Monday, 29 August 2022

सभी लोग धर्म (धम्म) को ठीक से क्यों नहीं समझ पाते ?

एक बार स्थविर आनंद ने भगवान से पूछा कि, "भगवान, सभी लोग धर्म (धम्म) को ठीक से क्यों नहीं समझ पाते ?"

तब भगवान ने कहा, "आनन्द, असंख्य कल्पों तक दुर्गति में रहने के बाद जिन्हें मनुष्य जीवन मिला हो, ऐसे लोग उन्हें योग्य कल्याणमित्र मिलने पर भी अनेक जन्मों के उस स्वभाव के कारण धर्म सुनना नहीं चाहते, और अगर धर्म सुनें तो भी समझ नहीं पाते ।"

और जो पिछले जन्मों में मनुष्य होते हुए भी मद्यपान, मनोरंजन करते हुए विषयों के आधीन ही जीवन जीते रहें, वे लोग भी, योग्य कल्याणमित्र मिलने पर भी धर्म सुनना नहीं चाहते, और अगर धर्म सुनें तो भी समझ नहीं पाते ।"

और जो पिछले जन्मों में मनुष्य होते हुए भी *जीनका पुण्य का संग्रह बहुत कम है, जो पूर्व जन्मों में मिथ्या दृष्टि में उलझे रहे, वे लोग भी, योग्य कल्याणमित्र मिलने पर भी धर्म सुनना नहीं चाहते, और अगर धर्म सुनें तो भी समझ नहीं पाते ।"*

पूर्व पुण्य का संग्रह जितना ज्यादा हो, वह व्यक्ति उतना ही ज्यादा धर्म की ओर आकर्षित होता हैं, और योग्य कल्याणमित्र मिलने पर धर्म समझकर प्रगति भी करता हैं और अपना मनुष्य जीवन सार्थक कर लेता हैं और अनेकों के कल्याण का कारण भी बनता हैं ।

*इसलिए लोगों को चाहिए कि, वे अपना पुण्य संग्रह निरंतर बढ़ाते रहें, योग्य कल्याणमित्रों की संगति करें और मिथ्यादृष्टी में पड़े हुए अज्ञानी, नासमझ, मूर्ख लोगों से दूर रहें ।*

Saturday, 27 August 2022

मृत्युभोज

मृत्युभोज_के_विरोध पर बहुत लिखा जा रहा है आजकल.. 
पर मेरा मत जरा अलग है..
मृत्युभोज कुरीति नहीं है.  समाज और रिश्तों को सँगठित करने के अवसर की पवित्र परम्परा है,
हमारे पूर्वज हमसे ज्यादा ज्ञानी थे ! आज मृत्युभोज का विरोध है, कल विवाह भोज का भी विरोध होगा.. हर उस सनातन  परंपरा का विरोध होगा जिससे रिश्ते और समाज मजबूत होता है.. इसका विरोध करने वाले ज्ञानियों हमारे बाप दादाओ ने रिश्तों को जिंदा रखने के लिए ये परम्पराएं बनाई हैं!..., ये सब बंद हो गए तो रिश्तेदारों, सगे समबंधियों, शुभचिंतकों को एक जगह एकत्रित कर मेल जोल का दूसरा माध्यम क्या है,.. दुख की घड़ी मे भी रिश्तों को कैसे प्रगाढ़ किया जाय ये हमारे पूर्वज अच्छे से जानते थे.. 
हमारे बाप दादा बहुत समझदार थे,  वो ऐसे आयोजन रिश्तों को सहेजने और जिंदा रखने के किए करते थे.
हाँ  ये सही है की  कुछ लोगों ने मृत्युभोज को  हेकड़ी और शान शौकत दिखाने का   माध्यम बना लिया, आप पूड़ी सब्जी ही खिलाओ. 
     कौन कहता है की 56 भोग परोसो.. 
    कौन कहता है कि 4000-5000 लोगों को ही भोजन कराओ और दम्भ दिखाओ, परम्परा तो केवल 16 ब्राह्मणों की थी.
मैं खुद दिखावे की विरोधी हूँ लेकिन अपनी उन परंपराओं की कट्टर समर्थक भी  हूँ, जिनसे आपसी प्रेम, मेलजोल और भाईचारा बढ़ता हो.
कुछ कुतर्कों की वजह से हमारे बाप दादाओं ने जो रिश्ते सहजने की परंपरा दी उसे मत छोड़ो, यही वो परम्पराएँ हैं जो दूर दूर के रिश्ते नाते को एक जगह लाकर फिर से समय समय पर जान डालते हैं .
सुधारना हो तो लोगों को सुधारो जो आयोजन  रिश्तों की बजाय हेकड़ी दिखाने के लिए करते हैं,
किसी परंपरा की कुछ विधियां यदि समय सम्मत नही है तो उसका सुधार किया जाये ना की उस परंपरा को ही बंद कर दिया जाये.
 हमारे बाप दादा जो परम्पराएं देकर गए हैं रिश्ते सहेजने के लिए उसको बन्द करने का ज्ञान मत बाँटिये मित्रों, वरना तरस जाओगे मेल जोल को,,,,, बंद बिल्कुल मत करो, समय समय पर शुभचिंतकों ओर रिश्तेदारों को एक जगह एकत्रित होने की परम्परा जारी रखो.
ये संजीवनी है रिश्ते नातों को जिन्दा करने की...
लता ठाकुर बुलंदशहर उत्तर प्रदेश 🙏🙏

