम श्राद्ध* वार्षिक तिथि पर किया जाने बाला श्राद्ध , 

3)काम्यश्राद्ध* किसी कामना की पूर्ति हेतु किया जाने वाला श्राद्घ 4)वृद्धिश्राद्ध (नान्दीश्राद्ध)* मांगलिक कार्यों , विवाहादि में किया जाने बाला श्राद्ध 5)पावर्ण श्राद्ध* पितृपक्ष ,अमावस्या आदि पर्व पर किया जाने बाला श्राद्ध श्राद्ध कर्म से मनुष्य को पितृदोष-ऋण से मुक्त के साथ जीवन मे सुखशांति तो प्राप्त होती है , अपितु परलोक भी सुधरता है पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिताहि परमम् तपः। पितरी प्रितिमापन्ने प्रियन्ते सर्व देवता।। सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमय: पिता।मातरं पितरं तस्मात सर्वयत्नेन पूजयेत इस सृष्टि में हर चीज का अथवा प्राणी का जोड़ा है, जैसे: रात और दिन, अँधेरा और उजाला, सफ़ेद और काला, अमीर और गरीब अथवा नर और नारी इत्यादि बहुत गिनवाये जा सकते हैं। सभी चीजें अपने जोड़े से सार्थक है अथवा एक-दूसरे के पूरक है, दोनों एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं, इसी तरह दृश्य और अदृश्य जगत का भी जोड़ा है, दृश्य जगत वो है जो हमें दिखता है और अदृश्य जगत वो है जो हमें नहीं दिखता, ये भी एक-दूसरे पर निर्भर है और एक-दूसरे के पूरक हैं। 

मित्रों, पितृ-लोक भी अदृश्य-जगत का हिस्सा है और अपनी सक्रियता के लिये दृश्य जगत के श्राद्ध पर निर्भर है। सनातन धर्मग्रंथों के अनुसार श्राद्ध के सोलह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं, ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है, वर्ष के किसी भी मास तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है। पूर्णिमा पर देहांत होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है, इसी दिन से महालय (श्राद्ध) का प्रारंभ भी माना जाता है, श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्ष भर तक प्रसन्न रहते हैं, 

धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि पितरों का पिण्ड दान करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है। श्राद्ध में पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्ड दान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे, इसी आशा के साथ वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं, यही कारण है कि हिंदू धर्म शास्त्रों में प्रत्येक हिंदू गृहस्थ को पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य रूप से करने के लिए कहा गया है। श्राद्ध से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं, मगर ये बातें श्राद्ध करने से पूर्व जान लेना बहुत जरूरी है क्योंकि कई बार विधिपूर्वक श्राद्ध न करने से पितृ श्राप भी दे देते हैं, आज हम आपको श्राद्ध से जुड़ी कुछ विशेष बातें बता रहे हैं, जो इस प्रकार हैं: 1- श्राद्धकर्म में गाय का घी, दूध या दही काम में लेना चाहिए, यह ध्यान रखें कि गाय को बच्चा हुए दस दिन से अधिक हो चुके हैं, दस दिन के अंदर बछड़े को जन्म देने वाली गाय के दूध का उपयोग श्राद्ध कर्म में नहीं करना चाहिए। 2- श्राद्ध में चांदी के बर्तनों का उपयोग व दान पुण्यदायक तो है ही राक्षसों का नाश करने वाला भी माना गया है, 

पित्रों के लिए चांदी के बर्तन में सिर्फ पानी ही दिए जाए तो वह अक्षय तृप्तिकारक होता है, पितरों के लिए अर्घ्य, पिण्ड और भोजन के बर्तन भी चांदी के हों तो और भी श्रेष्ठ माना जाता है। 3- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाते समय परोसने के बर्तन दोनों हाथों से पकड़ कर लाने चाहिए, एक हाथ से लाए अन्न पात्र से परोसा हुआ भोजन राक्षस छीन लेते हैं। 4- ब्राह्मण को भोजन मौन रहकर एवं व्यंजनों की प्रशंसा किए बगैर करना चाहिए क्योंकि पितर तब तक ही भोजन ग्रहण करते हैं जब तक ब्राह्मण मौन रह कर भोजन करें। 5- जो पितृ शस्त्र आदि से मारे गए हों उनका श्राद्ध मुख्य तिथि के अतिरिक्त चतुर्दशी को भी करना चाहिए, इससे वे प्रसन्न होते हैं, श्राद्ध गुप्त रूप से करना चाहिए, पिंड दान पर साधारण या नीच मनुष्यों की दृष्टि पडने से वह पितरों को नहीं पहुंचता। 6- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाना आवश्यक है, जो व्यक्ति बिना ब्राह्मण के श्राद्ध कर्म करता है, उसके घर में पितर भोजन नहीं करते, श्राप देकर लौट जाते हैं, ब्राह्मण हीन श्राद्ध से मनुष्य महापापी होता है। 

