🌷 संप्रज्ञात - असंप्रज्ञात समाधि 🌷
(मार्च-1988, जयपुर में आयोजित योग सम्मेलन में विपश्यनाचार्य श्री सत्य नारायण गोयनकाजी के एक सार्वजनिक प्रवचन से कुछ अंश....)
✍️.....अरे जानो अपने आपको भाई! और अनुभूति से जानो, कोरी बातों से मत जानो।
अनुभूति होगी तभी पूरा ज्ञान प्राप्त होगा, अपना ज्ञान प्राप्त होगा, सम्यक ज्ञान प्राप्त होगा, मुक्ति की ओर जाते चले जायेंगे। और केवल सुने-सुनाये ज्ञान पर बहस करते रह जायेंगे तो सारा जीवन खो देंगे....
एक श्लोक है -
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि, भुञ्जानं वा गुणान्वितं ।
विमूढा नानुपश्यन्ति, पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।।
विमूढ़ व्यक्ति विपश्यना नहीं कर सकता। जो विपश्यना करता है उसी के ज्ञानचक्षु खुलते हैं। ज्ञानचक्षु खुलते हैं तो विपश्यना करता है, विपश्यना करता है तो ज्ञानचक्षु खुलते हैं।
क्या ज्ञानचक्षु खुलते हैं?
‘उत्क्रामन्तं'- देख यह मानस का एक हिस्सा सिर उठाता है, उत्क्रमण करता है।
कान पर, नाक पर, जीभ पर, त्वचा पर, कहीं कोई विषय टकराया कि वह कहता है, कुछ हुआ।
इतने में मानस का दूसरा हिस्सा ‘स्थितं' स्थित होकर के देखता है, क्या हुआ, क्या खटपट हुई भाई? तो वह पहचानता है। पहचान करके मूल्यांकन करता है और मूल्यांकन करते ही संवेदना होती है।
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि,
हुई संवेदना ।
सुखद हुई तो!
उसका सुख भोगने लगा। दुःखद हुई , उसका दुःख भोगने लगा।
अरे भुञ्जानं, भुञ्जानं ।
और जहां दुःख भोगने लगा, कि सुख भोगने लगा वहां गुणान्वितं, गुणान्वितं, लगा बँधने, लगा बँधने ।
अरे, सारी बात समझ में आ गयी ना? पाठ करने से तो नहीं समझ में आयी, विवाद करने से नहीं समझ में आयी। इस विद्या में से गुज़रने से बात समझ में आयी।
महापुरुष यही सिखाते हैं कि जहां बँधते हों वहां बंधन खोलो, बँधने मत दो।
तो संप्रज्ञान यही है। संप्रज्ञान की कितनी विशद व्खाख्या की गयी! अनुभूति द्वारा करके देखो।
देखो, जो अनित्य है वह अनित्य है ना? टुकड़े कर करके देखो, टुकड़े कर करके देखो तो सम्यक रूप से जो प्रज्ञा जागती है वह संप्रज्ञान। तो सम्यक रूप से प्रज्ञा जागी।
एक-एक बात, एक-एक बात टुकड़े कर करके, टुकड़े कर करके देखने लगे तो बात समझ में आयी।
जो द्रष्टा है (देखनेवाला हिस्सा ) यह तो इतना कमज़ोर हो गया और वह चौथा हिस्सा जो भोक्ता है वह इतना बलवान हो गया! जब देखो तब भोगने का काम करता है और बांधता है ।
भोगने का काम करता है और बांधता है।
यह जो द्रष्टा है यह तो बड़ा निर्जीव जैसा हो गया। इसका ज़रा-सा भी बल नहीं।
अब विपश्यना द्वारा सारी सच्चाई को देखते-देखते द्रष्टा बलवान होता है, भोक्ता कमज़ोर होता है। कर्ता भी कमज़ोर होता है, द्रष्टा बलवान होता है, द्रष्टा बलवान होता है क्योंकि टुकड़े कर करके देख लिया।
फिर आगे जाकर एक कठिनाई आती है - ये सारे मील के पत्थर हैं और आगे चलते जायेंगे, चलते जायेंगे, तब देखेंगे कितने आवरण पड़े हुए हैं सच्चाई पर, कितनी भ्रांतियां पड़ी हुयी हैं सच्चाई पर! सारा शरीर खुल जायगा ।
टुकड़े, टुकड़े, टुकड़े होकर के केवल तरंगें ही तरंगें, तरंगें ही तरंगें, कहीं ठोसपने का नामोनिशान नहीं।
तो करते-करते हृदय क्षेत्र के पास देखेगा, यहां तो कोई एक ठोसपना है। कितनी सी दूर में है?