घर और अन्य सुख सुविधा

*एक बार कैलाश पर्वत पर भगवान शिव और माँ पार्वती बैठे हुए थे। शिव जी ध्यान लगा कर बैठे थे। तभी पार्वती जी ने देखा कि वे मन्द-मन्द मुस्कुरा रहे हैं। पार्वती जी के मन में प्रश्न उठा कि आज महादेव ध्यान मुद्रा में भी क्यों मुस्कुरा रहे हैं।*

*उन्होंने भोले बाबा की समाधी समाप्त होने पर उनसे पूछा – स्वामी मैंने आपको पहली बार समाधी में मुस्कुराते हुए देखा है इसका क्या कारण है।*

*शिव जी ने उन्हें बताया कि उनके एक भक्त और उसकी पत्नी की बातें सुन कर वे मुस्कुरा रहे थे। पूरी बात बताते हुए महादेव ने बताया कि मृत्युलोक में मेरा एक अनन्य भक्त एक ब्राह्मण है जो कि मेरे ही एक मन्दिर में पुजारी है और दिन रात मेरी सेवा में लगा रहता है।*

*वह इसी मन्दिर के पीछे छोटी सी कुटिया में अपनी पत्नी के साथ रहता है। इसकी पत्नी चाहती है कि उसके पास उसका खुद का घर हो और धन-दौलत हो जिससे वह सुख से अपना जीवन बिता सके परन्तु पुजारी केवल मन्दिर के चढ़ावे पर निर्भर है और मन्दिर में आने वाली दान दक्षिण से बड़ी मुश्किल से उसके घर का खर्च ही चल पाता है।*

*घर और अन्य सुख सुविधा कहां से आयेंगी पर वह दिन रात मेरे से अपनी पत्नी का सपना पूरा करने का अनुग्रह करता रहता है। आज उसकी पत्नी ने उससे ऐसी बात कही जिसे सुनकर मैं मुस्कुराए बगैर नहीं रह सका।*

*पार्वती जी ने पूछा ऐसा क्या कहा उसकी पत्नी ने जो आपका ध्यान भंग हो गया। शिवजी ने बताया उसकी पत्नी ने आज उसे ताना मारते हुए कहा कि जिन भोले शंकर की तुम दिन रात सेवा करते रहते हो और उनसे मेरे लिए घर मांगते रहते हो उनके पास तो खुद घर नहीं है वे तो खुद कैलास पर्वत पर रहते हैं। तुम्हें कहां से घर देंगे। बस यही बात सुनकर मैं मुस्कुरा रहा था।*

*इस पर पार्वती जी को बड़ा आश्चर्य हुआ उन्होंने कहा स्वामी यह बात सुन कर मुझे बहुत बुरा लगा वह आपको ताना मार रही है और आप मुस्कुरा रहे हैं। आप उसे एक घर और सुख सुविधाएं दे दीजिए जिससे वो आपकी निन्दा न कर सके।*

*इस पर शिव जी ने कहा पार्वती यह मेरे वश में नहीं है। ये सभी प्राणी तो मृत्युलोक में रहते हैं अपने पिछले जन्म के और साथ ही इस जन्म के कार्मो का फल भोग रहे हैं। और जैसे ही इनके कर्मो का फल इन्हें मिल जाता है। उन्हें सभी प्रकार के सुख मिलना शुरू हो जाते हैं। और अंत में वे मुक्ति पा जाते हैं।*

*इसी लिए इसे मृत्युलोक कहा गया है। मनुष्य बार बार जन्म लेकर अपने कर्मो का हिसाब चुकाता है। यह कर्म भूमि है बिना कर्म के गति नहीं है।*

*आगे शिव जी ने कहा यह ब्राह्मण पिछले जन्म में एक साहुकार था जो कि लोगों की जमीन, उनके जेवर पशु आदि गिरवी रख कर उन्हें पैसे देता था और उनकी जमीन हड़प लेता था। और जो दूसरों के जेवर और ब्याज में पैसा मिलता था। उसका उपयोग यह उसकी पत्नी भी किया करती थी।*

*इसी कारण आज इस जन्म में इसे घर नहीं मिल सकता और इसकी पत्नी जिसने उन वस्तुओं का उपयोग किया वह भी इसके साथ यह कर्मफल भोग रही है।*

*इस जन्म में यह मेरी सेवा कर रहा है। जिससे इसके कर्मो के फल में जो कष्ट मिलने थे वे मेरी भक्ति के कारण इसे नहीं मिल रहे हैं। इसका जीवन शांति से कट रहा है पर जब तक इसके कर्मो का हिसाब पूरा नहीं होता इसे घर और अन्य सुविधाएं नहीं मिल सकती। यही विधि का विधान है।*

*पार्वती जी ने कहा यह तो ठीक है। पर उसकी पत्नी जो आपकी निन्दा कर रही है उसका क्या।*

*तब शिव जी ने कहा संसार में जैसे जैसे कलयुग का समय निकट आता जायेगा। मनुष्य भगवान की भक्ति करने के स्थान पर उनकी निन्दा करने लगेगा यह सृष्टी के आरम्भ में ही लिखा जा चुका है। जो व्यक्ति इस कठिन समय में मेरी सेवा करता रहेगा उसको इस मृत्युलोक से मुक्ति मिल जायेगी।* 

*नमो पार्वती पत्तया हर हर महादेव 💕🍂🌷💕💕🌷🍂💕💕🍂🌷🌷💕🍂💕🌷💕🍂*

Wednesday, 24 August 2022

लोपामुद्रा

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लोपामुद्रा
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प्राचीनकाल में अगस्त्य नाम के महान् ऋषि हुए। वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने आर्य और दास वर्ण के लोगों को मिलाकर नयी संस्कृति की नींव खड़ी की। उन्होंने उत्तर और दक्षिण को जोड़ा। अलग-अलग जातियों में परस्पर मेल करवा कर अगस्त्य ने मनुष्यता की सच्ची सेवा की।