7- श्राद्ध में जौ, कांगनी, मटरसरसों का उपयोग श्रेष्ठ रहता है, तिल की मात्रा अधिक होने पर श्राद्ध अक्षय हो जाता है, वास्तव में तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं, कुशा (एक प्रकार की घास) राक्षसों से बचाते हैं। 8- दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए, वन, पर्वत, पुण्यतीर्थ एवं मंदिर दूसरे की भूमि नहीं माने जाते क्योंकि इन पर किसी का स्वामित्व नहीं माना गया है, अत: इन स्थानों पर श्राद्ध किया जा सकता है। 9- चाहे मनुष्य देवकार्य में ब्राह्मण का चयन करते समय न सोचे, लेकिन पितृ कार्य में योग्य ब्राह्मण का ही चयन करना चाहिए क्योंकि श्राद्ध में पितरों की तृप्ति ब्राह्मणों द्वारा ही होती है। 10- जो व्यक्ति किसी कारणवश एक ही नगर में रहने वाली अपनी बहिन, जमाई और भानजे को श्राद्ध में भोजन नहीं कराता, उसके यहां पितर के साथ ही देवता भी अन्न ग्रहण नहीं करते। 

11- श्राद्ध करते समय यदि कोई भिखारी आ जाए तो उसे आदर-पूर्वक भोजन करवाना चाहिए, जो व्यक्ति ऐसे समय में घर आए याचक को भगा देता है उसका श्राद्ध कर्म पूर्ण नहीं माना जाता और उसका फल भी नष्ट हो जाता है। 12- शुक्लपक्ष में, रात्रि में, युग्म दिनों (एक ही दिन दो तिथियों का योग) में तथा अपने जन्मदिन पर कभी श्राद्ध नहीं करना चाहिए, धर्म ग्रंथों के अनुसार सायंकाल का समय राक्षसों के लिए होता है, यह समय सभी कार्यों के लिए निंदित है, अत: शाम के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए। 13- श्राद्ध में प्रसन्न पितृगण मनुष्यों को पुत्र, धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष और स्वर्ग प्रदान करते हैं, श्राद्ध के लिए शुक्लपक्ष की अपेक्षा कृष्णपक्ष श्रेष्ठ माना गया है। 14- रात्रि को राक्षसी समय माना गया है, अत: रात में श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए, दोनों संध्याओं के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए, दिन के आठवें मुहूर्त (कुतपकाल) में पितरों के लिए दिया गया दान अक्षय होता है। 15- श्राद्ध में ये चीजें होना महत्वपूर्ण हैं: गंगाजल, दूध, शहद, दौहित्र, कुश और तिल, केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है। 

सोने, चांदी, कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं, इनके अभाव में पत्तल उपयोग की जा सकती है। 16- तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं, ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णु लोक को चले जाते हैं, तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं। 17- रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं, आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए। 18- चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।

 19- सनातन धर्म के भविष्य पुराण के अनुसार श्राद्ध 12 प्रकार के होते हैं, जो इस प्रकार हैं- 1- नित्य, 2- नैमित्तिक, 3- काम्य, 4- वृद्धि, 5- सपिण्डन, 6- पार्वण, 7- गोष्ठी, 8- शुद्धर्थ, 9- कर्मांग, 10- दैविक, 11- यात्रार्थ, 12- पुष्टयर्थ 20- श्राद्ध के प्रमुख अंग इस प्रकार : तर्पण- इसमें दूध, तिल, कुशा, पुष्प, गंध मिश्रित जल पितरों को तृप्त करने हेतु दिया जाता है, श्राद्ध पक्ष में इसे नित्य करने का विधान है। भोजन व पिण्ड दान-- पितरों के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन दिया जाता है, श्राद्ध करते समय चावल या जौ के पिण्ड दान भी किए जाते हैं। वस्त्रदान-- वस्त्र दान देना श्राद्ध का मुख्य लक्ष्य भी है। दक्षिणा दान-- यज्ञ की पत्नी दक्षिणा है जब तक भोजन कराकर वस्त्र और दक्षिणा नहीं दी जाती उसका फल नहीं मिलता। 21 - श्राद्ध तिथि के पूर्व ही यथाशक्ति विद्वान ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलावा दें, श्राद्ध के दिन भोजन के लिए आए ब्राह्मणों को दक्षिण दिशा में बैठाएं। 

22- पितरों की पसंद का भोजन दूध, दही, घी और शहद के साथ अन्न से बनाए गए पकवान जैसे खीर आदि है, इसलिए ब्राह्मणों को ऐसे भोजन कराने का विशेष ध्यान रखें। 23- तैयार भोजन में से गाय, कुत्ते, कौए, देवता और चींटी के लिए थोड़ा सा भाग निकालें, इसके बाद हाथ जल, अक्षत यानी चावल, चन्दन, फूल और तिल लेकर ब्राह्मणों से संकल्प लें। 24- कुत्ते और कौए के निमित्त निकाला भोजन कुत्ते और कौए को ही कराएं किंतु देवता और चींटी का भोजन गाय को खिला सकते हैं। इसके बाद ही ब्राह्मणों को भोजन कराएं, पूरी तृप्ति से भोजन कराने के बाद ब्राह्मणों के मस्तक पर तिलक लगाकर यथाशक्ति कपड़े, अन्न और दक्षिणा दान कर आशीर्वाद पाएं। 25- 

ब्राह्मणों को भोजन के बाद घर के द्वार तक पूरे सम्मान के साथ विदा करके आएं, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणों के साथ-साथ पितर लोग भी चलते हैं, ब्राह्मणों के भोजन के बाद ही अपने परिजनों, दोस्तों और रिश्तेदारों को भोजन कराएं। 26- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए, पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है, पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में सपिंडो (परिवार के) को श्राद्ध करना चाहिए, एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राध्दकर्म करें या सबसे छोटा। 

अतः श्राद्ध अवश्य करे।

🚩हर हर महादेव🚩




Monday, 29 August 2022

सभी लोग धर्म (धम्म) को ठीक से क्यों नहीं समझ पाते ?

