Wednesday 10 August 2022

ईशावास्योपनिषद् :जिसने हमें जीने की राह दिखाई

🔥

ईशावास्योपनिषद् :
जिसने हमें जीने की राह दिखाई
~~~~~~~~~~~~~~~~~~
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधःकस्य स्विद्धनम्।।१।।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।२।।
             ~~~~~~~~

बहुत ही कम लोग जानते हैं कि यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय दधीचि ऋषि की वह आध्यात्मिक सम्पदा है, जो उन्होंने अपनी पार्थिवता और अपने कर्मसमुच्चय के साथ ही भगवान् को समर्पित कर दी थी। सम्पूर्ण यजुर्वेद में चालीस अध्याय हैं। ३९ अध्याय कर्मकाण्ड के हैं, केवल चालीसवाँ अध्याय ही ज्ञानकाण्ड से सम्बद्ध है,और इस पूरे अध्याय के ऋषि दधीचि हैं।

कालान्तर में यजुर्वेद का यही चालीसवाँ अध्याय ज्यों का त्यों "ईशावास्योपनिषद्" के रूप में स्वीकार किया गया, किन्तु वहाँ कहीं भी दधीचि का नामोल्लेख नहीं।

ईशावास्योपनिषद् में से होकर गुजरना, मतलब दधीचि ऋषि की उंगली पकड़कर चलना।

यह सबसे छोटा उपनिषद् है, मात्र१८ मंत्रों का संग्रह। इससे छोटी ऐसी कोई रचना संसार में नहीं है, जो जीवन को भगवान् से जोड़ने की अपूर्व क्षमता रखते हुए वह सारा रहस्य बता देती हो, जिससे समस्त वेद, उपनिषद्, गीता और भारतीयता का सम्पूर्ण वागर्थ ओतप्रोत है।

यह उपनिषद् हमारी आदर्श जीवनशैली का खाका प्रस्तुत करते हुए पहली बार हमें जीने की राह दिखाता है।

इस संसार में जो भी है, सब ईश्वर से भरा हुआ है। उसे अनदेखा करके भी उसीमें होने की नियति है हमारी। इसलिये जीवन का भरपूर उपभोग करो, किन्तु त्यागपूर्वक।जोड़ते जाओ, और छोड़ते भी जाओ। जो कुछ ग्रहण करते हो, वह भगवान् के प्रसाद के सिवा और कुछ भी नहीं। पराये धन की लालसा तुममें आलस भर देगी। कर्म करना ही होगा। कर्महीन जीवन भारस्वरूप है।

काम करते हुए भरपूर जीने की इच्छा करो। पूरे सौ साल जीना है परिश्रम करते हुए, न कि शैया पर पड़े हुए। काम करते जाओ, और उन्हें भगवान् को सौंपते चले जाओ, बस।

भगवान् को भूल जाओगे, तो वह भी तुम्हें भूल जायेगा। अज्ञान के अंधेरे में पड़े रहोगे, तो आत्महन्ता कहे जाओगे, और फिर मरकर भी अंधेरे में ही घिरे रहोगे।

ईश्वर अचल है,असीम है। वह तर्क की सीमा में नहीं आता। वह अपने भीतर सबको देखता है,और सबमें अपने को। वह हमारे अंदर-बाहर सर्वत्र है।

भगवान् ने हमें बुद्धि दी है। यह सबसे बड़ा शस्त्र है, जो उसने हमें दिया। यह शस्त्र मनुष्य के अभ्युदय के लिये हैं, किंतु यही शस्त्र मनुष्य का सर्वविनाश भी कर सकता है।

संसार में विद्या भी है,अविद्या भी। दोनों की पहचान करो। अविद्या को पहचान लेने से तुम मृत्यु को पार कर लोगे,और विद्या को पहचान कर अमृत तत्व को पा जाओगे।

दधीचि ऋषि हमें निरंतर अपने हृदय में झाँक कर देखते रहने का परामर्श देते हैं।हृदय में गुण-दोष का विवेचन करते रहने वाले का चित्त शुद्ध बना रहता है।

विश्व में सत्य छिपा हुआ है। वह कई तरह के आवरणों से ढँका हुआ है। माया-मोह सहित अनंत आवरण हैं,जिनके पीछे छिपा हुआ सत्य बाहर आना चाहता है। उसे मनुष्य की अखंड तपस्या ही बाहर ला सकती है।

हमें भयमुक्त हो जाना चाहिए, क्योंकि ईश्वर सबको प्रेरणा देता है,सबका पालन-पोषण करता है,और सबका नियमन करता है। दधीचि ऋषि हममें यह भरोसा जगाते हैं कि ईश्वर जिस प्रकार पूर्ण है, सुंदर और ऐश्वर्यशाली है, उसी प्रकार हम भी पूर्ण हैं,सुंदर हैं और ऐश्वर्यशाली हैं। जो ईश्वर है, वही मैं हूँ। सोऽहम्।

हमारी प्रार्थना होनी चाहिए कि हमारे प्राण अमृत-तत्व में विलीन हों, हमारे स्थूल तत्व दिव्य अग्नि को समर्पित हों, जिससे भगवान् हमें स्मरण रखे,हमारे कर्मों को स्मरण रखे। अंततः हम और हमारे कर्म भगवान् को ही समर्पित हों।

अंत में ऋषि हमें एक प्रार्थना देते हैं- हे भगवान्! तू हमें अपनी चेतना में रहने दे। हमें सरल मार्ग पर ले चल। हमें वक्रमार्ग पर जाने से रोक ले। हमारी पापवृत्ति को दूर कर दे। हमारे जीवन में शान्ति को जगह दे।

🍁मुरलीधर

No comments:

Post a Comment

अफजल खां का वध

20 नवम्बर, 1659 ई. - अफजल खां का वध :- बीजापुर की तरफ से अफजल खां को छत्रपति शिवाजी महाराज के खिलाफ भेजा गया। अफजल खां 10 हज़ार क...