महर्षि अगस्त्य समाज में ऊँच-नीच का भेद नहीं मानते थे। वे अपने दल के साथ दुर्गम विन्ध्य पर्वत को पार कर तमिल प्रान्त में आये। एक दिन उषाकाल में वे समुद्रतट पर खड़े थे। वहाँ एक तरुणी को उन्होंने देखा। वह तरुणी समुद्र की उत्ताल तरंगों के साथ थिरक रही थी। एकांत में उसकी आंगिक और भावमुद्राएँ देखकर अगस्त्य चकित रह गये। तरुणी इस बात से अनजान थी कि कोई उसे नृत्य करते हुए देख रहा है।

अगस्त्य ने अनुभव किया कि यह तरुणी असाधारण है, और नृत्य के माध्यम से भगवान् को निवेदित हो रही है। अगस्त्य बड़ी देर तक देखते रहे, फिर धीरे से बोले-"कुमारिके!" कानों में ये शब्द पड़ते ही तरुणी ठिठक गई। अगस्त्य को देखते ही उसकी सब मुद्राएँ लुप्त हो गईं। अगस्त्य ने उसके अन्तर्मन को समझ लिया। उन्होंने तरुणी को सम्बोधित किया -"लोपामुद्रा !"
          
लोपामुद्रा समुद्र को साध रही थी। समुद्र की विशालता और उसकी धीर गम्भीरता को वह जी लेना चाहती थी। महर्षि अगस्त्य में उसे मूर्तिमान समुद्र ही दिखाई दिया।
          
लोपामुद्रा अत्यंत निम्न जाति की कन्या थी, किंतु उसमें महान् सत्य को प्राप्त करने की प्रबल इच्छा थी। महर्षिअगस्त्य ने आगे होकर प्रणय निवेदन किया। लोपामुद्रा को ब्रह्मविद्या प्राप्त करने का अनुकूल अवसर दिखाई दिया। वह विनीत भाव से अर्घ्य लेकर ऋषि के चरणों में समर्पित हो गई।

अगस्त्य के आश्रम में लोपामुद्रा का स्थान सबसे ऊँचा था। साधना और समर्पण के बल पर ही लोपामुद्रा ने वैदिक ऋषियों में अपना स्थान बनाया। ऋग्वेद के प्रथम मंडल के १७९ वें सूक्त की आर्ष गायिका लोपामुद्रा है। इस सूक्त में अगस्त्य के साथ लोपामुद्रा का संवाद बहुत लोकप्रिय और चर्चित है। इस सूक्त से लोपामुद्रा की एक ऋचा-

नदस्य मा रुधतः काम आग-
न्नित आ जातो अमुतः कुतश्चित्।
लोपामुद्रा वृषणं नीरिणाति 
धीरमधीरा धयति श्वसन्तम् ।।

💥मुरलीधर

Tuesday, 23 August 2022

संप्रज्ञात - असंप्रज्ञात समाधि

🌷 संप्रज्ञात - असंप्रज्ञात समाधि 🌷
(मार्च-1988, जयपुर में आयोजित योग सम्मेलन में विपश्यनाचार्य श्री सत्य नारायण गोयनकाजी के एक सार्वजनिक प्रवचन से कुछ अंश....)

✍️.....अरे जानो अपने आपको भाई! और अनुभूति से जानो, कोरी बातों से मत जानो। 
अनुभूति होगी तभी पूरा ज्ञान प्राप्त होगा, अपना ज्ञान प्राप्त होगा, सम्यक ज्ञान प्राप्त होगा, मुक्ति की ओर जाते चले जायेंगे। और केवल सुने-सुनाये ज्ञान पर बहस करते रह जायेंगे तो सारा जीवन खो देंगे....

एक श्लोक है -
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि, भुञ्जानं वा गुणान्वितं ।
विमूढा नानुपश्यन्ति, पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।।

विमूढ़ व्यक्ति विपश्यना नहीं कर सकता। जो विपश्यना करता है उसी के ज्ञानचक्षु खुलते हैं। ज्ञानचक्षु खुलते हैं तो विपश्यना करता है, विपश्यना करता है तो ज्ञानचक्षु खुलते हैं। 

क्या ज्ञानचक्षु खुलते हैं?

‘उत्क्रामन्तं'- देख यह मानस का एक हिस्सा सिर उठाता है, उत्क्रमण करता है। 
कान पर, नाक पर, जीभ पर, त्वचा पर, कहीं कोई विषय टकराया कि वह कहता है, कुछ हुआ। 

इतने में मानस का दूसरा हिस्सा ‘स्थितं' स्थित होकर के देखता है, क्या हुआ, क्या खटपट हुई भाई? तो वह पहचानता है। पहचान करके मूल्यांकन करता है और मूल्यांकन करते ही संवेदना होती है। 

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि, 
हुई संवेदना । 
सुखद हुई तो!
उसका सुख भोगने लगा। दुःखद हुई , उसका दुःख भोगने लगा। 
अरे भुञ्जानं, भुञ्जानं । 

और जहां दुःख भोगने लगा, कि सुख भोगने लगा वहां गुणान्वितं, गुणान्वितं, लगा बँधने, लगा बँधने । 

अरे, सारी बात समझ में आ गयी ना? पाठ करने से तो नहीं समझ में आयी, विवाद करने से नहीं समझ में आयी। इस विद्या में से गुज़रने से बात समझ में आयी।