एक बार स्थविर आनंद ने भगवान से पूछा कि, "भगवान, सभी लोग धर्म (धम्म) को ठीक से क्यों नहीं समझ पाते ?"

तब भगवान ने कहा, "आनन्द, असंख्य कल्पों तक दुर्गति में रहने के बाद जिन्हें मनुष्य जीवन मिला हो, ऐसे लोग उन्हें योग्य कल्याणमित्र मिलने पर भी अनेक जन्मों के उस स्वभाव के कारण धर्म सुनना नहीं चाहते, और अगर धर्म सुनें तो भी समझ नहीं पाते ।"

और जो पिछले जन्मों में मनुष्य होते हुए भी मद्यपान, मनोरंजन करते हुए विषयों के आधीन ही जीवन जीते रहें, वे लोग भी, योग्य कल्याणमित्र मिलने पर भी धर्म सुनना नहीं चाहते, और अगर धर्म सुनें तो भी समझ नहीं पाते ।"

और जो पिछले जन्मों में मनुष्य होते हुए भी *जीनका पुण्य का संग्रह बहुत कम है, जो पूर्व जन्मों में मिथ्या दृष्टि में उलझे रहे, वे लोग भी, योग्य कल्याणमित्र मिलने पर भी धर्म सुनना नहीं चाहते, और अगर धर्म सुनें तो भी समझ नहीं पाते ।"*

पूर्व पुण्य का संग्रह जितना ज्यादा हो, वह व्यक्ति उतना ही ज्यादा धर्म की ओर आकर्षित होता हैं, और योग्य कल्याणमित्र मिलने पर धर्म समझकर प्रगति भी करता हैं और अपना मनुष्य जीवन सार्थक कर लेता हैं और अनेकों के कल्याण का कारण भी बनता हैं ।

*इसलिए लोगों को चाहिए कि, वे अपना पुण्य संग्रह निरंतर बढ़ाते रहें, योग्य कल्याणमित्रों की संगति करें और मिथ्यादृष्टी में पड़े हुए अज्ञानी, नासमझ, मूर्ख लोगों से दूर रहें ।*

Saturday, 27 August 2022

मृत्युभोज

मृत्युभोज_के_विरोध पर बहुत लिखा जा रहा है आजकल.. 
पर मेरा मत जरा अलग है..
मृत्युभोज कुरीति नहीं है.  समाज और रिश्तों को सँगठित करने के अवसर की पवित्र परम्परा है,
हमारे पूर्वज हमसे ज्यादा ज्ञानी थे ! आज मृत्युभोज का विरोध है, कल विवाह भोज का भी विरोध होगा.. हर उस सनातन  परंपरा का विरोध होगा जिससे रिश्ते और समाज मजबूत होता है.. इसका विरोध करने वाले ज्ञानियों हमारे बाप दादाओ ने रिश्तों को जिंदा रखने के लिए ये परम्पराएं बनाई हैं!..., ये सब बंद हो गए तो रिश्तेदारों, सगे समबंधियों, शुभचिंतकों को एक जगह एकत्रित कर मेल जोल का दूसरा माध्यम क्या है,.. दुख की घड़ी मे भी रिश्तों को कैसे प्रगाढ़ किया जाय ये हमारे पूर्वज अच्छे से जानते थे.. 
हमारे बाप दादा बहुत समझदार थे,  वो ऐसे आयोजन रिश्तों को सहेजने और जिंदा रखने के किए करते थे.
हाँ  ये सही है की  कुछ लोगों ने मृत्युभोज को  हेकड़ी और शान शौकत दिखाने का   माध्यम बना लिया, आप पूड़ी सब्जी ही खिलाओ. 
     कौन कहता है की 56 भोग परोसो.. 
    कौन कहता है कि 4000-5000 लोगों को ही भोजन कराओ और दम्भ दिखाओ, परम्परा तो केवल 16 ब्राह्मणों की थी.
मैं खुद दिखावे की विरोधी हूँ लेकिन अपनी उन परंपराओं की कट्टर समर्थक भी  हूँ, जिनसे आपसी प्रेम, मेलजोल और भाईचारा बढ़ता हो.
कुछ कुतर्कों की वजह से हमारे बाप दादाओं ने जो रिश्ते सहजने की परंपरा दी उसे मत छोड़ो, यही वो परम्पराएँ हैं जो दूर दूर के रिश्ते नाते को एक जगह लाकर फिर से समय समय पर जान डालते हैं .
सुधारना हो तो लोगों को सुधारो जो आयोजन  रिश्तों की बजाय हेकड़ी दिखाने के लिए करते हैं,
किसी परंपरा की कुछ विधियां यदि समय सम्मत नही है तो उसका सुधार किया जाये ना की उस परंपरा को ही बंद कर दिया जाये.
 हमारे बाप दादा जो परम्पराएं देकर गए हैं रिश्ते सहेजने के लिए उसको बन्द करने का ज्ञान मत बाँटिये मित्रों, वरना तरस जाओगे मेल जोल को,,,,, बंद बिल्कुल मत करो, समय समय पर शुभचिंतकों ओर रिश्तेदारों को एक जगह एकत्रित होने की परम्परा जारी रखो.
ये संजीवनी है रिश्ते नातों को जिन्दा करने की...
लता ठाकुर बुलंदशहर उत्तर प्रदेश 🙏🙏

