Wednesday 24 August 2022

लोपामुद्रा

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लोपामुद्रा
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प्राचीनकाल में अगस्त्य नाम के महान् ऋषि हुए। वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने आर्य और दास वर्ण के लोगों को मिलाकर नयी संस्कृति की नींव खड़ी की। उन्होंने उत्तर और दक्षिण को जोड़ा। अलग-अलग जातियों में परस्पर मेल करवा कर अगस्त्य ने मनुष्यता की सच्ची सेवा की।

महर्षि अगस्त्य समाज में ऊँच-नीच का भेद नहीं मानते थे। वे अपने दल के साथ दुर्गम विन्ध्य पर्वत को पार कर तमिल प्रान्त में आये। एक दिन उषाकाल में वे समुद्रतट पर खड़े थे। वहाँ एक तरुणी को उन्होंने देखा। वह तरुणी समुद्र की उत्ताल तरंगों के साथ थिरक रही थी। एकांत में उसकी आंगिक और भावमुद्राएँ देखकर अगस्त्य चकित रह गये। तरुणी इस बात से अनजान थी कि कोई उसे नृत्य करते हुए देख रहा है।

अगस्त्य ने अनुभव किया कि यह तरुणी असाधारण है, और नृत्य के माध्यम से भगवान् को निवेदित हो रही है। अगस्त्य बड़ी देर तक देखते रहे, फिर धीरे से बोले-"कुमारिके!" कानों में ये शब्द पड़ते ही तरुणी ठिठक गई। अगस्त्य को देखते ही उसकी सब मुद्राएँ लुप्त हो गईं। अगस्त्य ने उसके अन्तर्मन को समझ लिया। उन्होंने तरुणी को सम्बोधित किया -"लोपामुद्रा !"
          
लोपामुद्रा समुद्र को साध रही थी। समुद्र की विशालता और उसकी धीर गम्भीरता को वह जी लेना चाहती थी। महर्षि अगस्त्य में उसे मूर्तिमान समुद्र ही दिखाई दिया।
          
लोपामुद्रा अत्यंत निम्न जाति की कन्या थी, किंतु उसमें महान् सत्य को प्राप्त करने की प्रबल इच्छा थी। महर्षिअगस्त्य ने आगे होकर प्रणय निवेदन किया। लोपामुद्रा को ब्रह्मविद्या प्राप्त करने का अनुकूल अवसर दिखाई दिया। वह विनीत भाव से अर्घ्य लेकर ऋषि के चरणों में समर्पित हो गई।

अगस्त्य के आश्रम में लोपामुद्रा का स्थान सबसे ऊँचा था। साधना और समर्पण के बल पर ही लोपामुद्रा ने वैदिक ऋषियों में अपना स्थान बनाया। ऋग्वेद के प्रथम मंडल के १७९ वें सूक्त की आर्ष गायिका लोपामुद्रा है। इस सूक्त में अगस्त्य के साथ लोपामुद्रा का संवाद बहुत लोकप्रिय और चर्चित है। इस सूक्त से लोपामुद्रा की एक ऋचा-

नदस्य मा रुधतः काम आग-
न्नित आ जातो अमुतः कुतश्चित्।
लोपामुद्रा वृषणं नीरिणाति 
धीरमधीरा धयति श्वसन्तम् ।।

💥मुरलीधर

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