महापुरुष यही सिखाते हैं कि जहां बँधते हों वहां बंधन खोलो, बँधने मत दो। 
तो संप्रज्ञान यही है। संप्रज्ञान की कितनी विशद व्खाख्या की गयी! अनुभूति द्वारा करके देखो। 
देखो, जो अनित्य है वह अनित्य है ना? टुकड़े कर करके देखो, टुकड़े कर करके देखो तो सम्यक रूप से जो प्रज्ञा जागती है वह संप्रज्ञान। तो सम्यक रूप से प्रज्ञा जागी। 

एक-एक बात, एक-एक बात टुकड़े कर करके, टुकड़े कर करके देखने लगे तो बात समझ में आयी। 

जो द्रष्टा है (देखनेवाला हिस्सा ) यह तो इतना कमज़ोर हो गया और वह चौथा हिस्सा जो भोक्ता है वह इतना बलवान हो गया! जब देखो तब भोगने का काम करता है और बांधता है ।
भोगने का काम करता है और बांधता है। 
यह जो द्रष्टा है यह तो बड़ा निर्जीव जैसा हो गया। इसका ज़रा-सा भी बल नहीं। 

अब विपश्यना द्वारा सारी सच्चाई को देखते-देखते द्रष्टा बलवान होता है, भोक्ता कमज़ोर होता है। कर्ता भी कमज़ोर होता है, द्रष्टा बलवान होता है, द्रष्टा बलवान होता है क्योंकि टुकड़े कर करके देख लिया। 
फिर आगे जाकर एक कठिनाई आती है - ये सारे मील के पत्थर हैं और आगे चलते जायेंगे, चलते जायेंगे, तब देखेंगे कितने आवरण पड़े हुए हैं सच्चाई पर, कितनी भ्रांतियां पड़ी हुयी हैं सच्चाई पर! सारा शरीर खुल जायगा । 
टुकड़े, टुकड़े, टुकड़े होकर के केवल तरंगें ही तरंगें, तरंगें ही तरंगें, कहीं ठोसपने का नामोनिशान नहीं। 

तो करते-करते हृदय क्षेत्र के पास देखेगा, यहां तो कोई एक ठोसपना है। कितनी सी दूर में है? 

तो देखेगा, अंगुष्ठप्रमाण । एक अंगूठे की जितनी जगह ज़रा ठोसपना है। उस पर भी ध्यान किये जा रहा है। देख रहा है कि टुकड़े हो रहे हैं। विभाजन हो रहा है, टुकड़े हो रहे हैं। होते-होते देखता है कि तिल के समान रह गया। 
उसको भी देखे जा रहा है, देखे जा रहा है। अरे बाल के जैसा रह गया और देखते-देखते वह भी खत्म हो गया।

छिन्दन्ति हृदयग्रन्थि, भिन्दन्ति सर्वसंशयः- सारे संशय दूर हो गये क्योंकि 
अब तो 'ठाकुर मिल गया तिल ओले, मन मगन हुआ, अब क्या बोले!' बोलना बंद कर देगा। उस तिल के पीछे ठाकुर मिल गया, उस तिल के पीछे वह अवस्था प्राप्त हो गयी जो नित्य है, जो शाश्वत है, जो ध्रुव है। 
वहां तक पहुँचना होगा न? कोरी चर्चा से तो बात नहीं होती, विवाद से बात होती नहीं

वहां पहुँचा तो एक भ्रांति और खड़ी होगी कि यह द्रष्टा है। 
तो समझाते हैं, सिखाने वाले सिखाते हैं, 'दिट्ठे दिट्ठमत्तं भविस्सति।' 
देखने में केवल देखना हो, और कुछ नहीं। देखने में केवल देखना हो, सुनने में केवल सुनना हो, सूंघने में केवल सूंघना हो, चखने में केवल चखना हो, छूने में केवल छूना हो, चिंतन में केवल चिंतन हो, और कुछ नहीं। उसके आगे का प्रपंच चलने ना पाये। कान में कुछ खटपट हुई बस इतना ही। उसके आगे अच्छा हुआ, बुरा हुआ, उसे चाहिए, नहीं चाहिए, यह सारा प्रपंच समाप्त।

केवल कुछ हुआ, कुछ हुआ। 
देखने में देखना, देखने में देखना। फिर एक कठिनाई खड़ी हो गयी, यही द्रष्टा है, यह देखने का काम है। यह द्रष्टा है, अब फिर संप्रज्ञान की ज़रूरत पड़ी...। 
फिर उसके टुकड़े कर करके, टुकड़े कर करके देखेगा, केवल देखना ही है भाई! द्रष्टा वष्टा कोई नहीं है। भ्रांति है यह भी। केवल देखना है, और कुछ नहीं है। केवल दर्शन है और उसकी वजह से जो ज्ञान जागता है, केवल ज्ञान है। 

द्रष्टा भी समाप्त हो गया, ज्ञेय भी समाप्त हो गया, केवल ज्ञान । संप्रज्ञान यह काम करवाता है। 

केवल दर्शन, केवल ज्ञान । केवल दर्शन, केवल ज्ञान। उन अवस्थाओं में से गुज़रते गुज़रते ही पार चला जाता है। तो 'असंप्रज्ञात', अब संप्रज्ञान की ज़रूरत नहीं है। 
अब तो परम सत्य प्राप्त हो गया, कि जहां पर यह विभाजन ही नहीं हो सकता कि अमुक अमुक है, अमुक अमुक है तो अनंत है वह। उसके टुकड़े हो ही नहीं सकते, वह अनंत है। 

वहां तो कुछ उत्पाद भी नहीं होता, वहां कुछ व्यय भी नहीं होता। जहां उत्पाद होता है, व्यय होता है वहां विभाजन करके देखते हैं, क्या क्या है? भ्रांति को दूर करने का प्रयत्न करते हैं। वहां तो भ्रांति रहती ही नहीं। काहे की भ्रांति? वह तो असंप्रज्ञात समाधि, विपश्यना करते-करते वही प्राप्त होती है। 