घर और अन्य सुख सुविधा

*एक बार कैलाश पर्वत पर भगवान शिव और माँ पार्वती बैठे हुए थे। शिव जी ध्यान लगा कर बैठे थे। तभी पार्वती जी ने देखा कि वे मन्द-मन्द मुस्कुरा रहे हैं। पार्वती जी के मन में प्रश्न उठा कि आज महादेव ध्यान मुद्रा में भी क्यों मुस्कुरा रहे हैं।*

*उन्होंने भोले बाबा की समाधी समाप्त होने पर उनसे पूछा – स्वामी मैंने आपको पहली बार समाधी में मुस्कुराते हुए देखा है इसका क्या कारण है।*

*शिव जी ने उन्हें बताया कि उनके एक भक्त और उसकी पत्नी की बातें सुन कर वे मुस्कुरा रहे थे। पूरी बात बताते हुए महादेव ने बताया कि मृत्युलोक में मेरा एक अनन्य भक्त एक ब्राह्मण है जो कि मेरे ही एक मन्दिर में पुजारी है और दिन रात मेरी सेवा में लगा रहता है।*

*वह इसी मन्दिर के पीछे छोटी सी कुटिया में अपनी पत्नी के साथ रहता है। इसकी पत्नी चाहती है कि उसके पास उसका खुद का घर हो और धन-दौलत हो जिससे वह सुख से अपना जीवन बिता सके परन्तु पुजारी केवल मन्दिर के चढ़ावे पर निर्भर है और मन्दिर में आने वाली दान दक्षिण से बड़ी मुश्किल से उसके घर का खर्च ही चल पाता है।*

*घर और अन्य सुख सुविधा कहां से आयेंगी पर वह दिन रात मेरे से अपनी पत्नी का सपना पूरा करने का अनुग्रह करता रहता है। आज उसकी पत्नी ने उससे ऐसी बात कही जिसे सुनकर मैं मुस्कुराए बगैर नहीं रह सका।*

*पार्वती जी ने पूछा ऐसा क्या कहा उसकी पत्नी ने जो आपका ध्यान भंग हो गया। शिवजी ने बताया उसकी पत्नी ने आज उसे ताना मारते हुए कहा कि जिन भोले शंकर की तुम दिन रात सेवा करते रहते हो और उनसे मेरे लिए घर मांगते रहते हो उनके पास तो खुद घर नहीं है वे तो खुद कैलास पर्वत पर रहते हैं। तुम्हें कहां से घर देंगे। बस यही बात सुनकर मैं मुस्कुरा रहा था।*

*इस पर पार्वती जी को बड़ा आश्चर्य हुआ उन्होंने कहा स्वामी यह बात सुन कर मुझे बहुत बुरा लगा वह आपको ताना मार रही है और आप मुस्कुरा रहे हैं। आप उसे एक घर और सुख सुविधाएं दे दीजिए जिससे वो आपकी निन्दा न कर सके।*

*इस पर शिव जी ने कहा पार्वती यह मेरे वश में नहीं है। ये सभी प्राणी तो मृत्युलोक में रहते हैं अपने पिछले जन्म के और साथ ही इस जन्म के कार्मो का फल भोग रहे हैं। और जैसे ही इनके कर्मो का फल इन्हें मिल जाता है। उन्हें सभी प्रकार के सुख मिलना शुरू हो जाते हैं। और अंत में वे मुक्ति पा जाते हैं।*

*इसी लिए इसे मृत्युलोक कहा गया है। मनुष्य बार बार जन्म लेकर अपने कर्मो का हिसाब चुकाता है। यह कर्म भूमि है बिना कर्म के गति नहीं है।*

*आगे शिव जी ने कहा यह ब्राह्मण पिछले जन्म में एक साहुकार था जो कि लोगों की जमीन, उनके जेवर पशु आदि गिरवी रख कर उन्हें पैसे देता था और उनकी जमीन हड़प लेता था। और जो दूसरों के जेवर और ब्याज में पैसा मिलता था। उसका उपयोग यह उसकी पत्नी भी किया करती थी।*

*इसी कारण आज इस जन्म में इसे घर नहीं मिल सकता और इसकी पत्नी जिसने उन वस्तुओं का उपयोग किया वह भी इसके साथ यह कर्मफल भोग रही है।*

*इस जन्म में यह मेरी सेवा कर रहा है। जिससे इसके कर्मो के फल में जो कष्ट मिलने थे वे मेरी भक्ति के कारण इसे नहीं मिल रहे हैं। इसका जीवन शांति से कट रहा है पर जब तक इसके कर्मो का हिसाब पूरा नहीं होता इसे घर और अन्य सुविधाएं नहीं मिल सकती। यही विधि का विधान है।*

*पार्वती जी ने कहा यह तो ठीक है। पर उसकी पत्नी जो आपकी निन्दा कर रही है उसका क्या।*

*तब शिव जी ने कहा संसार में जैसे जैसे कलयुग का समय निकट आता जायेगा। मनुष्य भगवान की भक्ति करने के स्थान पर उनकी निन्दा करने लगेगा यह सृष्टी के आरम्भ में ही लिखा जा चुका है। जो व्यक्ति इस कठिन समय में मेरी सेवा करता रहेगा उसको इस मृत्युलोक से मुक्ति मिल जायेगी।* 