तो देखेगा, अंगुष्ठप्रमाण । एक अंगूठे की जितनी जगह ज़रा ठोसपना है। उस पर भी ध्यान किये जा रहा है। देख रहा है कि टुकड़े हो रहे हैं। विभाजन हो रहा है, टुकड़े हो रहे हैं। होते-होते देखता है कि तिल के समान रह गया।
उसको भी देखे जा रहा है, देखे जा रहा है। अरे बाल के जैसा रह गया और देखते-देखते वह भी खत्म हो गया।
छिन्दन्ति हृदयग्रन्थि, भिन्दन्ति सर्वसंशयः- सारे संशय दूर हो गये क्योंकि
अब तो 'ठाकुर मिल गया तिल ओले, मन मगन हुआ, अब क्या बोले!' बोलना बंद कर देगा। उस तिल के पीछे ठाकुर मिल गया, उस तिल के पीछे वह अवस्था प्राप्त हो गयी जो नित्य है, जो शाश्वत है, जो ध्रुव है।
वहां तक पहुँचना होगा न? कोरी चर्चा से तो बात नहीं होती, विवाद से बात होती नहीं
वहां पहुँचा तो एक भ्रांति और खड़ी होगी कि यह द्रष्टा है।
तो समझाते हैं, सिखाने वाले सिखाते हैं, 'दिट्ठे दिट्ठमत्तं भविस्सति।'
देखने में केवल देखना हो, और कुछ नहीं। देखने में केवल देखना हो, सुनने में केवल सुनना हो, सूंघने में केवल सूंघना हो, चखने में केवल चखना हो, छूने में केवल छूना हो, चिंतन में केवल चिंतन हो, और कुछ नहीं। उसके आगे का प्रपंच चलने ना पाये। कान में कुछ खटपट हुई बस इतना ही। उसके आगे अच्छा हुआ, बुरा हुआ, उसे चाहिए, नहीं चाहिए, यह सारा प्रपंच समाप्त।
केवल कुछ हुआ, कुछ हुआ।
देखने में देखना, देखने में देखना। फिर एक कठिनाई खड़ी हो गयी, यही द्रष्टा है, यह देखने का काम है। यह द्रष्टा है, अब फिर संप्रज्ञान की ज़रूरत पड़ी...।
फिर उसके टुकड़े कर करके, टुकड़े कर करके देखेगा, केवल देखना ही है भाई! द्रष्टा वष्टा कोई नहीं है। भ्रांति है यह भी। केवल देखना है, और कुछ नहीं है। केवल दर्शन है और उसकी वजह से जो ज्ञान जागता है, केवल ज्ञान है।
द्रष्टा भी समाप्त हो गया, ज्ञेय भी समाप्त हो गया, केवल ज्ञान । संप्रज्ञान यह काम करवाता है।
केवल दर्शन, केवल ज्ञान । केवल दर्शन, केवल ज्ञान। उन अवस्थाओं में से गुज़रते गुज़रते ही पार चला जाता है। तो 'असंप्रज्ञात', अब संप्रज्ञान की ज़रूरत नहीं है।
अब तो परम सत्य प्राप्त हो गया, कि जहां पर यह विभाजन ही नहीं हो सकता कि अमुक अमुक है, अमुक अमुक है तो अनंत है वह। उसके टुकड़े हो ही नहीं सकते, वह अनंत है।
वहां तो कुछ उत्पाद भी नहीं होता, वहां कुछ व्यय भी नहीं होता। जहां उत्पाद होता है, व्यय होता है वहां विभाजन करके देखते हैं, क्या क्या है? भ्रांति को दूर करने का प्रयत्न करते हैं। वहां तो भ्रांति रहती ही नहीं। काहे की भ्रांति? वह तो असंप्रज्ञात समाधि, विपश्यना करते-करते वही प्राप्त होती है।