इन बावले तांत्रिकों के हाथ में पड़ी, इन बावले वाद-विवाद करने वालों के हाथ में पड़ी, इन बावले संप्रदायवादियों के हाथ में पड़ी तो लुटिया डूब गयी देश की। केवल बातें ही बातें, केवल चर्चा ही चर्चा, केवल झगड़े ही झगड़े, केवल वाद-विवाद ही वाद-विवाद । इसमें से गुज़रता है तो सारी बात समझ में आती है। 

अरे जानो अपने आपको भाई! और अनुभूति से जानो, कोरी बातों से मत जानो। अनुभूति होगी तभी पूरा ज्ञान प्राप्त होगा, अपना ज्ञान प्राप्त होगा, सम्यक ज्ञान प्राप्त होगा, मुक्ति की ओर जाते चले जायेंगे। और केवल सुने-सुनाये ज्ञान पर बहस करते रह जायेंगे तो सारा जीवन खो देंगे। 

तो आज जो इस योग की सभा में एकत्र हुए हैं, उन्हें योग करना है। योग उससे जो नित्य है, जो शाश्वत है, जो ध्रुव है, उससे योग होगा। लेकिन होगा तब जब कि जो अनित्य है, जो अनात्म है, जो दुःख है, जो अशुचि है, उससे वियोग हो जायगा। 
उससे छूटे बिना हम चाहें कि नित्य, शाश्वत, ध्रुव के साथ हमारा योग हो जाय तो होने वाली बात नहीं है भाई! 

और विपश्यना यही कराती है। टुकड़े कर करके दिखाती है कि देख अनित्य है ना? 
जो अनित्य है वह अनित्य ही है ना? 
देख, इतना सुखद लगता है तो भी दुःख ही है ना? देख, कितना मैं लगता है, मेरा लगता है? 
सूक्ष्म अस्मिता रह जाती है, मैं हूं। मैं तो देख रहा हूं, मैं अनुभव कर रहा हूं, मेरी मुक्ति होती ही जा रही हैं। 
'मैं' हूं, 'मैं' हूं, टूटता है। सारा 'मैं' टूटेगा तब वह अवस्था प्राप्त होगी, अन्यथा नहीं प्राप्त होगी। 

ऐसे अनुभव की बात, उसे अपने अनुभव द्वारा जानो। 
तो आज की योग की सभा, केवल बुद्धिविलास की सभा होकर न रह जाय, केवल वाणीविलास की सभा होकर न रह जाय, केवल वाद-विवाद की सभा होकर न रह जाय, केवल तर्क-वितर्क की सभा होकर न रह जाय। जो-जो आये हैं सबमें धर्म का बीज है, इसलिए आये हैं, अन्यथा आते भी नहीं। 

श्रुत ज्ञान के लिए आये हैं, धर्म का बीज है। अब जो कुछ सुना है उस पर चिंतन करें, और केवल सुन कर और चिंतन करके ही न रह जायँ, मन में ऐसी प्रेरणा जागे कि करके देखेंगे, अनुभव करके देखेंगे। सत्य को अनुभूति पर उतार कर देखेंगे। तो आना सफल हुआ, आना लाभदायक हुआ। 

भारत की यह अनमोल विद्या, सारे भारतवासियों को मुबारक हो। अपने-अपने दुःखों के बाहर आयें। अरे विश्व के सारे दुखियारे अपने अपने दुःखों के बाहर आयें। 
भारत की यह पुरातन अध्यात्म-विद्या सबके लिए मंगलकारी सिद्ध हो, सबके लिए कल्याणकारी सिद्ध हो। सबका मंगल हो, सबकी स्वस्ति हो, सबका कल्याण हो।

पुस्तक: पातञ्जल योग: एक सार्वजनिक प्रवचन।
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥

Monday, 22 August 2022

श्री सत्यदत्तव्रत पूजा

🙏🏻  नमो गुरवे वासुदेवाय 🙏🏻

*श्री सत्यदत्तव्रत पूजा*

हिंदी अनुवाद 

श्री दत्त भगवन के प्रातःस्मरणीय चतुर्थ अवतार परम्हांस परिव्राजकाचार्य श्री वासुदेवानंद सरस्वती स्वामी महाराज ने करुणामय अंतःकरण से कलि के प्रभाव से भ्रमित, दुःखी जनों का कल्याण करने "सत्यदत्तव्रत" प्रकट किया है। यह एक बहुत ही प्रभावशाली व्रत है। सारे दुःख और संकटों का नाश करनेवाला यह दिव्य अस्त्र है। यह व्रत करने से अब तक बहुत सारे लोग सुखी हो चुके है । 

श्री दत्तभक्तों के लिए व्रत तयार करने की श्री दत्तप्रभू की आज्ञा होने के कारण प. प. महाराज ने इस व्रत की रचना की। इस  व्रत की पूजा बाकी व्रतों की तरह ही है (जैसे की सत्य नारायण व्रत)। इस में से वैदिक मंत्र भी बाकी व्रतों की तरह ही है। पर पुराणोक्त मंत्र श्री स्वामी महाराज ने स्वयं  बनाये है। इसलिए पूजाविधी करनेवाले पुरोहित को बुला कर वेदोक्त और पुराणोक्त मंत्रों से शास्त्रोक्त पूजा करनी चाहिए। 

पुजा का साहित्य : हलदी, कुंकूम, गुलाल, अभिर, रंगोली, गेहू, चावल, पान के पत्ते, मिश्री शक़्कर, पांच फल, अगरबत्ती, कर्पूर, दिया, समई, चौरंग, यज्ञोपवीत, वस्त्र, फुल, तुलसी, पंचपल्लव (पीपल, गूलर, पाकड़ और बड़ या आम, जामुन, कैथ, बेल और बिजौरा के पत्ते), दुर्वा, दो कलश, दो पूजा की थालियाँ, पूजा का प्याला और चमच, इत्र, भगवन के स्नान के लिए गरम पानी, पुरोहित को देने के लिए दाक्षिणा

प्रसाद नैवेद्य : शक्कर, सूझी, घी, दूध (सव्वापट प्रमाण), इलायची, केसर, सूखे अंगूर, बादाम, इत्यादी से हलवे का प्रसाद  बनाये। पंचामृत-  दूध, दही, घी, शहद, शक्कर.