*नमो पार्वती पत्तया हर हर महादेव 💕🍂🌷💕💕🌷🍂💕💕🍂🌷🌷💕🍂💕🌷💕🍂*

Wednesday, 24 August 2022

लोपामुद्रा

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लोपामुद्रा
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प्राचीनकाल में अगस्त्य नाम के महान् ऋषि हुए। वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने आर्य और दास वर्ण के लोगों को मिलाकर नयी संस्कृति की नींव खड़ी की। उन्होंने उत्तर और दक्षिण को जोड़ा। अलग-अलग जातियों में परस्पर मेल करवा कर अगस्त्य ने मनुष्यता की सच्ची सेवा की।

महर्षि अगस्त्य समाज में ऊँच-नीच का भेद नहीं मानते थे। वे अपने दल के साथ दुर्गम विन्ध्य पर्वत को पार कर तमिल प्रान्त में आये। एक दिन उषाकाल में वे समुद्रतट पर खड़े थे। वहाँ एक तरुणी को उन्होंने देखा। वह तरुणी समुद्र की उत्ताल तरंगों के साथ थिरक रही थी। एकांत में उसकी आंगिक और भावमुद्राएँ देखकर अगस्त्य चकित रह गये। तरुणी इस बात से अनजान थी कि कोई उसे नृत्य करते हुए देख रहा है।

अगस्त्य ने अनुभव किया कि यह तरुणी असाधारण है, और नृत्य के माध्यम से भगवान् को निवेदित हो रही है। अगस्त्य बड़ी देर तक देखते रहे, फिर धीरे से बोले-"कुमारिके!" कानों में ये शब्द पड़ते ही तरुणी ठिठक गई। अगस्त्य को देखते ही उसकी सब मुद्राएँ लुप्त हो गईं। अगस्त्य ने उसके अन्तर्मन को समझ लिया। उन्होंने तरुणी को सम्बोधित किया -"लोपामुद्रा !"
          
लोपामुद्रा समुद्र को साध रही थी। समुद्र की विशालता और उसकी धीर गम्भीरता को वह जी लेना चाहती थी। महर्षि अगस्त्य में उसे मूर्तिमान समुद्र ही दिखाई दिया।
          
लोपामुद्रा अत्यंत निम्न जाति की कन्या थी, किंतु उसमें महान् सत्य को प्राप्त करने की प्रबल इच्छा थी। महर्षिअगस्त्य ने आगे होकर प्रणय निवेदन किया। लोपामुद्रा को ब्रह्मविद्या प्राप्त करने का अनुकूल अवसर दिखाई दिया। वह विनीत भाव से अर्घ्य लेकर ऋषि के चरणों में समर्पित हो गई।

अगस्त्य के आश्रम में लोपामुद्रा का स्थान सबसे ऊँचा था। साधना और समर्पण के बल पर ही लोपामुद्रा ने वैदिक ऋषियों में अपना स्थान बनाया। ऋग्वेद के प्रथम मंडल के १७९ वें सूक्त की आर्ष गायिका लोपामुद्रा है। इस सूक्त में अगस्त्य के साथ लोपामुद्रा का संवाद बहुत लोकप्रिय और चर्चित है। इस सूक्त से लोपामुद्रा की एक ऋचा-

नदस्य मा रुधतः काम आग-
न्नित आ जातो अमुतः कुतश्चित्।
लोपामुद्रा वृषणं नीरिणाति 
धीरमधीरा धयति श्वसन्तम् ।।

💥मुरलीधर

Tuesday, 23 August 2022

संप्रज्ञात - असंप्रज्ञात समाधि

🌷 संप्रज्ञात - असंप्रज्ञात समाधि 🌷
(मार्च-1988, जयपुर में आयोजित योग सम्मेलन में विपश्यनाचार्य श्री सत्य नारायण गोयनकाजी के एक सार्वजनिक प्रवचन से कुछ अंश....)

✍️.....अरे जानो अपने आपको भाई! और अनुभूति से जानो, कोरी बातों से मत जानो। 
अनुभूति होगी तभी पूरा ज्ञान प्राप्त होगा, अपना ज्ञान प्राप्त होगा, सम्यक ज्ञान प्राप्त होगा, मुक्ति की ओर जाते चले जायेंगे। और केवल सुने-सुनाये ज्ञान पर बहस करते रह जायेंगे तो सारा जीवन खो देंगे....

एक श्लोक है -
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि, भुञ्जानं वा गुणान्वितं ।
विमूढा नानुपश्यन्ति, पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।।

विमूढ़ व्यक्ति विपश्यना नहीं कर सकता। जो विपश्यना करता है उसी के ज्ञानचक्षु खुलते हैं। ज्ञानचक्षु खुलते हैं तो विपश्यना करता है, विपश्यना करता है तो ज्ञानचक्षु खुलते हैं। 

क्या ज्ञानचक्षु खुलते हैं?