इन बावले तांत्रिकों के हाथ में पड़ी, इन बावले वाद-विवाद करने वालों के हाथ में पड़ी, इन बावले संप्रदायवादियों के हाथ में पड़ी तो लुटिया डूब गयी देश की। केवल बातें ही बातें, केवल चर्चा ही चर्चा, केवल झगड़े ही झगड़े, केवल वाद-विवाद ही वाद-विवाद । इसमें से गुज़रता है तो सारी बात समझ में आती है।
अरे जानो अपने आपको भाई! और अनुभूति से जानो, कोरी बातों से मत जानो। अनुभूति होगी तभी पूरा ज्ञान प्राप्त होगा, अपना ज्ञान प्राप्त होगा, सम्यक ज्ञान प्राप्त होगा, मुक्ति की ओर जाते चले जायेंगे। और केवल सुने-सुनाये ज्ञान पर बहस करते रह जायेंगे तो सारा जीवन खो देंगे।
तो आज जो इस योग की सभा में एकत्र हुए हैं, उन्हें योग करना है। योग उससे जो नित्य है, जो शाश्वत है, जो ध्रुव है, उससे योग होगा। लेकिन होगा तब जब कि जो अनित्य है, जो अनात्म है, जो दुःख है, जो अशुचि है, उससे वियोग हो जायगा।
उससे छूटे बिना हम चाहें कि नित्य, शाश्वत, ध्रुव के साथ हमारा योग हो जाय तो होने वाली बात नहीं है भाई!
और विपश्यना यही कराती है। टुकड़े कर करके दिखाती है कि देख अनित्य है ना?
जो अनित्य है वह अनित्य ही है ना?
देख, इतना सुखद लगता है तो भी दुःख ही है ना? देख, कितना मैं लगता है, मेरा लगता है?
सूक्ष्म अस्मिता रह जाती है, मैं हूं। मैं तो देख रहा हूं, मैं अनुभव कर रहा हूं, मेरी मुक्ति होती ही जा रही हैं।
'मैं' हूं, 'मैं' हूं, टूटता है। सारा 'मैं' टूटेगा तब वह अवस्था प्राप्त होगी, अन्यथा नहीं प्राप्त होगी।
ऐसे अनुभव की बात, उसे अपने अनुभव द्वारा जानो।
तो आज की योग की सभा, केवल बुद्धिविलास की सभा होकर न रह जाय, केवल वाणीविलास की सभा होकर न रह जाय, केवल वाद-विवाद की सभा होकर न रह जाय, केवल तर्क-वितर्क की सभा होकर न रह जाय। जो-जो आये हैं सबमें धर्म का बीज है, इसलिए आये हैं, अन्यथा आते भी नहीं।
श्रुत ज्ञान के लिए आये हैं, धर्म का बीज है। अब जो कुछ सुना है उस पर चिंतन करें, और केवल सुन कर और चिंतन करके ही न रह जायँ, मन में ऐसी प्रेरणा जागे कि करके देखेंगे, अनुभव करके देखेंगे। सत्य को अनुभूति पर उतार कर देखेंगे। तो आना सफल हुआ, आना लाभदायक हुआ।
भारत की यह अनमोल विद्या, सारे भारतवासियों को मुबारक हो। अपने-अपने दुःखों के बाहर आयें। अरे विश्व के सारे दुखियारे अपने अपने दुःखों के बाहर आयें।
भारत की यह पुरातन अध्यात्म-विद्या सबके लिए मंगलकारी सिद्ध हो, सबके लिए कल्याणकारी सिद्ध हो। सबका मंगल हो, सबकी स्वस्ति हो, सबका कल्याण हो।
पुस्तक: पातञ्जल योग: एक सार्वजनिक प्रवचन।
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