इस व्रत में तीन कथाए बताई है। पहली कथा एक अनामिक मुमुक्षु ब्राह्मण की है जिसे श्री दत्त प्रभु ने दर्शन देकर 'मुक्ती के लिए क्या करना चाहीये?' यह बताया है। दुसरी कथा आयु राजा की है, जिसे सत्यदतव्रत करने से पुत्र होता है और उस पर आये हुए संकट टल जाते है। तिसरी कथा में हरिशर्मा नामक अनेक रोगों से पीड़ित ब्राम्हण कुमार यह व्रत करने से ठीक हो जाता है। अंत में, शौनकादी ऋषीयों को भी यह व्रत करने से श्री दत्तप्रभु के दर्शन होने का वर्णन है। इस कथा में श्री स्वामी महाराज ने स्वधर्माचरण और ईश्वर की भक्ती करने के मुद्दों पर जोर दिया है। इसी बात पर यह व्रत बाकी व्रतों से हट के है।

कृति :  व्रत करनेवाले यजमान तील और आमले का चूर्ण शरीर को लगाकर स्नान करे और धोये हुए सफ़ेद वस्त्र या पूजा करने के लिए इस्तमाल होनेवाले पवित्र वस्त्र पहन कर पूजा के पावन स्थान पर आ जाये। पूजा का सारा सामान तैयार कर पुजा के स्थान पर रखे। पूजा की रचना जहाँ की गयी है उस चौरंग के आसपास रंगोली सजाए। हो सके तो उस चौरंग को  कर्दली के पेड़की टहनियाँ बांधे। उपर छत की तरफ आम की डाली लगाए। घी का दिया जलाये। पहले भगवान को और फिर वहां उपस्थित बड़ों को प्रणाम कर आसन ग्रहण करे। खुद के माथे पर  कुंकूम तिलक लगाए और फिर सत्यदत्त पूजा जीस संकल्प के लिए की जा रही है उसे याद करे। फिर एक पूजा की थाली में चावल लेकर उस पर सुपारी रख कर प्रथम श्री गणेशजी का षोडशोपचारों से पूजन करे। नित्यपूजा की तरह आसन विधी, शडगन्यास और फिर कलश, शंख, घंटी, दिया, इन सारी चीजों की  कुंकुम, फूल, अक्षता, इत्यादि लगा कर पूजा करे। फिर मंत्रों से पुजासाहित्य और शरीर की शुद्धी करे। उसके बाद निचे दिए हुए क्रम में पूजा करे:

१) महागणपती पूजन
२) वरुण स्थापनपूजन, वरुण पूजन
३) पुण्याह वाचन
४) दिक्पाल स्थापना
५) सत्यदत्तपूजा
६) मंत्रपुष्प व राजोपचार
७) प्रार्थना
८) दकाराद्यष्टोत्तरशत नामावली
९) सत्यदत्त पोथी कथा वाचन

यह पूजा अत्यंत प्रभावी है और यह व्रत करने से चारो पुरुषार्थ साध्य होते है।

।। भक्तवत्सल भक्ताभिमानी राजाधिराज श्रीसदगुरुराज वासुदेवानंद सरस्वती स्वामी महाराज की जय ।।

🙏🏻  अवधूत चिंतन श्री गुरूदेव दत्त 🙏🏻

SHUBH ANNADA EKADASI

SHUBH ANNADA EKADASI
When the great king Harischandra was undergoing much suffering and separation from his family, Gautama Muni beheld his plight and compassionately advised him to observe Annada Ekadasi, which was coming in seven days' time. He promised that if the king faithfully followed the vrata, his troubles would be eliminated. And indeed that is what happened. This is the grace and kindness of our acharyas and rishis, which turns us toward Iswara anugraha which is ever flowing if only we catch it. On our part, we just need sincerity and willpower to follow Dharma.  

Fast from grains and legumes. Chant Vishnu Sahasranama. Remember and worship Bhagavan. Undertake this simplest and most powerful of vratas, the Ekadasi vrata, twice a month and see how your life transforms.

Monday, 15 August 2022

🔯श्रीअरविन्द जीवन एक संक्षिप्त परिचय 🔯

🔯श्रीअरविन्द जीवन एक संक्षिप्त परिचय 🔯    


श्रीअरविन्द का जन्म कृष्ण जन्माष्टमी 15 अगस्त, 1872 को कलकत्ते के एक समृद्ध डाक्टर श्री कृष्णधन घोष के यहाँ हुआ था। जब वे सात वर्ष के थे उन्हें शिक्षा के लिये अपने भाइयों के साथ इंग्लैण्ड भेज दिया गया, वहाँ वे चौदह वर्ष रहे। वहाँ उन्होंने ग्रीक, लेटिन, के अतिरिक्त फ्रेंच, जर्मन, इटैलियन, स्पेनिश आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।