‘उत्क्रामन्तं'- देख यह मानस का एक हिस्सा सिर उठाता है, उत्क्रमण करता है। 
कान पर, नाक पर, जीभ पर, त्वचा पर, कहीं कोई विषय टकराया कि वह कहता है, कुछ हुआ। 

इतने में मानस का दूसरा हिस्सा ‘स्थितं' स्थित होकर के देखता है, क्या हुआ, क्या खटपट हुई भाई? तो वह पहचानता है। पहचान करके मूल्यांकन करता है और मूल्यांकन करते ही संवेदना होती है। 

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि, 
हुई संवेदना । 
सुखद हुई तो!
उसका सुख भोगने लगा। दुःखद हुई , उसका दुःख भोगने लगा। 
अरे भुञ्जानं, भुञ्जानं । 

और जहां दुःख भोगने लगा, कि सुख भोगने लगा वहां गुणान्वितं, गुणान्वितं, लगा बँधने, लगा बँधने । 

अरे, सारी बात समझ में आ गयी ना? पाठ करने से तो नहीं समझ में आयी, विवाद करने से नहीं समझ में आयी। इस विद्या में से गुज़रने से बात समझ में आयी।

महापुरुष यही सिखाते हैं कि जहां बँधते हों वहां बंधन खोलो, बँधने मत दो। 
तो संप्रज्ञान यही है। संप्रज्ञान की कितनी विशद व्खाख्या की गयी! अनुभूति द्वारा करके देखो। 
देखो, जो अनित्य है वह अनित्य है ना? टुकड़े कर करके देखो, टुकड़े कर करके देखो तो सम्यक रूप से जो प्रज्ञा जागती है वह संप्रज्ञान। तो सम्यक रूप से प्रज्ञा जागी। 

एक-एक बात, एक-एक बात टुकड़े कर करके, टुकड़े कर करके देखने लगे तो बात समझ में आयी। 

जो द्रष्टा है (देखनेवाला हिस्सा ) यह तो इतना कमज़ोर हो गया और वह चौथा हिस्सा जो भोक्ता है वह इतना बलवान हो गया! जब देखो तब भोगने का काम करता है और बांधता है ।
भोगने का काम करता है और बांधता है। 
यह जो द्रष्टा है यह तो बड़ा निर्जीव जैसा हो गया। इसका ज़रा-सा भी बल नहीं। 

अब विपश्यना द्वारा सारी सच्चाई को देखते-देखते द्रष्टा बलवान होता है, भोक्ता कमज़ोर होता है। कर्ता भी कमज़ोर होता है, द्रष्टा बलवान होता है, द्रष्टा बलवान होता है क्योंकि टुकड़े कर करके देख लिया। 
फिर आगे जाकर एक कठिनाई आती है - ये सारे मील के पत्थर हैं और आगे चलते जायेंगे, चलते जायेंगे, तब देखेंगे कितने आवरण पड़े हुए हैं सच्चाई पर, कितनी भ्रांतियां पड़ी हुयी हैं सच्चाई पर! सारा शरीर खुल जायगा । 
टुकड़े, टुकड़े, टुकड़े होकर के केवल तरंगें ही तरंगें, तरंगें ही तरंगें, कहीं ठोसपने का नामोनिशान नहीं। 

तो करते-करते हृदय क्षेत्र के पास देखेगा, यहां तो कोई एक ठोसपना है। कितनी सी दूर में है? 

तो देखेगा, अंगुष्ठप्रमाण । एक अंगूठे की जितनी जगह ज़रा ठोसपना है। उस पर भी ध्यान किये जा रहा है। देख रहा है कि टुकड़े हो रहे हैं। विभाजन हो रहा है, टुकड़े हो रहे हैं। होते-होते देखता है कि तिल के समान रह गया। 
उसको भी देखे जा रहा है, देखे जा रहा है। अरे बाल के जैसा रह गया और देखते-देखते वह भी खत्म हो गया।

छिन्दन्ति हृदयग्रन्थि, भिन्दन्ति सर्वसंशयः- सारे संशय दूर हो गये क्योंकि 
अब तो 'ठाकुर मिल गया तिल ओले, मन मगन हुआ, अब क्या बोले!' बोलना बंद कर देगा। उस तिल के पीछे ठाकुर मिल गया, उस तिल के पीछे वह अवस्था प्राप्त हो गयी जो नित्य है, जो शाश्वत है, जो ध्रुव है। 
वहां तक पहुँचना होगा न? कोरी चर्चा से तो बात नहीं होती, विवाद से बात होती नहीं

वहां पहुँचा तो एक भ्रांति और खड़ी होगी कि यह द्रष्टा है। 
तो समझाते हैं, सिखाने वाले सिखाते हैं, 'दिट्ठे दिट्ठमत्तं भविस्सति।' 
देखने में केवल देखना हो, और कुछ नहीं। देखने में केवल देखना हो, सुनने में केवल सुनना हो, सूंघने में केवल सूंघना हो, चखने में केवल चखना हो, छूने में केवल छूना हो, चिंतन में केवल चिंतन हो, और कुछ नहीं। उसके आगे का प्रपंच चलने ना पाये। कान में कुछ खटपट हुई बस इतना ही। उसके आगे अच्छा हुआ, बुरा हुआ, उसे चाहिए, नहीं चाहिए, यह सारा प्रपंच समाप्त।

केवल कुछ हुआ, कुछ हुआ। 
देखने में देखना, देखने में देखना। फिर एक कठिनाई खड़ी हो गयी, यही द्रष्टा है, यह देखने का काम है। यह द्रष्टा है, अब फिर संप्रज्ञान की ज़रूरत पड़ी...। 
फिर उसके टुकड़े कर करके, टुकड़े कर करके देखेगा, केवल देखना ही है भाई! द्रष्टा वष्टा कोई नहीं है। भ्रांति है यह भी। केवल देखना है, और कुछ नहीं है। केवल दर्शन है और उसकी वजह से जो ज्ञान जागता है, केवल ज्ञान है। 

द्रष्टा भी समाप्त हो गया, ज्ञेय भी समाप्त हो गया, केवल ज्ञान । संप्रज्ञान यह काम करवाता है। 

केवल दर्शन, केवल ज्ञान । केवल दर्शन, केवल ज्ञान। उन अवस्थाओं में से गुज़रते गुज़रते ही पार चला जाता है। तो 'असंप्रज्ञात', अब संप्रज्ञान की ज़रूरत नहीं है। 
अब तो परम सत्य प्राप्त हो गया, कि जहां पर यह विभाजन ही नहीं हो सकता कि अमुक अमुक है, अमुक अमुक है तो अनंत है वह। उसके टुकड़े हो ही नहीं सकते, वह अनंत है। 

वहां तो कुछ उत्पाद भी नहीं होता, वहां कुछ व्यय भी नहीं होता। जहां उत्पाद होता है, व्यय होता है वहां विभाजन करके देखते हैं, क्या क्या है? भ्रांति को दूर करने का प्रयत्न करते हैं। वहां तो भ्रांति रहती ही नहीं। काहे की भ्रांति? वह तो असंप्रज्ञात समाधि, विपश्यना करते-करते वही प्राप्त होती है। 

इन बावले तांत्रिकों के हाथ में पड़ी, इन बावले वाद-विवाद करने वालों के हाथ में पड़ी, इन बावले संप्रदायवादियों के हाथ में पड़ी तो लुटिया डूब गयी देश की। केवल बातें ही बातें, केवल चर्चा ही चर्चा, केवल झगड़े ही झगड़े, केवल वाद-विवाद ही वाद-विवाद । इसमें से गुज़रता है तो सारी बात समझ में आती है। 

अरे जानो अपने आपको भाई! और अनुभूति से जानो, कोरी बातों से मत जानो। अनुभूति होगी तभी पूरा ज्ञान प्राप्त होगा, अपना ज्ञान प्राप्त होगा, सम्यक ज्ञान प्राप्त होगा, मुक्ति की ओर जाते चले जायेंगे। और केवल सुने-सुनाये ज्ञान पर बहस करते रह जायेंगे तो सारा जीवन खो देंगे। 

तो आज जो इस योग की सभा में एकत्र हुए हैं, उन्हें योग करना है। योग उससे जो नित्य है, जो शाश्वत है, जो ध्रुव है, उससे योग होगा। लेकिन होगा तब जब कि जो अनित्य है, जो अनात्म है, जो दुःख है, जो अशुचि है, उससे वियोग हो जायगा। 
उससे छूटे बिना हम चाहें कि नित्य, शाश्वत, ध्रुव के साथ हमारा योग हो जाय तो होने वाली बात नहीं है भाई! 

और विपश्यना यही कराती है। टुकड़े कर करके दिखाती है कि देख अनित्य है ना? 
जो अनित्य है वह अनित्य ही है ना? 
देख, इतना सुखद लगता है तो भी दुःख ही है ना? देख, कितना मैं लगता है, मेरा लगता है? 
सूक्ष्म अस्मिता रह जाती है, मैं हूं। मैं तो देख रहा हूं, मैं अनुभव कर रहा हूं, मेरी मुक्ति होती ही जा रही हैं। 
'मैं' हूं, 'मैं' हूं, टूटता है। सारा 'मैं' टूटेगा तब वह अवस्था प्राप्त होगी, अन्यथा नहीं प्राप्त होगी। 

ऐसे अनुभव की बात, उसे अपने अनुभव द्वारा जानो। 
तो आज की योग की सभा, केवल बुद्धिविलास की सभा होकर न रह जाय, केवल वाणीविलास की सभा होकर न रह जाय, केवल वाद-विवाद की सभा होकर न रह जाय, केवल तर्क-वितर्क की सभा होकर न रह जाय। जो-जो आये हैं सबमें धर्म का बीज है, इसलिए आये हैं, अन्यथा आते भी नहीं। 

श्रुत ज्ञान के लिए आये हैं, धर्म का बीज है। अब जो कुछ सुना है उस पर चिंतन करें, और केवल सुन कर और चिंतन करके ही न रह जायँ, मन में ऐसी प्रेरणा जागे कि करके देखेंगे, अनुभव करके देखेंगे। सत्य को अनुभूति पर उतार कर देखेंगे। तो आना सफल हुआ, आना लाभदायक हुआ। 

भारत की यह अनमोल विद्या, सारे भारतवासियों को मुबारक हो। अपने-अपने दुःखों के बाहर आयें। अरे विश्व के सारे दुखियारे अपने अपने दुःखों के बाहर आयें। 
भारत की यह पुरातन अध्यात्म-विद्या सबके लिए मंगलकारी सिद्ध हो, सबके लिए कल्याणकारी सिद्ध हो। सबका मंगल हो, सबकी स्वस्ति हो, सबका कल्याण हो।

पुस्तक: पातञ्जल योग: एक सार्वजनिक प्रवचन।
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥

Monday, 22 August 2022

श्री सत्यदत्तव्रत पूजा

🙏🏻  नमो गुरवे वासुदेवाय 🙏🏻

*श्री सत्यदत्तव्रत पूजा*

हिंदी अनुवाद 

श्री दत्त भगवन के प्रातःस्मरणीय चतुर्थ अवतार परम्हांस परिव्राजकाचार्य श्री वासुदेवानंद सरस्वती स्वामी महाराज ने करुणामय अंतःकरण से कलि के प्रभाव से भ्रमित, दुःखी जनों का कल्याण करने "सत्यदत्तव्रत" प्रकट किया है। यह एक बहुत ही प्रभावशाली व्रत है। सारे दुःख और संकटों का नाश करनेवाला यह दिव्य अस्त्र है। यह व्रत करने से अब तक बहुत सारे लोग सुखी हो चुके है । 