श्री कृष्णधन घोष की प्रबल इच्छा थी कि श्रीअरविन्द आई.सी.एस. की प्रतियोगिता में भाग लें और भारत में आकर एक उच्च पद पर सरकार की सेवा करें। अपने पिता की इच्छा का सम्मान करने की दृष्टि से वे आई.सी.एस. की परीक्षा में बैठे और आशातीत अंक प्राप्त करते हुये परीक्षा में सफल हुये। परन्तु श्रीअरविन्द की इसमें रुचि न थी। वे जानबूझकर घुड़सवारी की परीक्षा देने नहीं गये। श्रीअरविन्द ने बहुत बाद में एक दिन अपनी सन्ध्याकालीन वार्ता में बताया कि इस परीक्षा में सम्मलित न होने का कारण अंग्रेजों की नौकरी के प्रति घृणा की भावना थी। जनवरी 1893 में श्रीअरविन्द भारत लौटे।

श्रीअरविन्द ने बम्बई के अपोलोबन्दर में ज्यों ही भारत भूमि में अपना पैर रखा एक अविरल शान्ति ने उन्हें अधिकृत कर लिया था। सयाजी राव गायकवाड़ ने श्रीअरविन्द को बड़ौदा सरकार की नौकरी के लिये चुन लिया। यहाँ उन्हें विभिन्न प्रकार के काम दिये गये। वे कॉलेज में अंग्रेजी और फ्रेन्च के प्रोफेसर भी रहे और प्रशासक भी। यहाँ रहकर उन्होंने गुजराती, मराठी, बंगला तथा संस्कृत आदि भाषाओं का अध्ययन किया। इसके साथ ही भारतीय संस्कृति का गहरा अध्ययन किया तथा लेखन कार्य करते रहे। उन्होंने तेरह वर्ष बड़ौदा रजा की प्रशासकीय और शैक्षिक सेवाओं में लगाये। ये आत्म-प्रशिक्षण, साहित्यिक क्रिया-कलाप और भावी कार्य की तैयारी के वर्ष थे। बड़ौदा में श्रीअरविन्द ने काली के दिर्शन किये और इसी काल में निर्वाण की अनुभूति प्राप्त की। उन्हीं दिनों ‘भवानी मन्दिर’ की योजना तैयार की गयी जिसमें भारत माता के नि:स्वार्थ सेवकों के प्रशिक्षण की बात की गयी थी। श्रीअरविन्द का बड़ौदा प्रवास साधना और विकट आत्म संयम का समय रहा। साहित्य साधना एवं आध्यात्मिक अनुभव का श्रीगणेश बड़ौदा में ही हुआ। श्रीअरविन्द ने बड़ौदा में अपनी आध्यात्मिक और राजनीतिक दोनों ही तैयारियाँ कीं। बड़ौदा निवास में ही श्रीअरविन्द का विवाह 29 वर्ष की अवस्था में भूपालचन्द्र बसु की सुपुत्री मृणाणिनी देवी से हुआ। अपनी पत्नी को भी आरम्भ से ही एक आध्यात्मिक जीवन की ओर ले जाने का इनका अथक प्रयास रहा है।

सन् 1906 में बंगाल नेशनल कॉलेज की स्थापना हुई। श्रीअरविन्द को इस महाविद्यालय के प्रिंसिपल पद को सँभालने के लिये आमन्त्रित किया गया, तब श्रीअरविन्द बड़ौदा राज की प्रतिष्ठित नौकरी को छोड़ कर आ गये और कलकत्ता आकर नेशनल कॉलेज के पहले प्रिंसिपल बन गये। वहाँ से भी उन्होंने शीघ्र ही त्याग पत्र दे दिया ताकि स्वाधीनता संग्राम में खुलकर भाग ले सकें।

कलकत्ता आते ही श्रीअरविन्द उस राष्ट्रीय आन्दोलन की आग में निर्भीकता से कूद पड़े जिसमें बंग-भंग के प्रश्न को लेकर सारा बंगाल और उत्तर भारत सुलग रहा था। बंगाल को इस समय ऐसे ही निर्भीक और ओजस्वी राष्ट्रनायक की आवश्यकता थी। श्रीअरविन्द ने खुलकर इस आन्दोलन में भाग लिया और राष्ट्र के आह्वान पर अपनी सारी सेवायें अर्पित कर दीं और लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक और विपिनचन्द्र पाल के साथी के रूप में देश के प्रमुख नेताओं में गिने जाने लगे।

श्रीअरविन्द ने देश को स्वाधीनता संग्राम में भाग लेना सिखाया। श्रीअरविन्द शायद कांग्रेस-मंच से पूर्ण स्वराज्य की मांग करने वाले पहले नेता थे। सारा देश जाग उठा और अपनी बलि चढ़ाने के लिये तैयार हो गया।

श्रीअरविन्द राष्ट्रीय दल के कार्यक्रमों में हर प्रकार से सहयोग देते रहे, क्रान्तिकारी कार्यक्रमों को छोड़ दिया और जनमत तैयार करने के लिये विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख या सम्पादकीय लिखते रहे। श्रीअरविन्द ‘वन्दे मातरम्’ का प्रकाशन शुरु किया और वह अपने समय का सबसे लोकप्रिय अखबर बन गया। ‘वन्दे मातरम्’ में उनके सम्पादकीय लेखों ने उन्हें अखिल भारतीय ख्याति दिला दी। उस समय अंग्रेज कहते थे ‘‘ ‘वन्दे मातरम्’ की एक-एक पंक्ति में राजद्रोह भरा है, लेकिन इस चालाकी से छिपाया गया है कि उस पर मुकदमा नहीं चल सकता।’’ तत्कालीन वाइसराय के निजी सचिव ने लिखा था - ‘‘अगर सब क्रान्तिकारी जेल में भर दिये जायें, केवल श्रीअरविन्द ही बाहर रहें तो वह फिर से क्रान्तिकारियों की एक सेना खड़ी कर लेंगे।’’ श्रीअरविन्द ने कांग्रेस की मन्द और प्रभावशून्य नीति में क्रान्ति ला दी, राष्ट्रीय चेतना में पूर्ण स्वराज का लक्ष्य दिया। देश के लिये एक नया राजनैतिक कार्यक्रम दिया और स्वाधीनता आन्दोलन को एक नयी दिशा दी।