श्री दत्तभक्तों के लिए व्रत तयार करने की श्री दत्तप्रभू की आज्ञा होने के कारण प. प. महाराज ने इस व्रत की रचना की। इस  व्रत की पूजा बाकी व्रतों की तरह ही है (जैसे की सत्य नारायण व्रत)। इस में से वैदिक मंत्र भी बाकी व्रतों की तरह ही है। पर पुराणोक्त मंत्र श्री स्वामी महाराज ने स्वयं  बनाये है। इसलिए पूजाविधी करनेवाले पुरोहित को बुला कर वेदोक्त और पुराणोक्त मंत्रों से शास्त्रोक्त पूजा करनी चाहिए। 

पुजा का साहित्य : हलदी, कुंकूम, गुलाल, अभिर, रंगोली, गेहू, चावल, पान के पत्ते, मिश्री शक़्कर, पांच फल, अगरबत्ती, कर्पूर, दिया, समई, चौरंग, यज्ञोपवीत, वस्त्र, फुल, तुलसी, पंचपल्लव (पीपल, गूलर, पाकड़ और बड़ या आम, जामुन, कैथ, बेल और बिजौरा के पत्ते), दुर्वा, दो कलश, दो पूजा की थालियाँ, पूजा का प्याला और चमच, इत्र, भगवन के स्नान के लिए गरम पानी, पुरोहित को देने के लिए दाक्षिणा

प्रसाद नैवेद्य : शक्कर, सूझी, घी, दूध (सव्वापट प्रमाण), इलायची, केसर, सूखे अंगूर, बादाम, इत्यादी से हलवे का प्रसाद  बनाये। पंचामृत-  दूध, दही, घी, शहद, शक्कर.

इस व्रत में तीन कथाए बताई है। पहली कथा एक अनामिक मुमुक्षु ब्राह्मण की है जिसे श्री दत्त प्रभु ने दर्शन देकर 'मुक्ती के लिए क्या करना चाहीये?' यह बताया है। दुसरी कथा आयु राजा की है, जिसे सत्यदतव्रत करने से पुत्र होता है और उस पर आये हुए संकट टल जाते है। तिसरी कथा में हरिशर्मा नामक अनेक रोगों से पीड़ित ब्राम्हण कुमार यह व्रत करने से ठीक हो जाता है। अंत में, शौनकादी ऋषीयों को भी यह व्रत करने से श्री दत्तप्रभु के दर्शन होने का वर्णन है। इस कथा में श्री स्वामी महाराज ने स्वधर्माचरण और ईश्वर की भक्ती करने के मुद्दों पर जोर दिया है। इसी बात पर यह व्रत बाकी व्रतों से हट के है।

कृति :  व्रत करनेवाले यजमान तील और आमले का चूर्ण शरीर को लगाकर स्नान करे और धोये हुए सफ़ेद वस्त्र या पूजा करने के लिए इस्तमाल होनेवाले पवित्र वस्त्र पहन कर पूजा के पावन स्थान पर आ जाये। पूजा का सारा सामान तैयार कर पुजा के स्थान पर रखे। पूजा की रचना जहाँ की गयी है उस चौरंग के आसपास रंगोली सजाए। हो सके तो उस चौरंग को  कर्दली के पेड़की टहनियाँ बांधे। उपर छत की तरफ आम की डाली लगाए। घी का दिया जलाये। पहले भगवान को और फिर वहां उपस्थित बड़ों को प्रणाम कर आसन ग्रहण करे। खुद के माथे पर  कुंकूम तिलक लगाए और फिर सत्यदत्त पूजा जीस संकल्प के लिए की जा रही है उसे याद करे। फिर एक पूजा की थाली में चावल लेकर उस पर सुपारी रख कर प्रथम श्री गणेशजी का षोडशोपचारों से पूजन करे। नित्यपूजा की तरह आसन विधी, शडगन्यास और फिर कलश, शंख, घंटी, दिया, इन सारी चीजों की  कुंकुम, फूल, अक्षता, इत्यादि लगा कर पूजा करे। फिर मंत्रों से पुजासाहित्य और शरीर की शुद्धी करे। उसके बाद निचे दिए हुए क्रम में पूजा करे:

१) महागणपती पूजन
२) वरुण स्थापनपूजन, वरुण पूजन
३) पुण्याह वाचन
४) दिक्पाल स्थापना
५) सत्यदत्तपूजा
६) मंत्रपुष्प व राजोपचार
७) प्रार्थना
८) दकाराद्यष्टोत्तरशत नामावली
९) सत्यदत्त पोथी कथा वाचन

यह पूजा अत्यंत प्रभावी है और यह व्रत करने से चारो पुरुषार्थ साध्य होते है।

।। भक्तवत्सल भक्ताभिमानी राजाधिराज श्रीसदगुरुराज वासुदेवानंद सरस्वती स्वामी महाराज की जय ।।

🙏🏻  अवधूत चिंतन श्री गुरूदेव दत्त 🙏🏻

अफजल खां का वध

20 नवम्बर, 1659 ई. - अफजल खां का वध :- बीजापुर की तरफ से अफजल खां को छत्रपति शिवाजी महाराज के खिलाफ भेजा गया। अफजल खां 10 हज़ार क...