श्रीअरविन्द के लिये भारतवर्ष देश का टुकड़ा, पर्वत, खेत, जंगल, और नदियों का नाम न था। उनके लिये भारत माता एक देवी थी। माँ थी। वे अपनी पत्नी के नाम एक पत्र में लिखते हैं :

‘‘अन्य लोग अपने देश को एक जड़ पदार्थ, खेत, मैदान, जंगल, पर्वत और नदियाँ ही मानते हैं और कुछ नहीं पर मैं इसे अपनी माता मानता हूँ। मैं इसकी भक्ति और पूजा करता हूँ। यदि पुत्र यह देखे कि एक राक्षस उसकी माँ की छाती पर बैठा उसका रक्तपान करने के लिये उद्यत हो तो भला लडक़ा क्या करेगा ? क्या वह तब शान्त मन से भोजन करने बैठ जायगा और अपने स्त्री बच्चों के साथ आनन्द मनायेगा या माँ का उद्धार करने के लिये दौड़ पड़ता है ? मैं जानता हूँ कि मुझमें इस पतित जाति का उद्धार करने की शक्ति है, शारीरिक शक्ति नहीं, तलवार या बन्दूक लेकर मैं युद्ध करने नहीं जा रहा हूँ, वरन् ज्ञान की शक्ति है। क्षत्रिय का बल ही एकमात्र बल नहीं है, ब्रह्म तेज भी है। यह तेज ज्ञान के ऊपर प्रतिष्ठित होता है। यह भाव नया नहीं है, आजकल का नहीं है, इस भाव को लेकर ही मैंने जन्म ग्रहण किया है, यह भाव मेरी नस-नस में भरा है, भगवान् ने इसी महाव्रत को पूरा करने के लिये मुझे पृथ्वी पर भेजा है। चौदह वर्ष की उम्र में इसका बीज अंकुरित होने लगा था, जब 18 वर्ष का हुआ तो जड़ें पक्की हो गईं।’’

सन् 1908 से 1909 तक अंग्रेज सरकार ने श्रीअरविन्द को बन्दी बना कर अलीपुर जेल में रखा। जेल के अन्दर उन्हें ध्यान, धारणा और योगाभयास के लिये पर्याप्त समय मिलने लगा। कारागार उनके लिये तपोवन बन गया, कारागार में उन्हें कृष्ण का अन्तर्दशन हुआ। यहीं उन्हें विवेकानन्द का गीता पर प्रवचन सुनाई पड़ा। यहीं अतीत की बड़ी बड़ी आत्माओं ने इनके साथ सम्पर्क किया। अंग्रेजों की पार्लीमेन्ट ने श्रीअरविन्द के मामले पर कई घंटो तक बहस की, परन्तु श्रीअरविद के विरुद्ध कोई अभियोग सिद्ध न हो सका, इसलिये उन्हें छोड़ दिया गया।

1910 में श्रीअरविन्द को अन्दर से आदेश मिला कि पांडिचेरी चले जाओ। अन्तर्रात्मा की पुकार पर श्रीअरविन्द ने राजनीति क्षेत्र छोड़ दिया और अपने-आपको पूरी तरह आध्यात्मिक लक्ष्य के विकास लिये अर्पित करने के लिये 4 अप्रैल 1910 को पांडिचेरी आ गये। इसके बाद उन्होंने कभी राजनीति में सक्रिय भाग नहीं लिया। चार वर्ष के मौन योग के बाद 1914 में उन्होंने दर्शन संबंधी मासिक पत्र ‘आर्य’ का प्रकाशन शुरू किया जिसके द्वारा उन्होंने मानव जाति के लिये अपने नये सन्देश को प्रकट किया : मानव जाति की दिव्य नियति (दिव्य जीवन), उसकी प्राप्ति का मार्ग (योग-समन्वय), मानव समाज की दिव्य भविष्य की ओर प्रगति (मानव-चक्र), मानव जाति के ऐक्य की चरितार्थता (मानव एकता का आदर्श), भारतीय आध्यात्मिकता और संस्कृति का आन्तरिक अर्थ और प्रतीक (भारतीय संस्कृति का आधार, वेद पर, उपनिषद, गीता-प्रबन्ध) काव्य की प्रकृति और उसका विकास (भावी कविता)। काव्य में उनकी सर्वोत्कृष्ठ कृति है ‘सावित्री’, लगभग चौबीस हजार पंक्तियों की अनुकान्त कविता।

1910 से 1937 तक अंग्रेज गुप्तचर उनके मकान के चारों ओर चक्कर लगाया करते थे। क्योंकि अंगे्रज सरकार का गुप्तचर विभाग यह मानने को तैयार न था कि उन्होने राजनीति में सक्रिय भाग लेना बंद नहीं किया है। तत्कालीन मद्रास के मुख्यमंत्री सी. राजगोपालाचार्य ने यह पहरा हटाया। इस प्रसंग के संदर्भ में 25 अप्रैल, 1914 को दिया हुआ माताजी का वचन उल्लेखनीय हैं -

‘‘श्रीअरविन्द राजनीति से अलग हो गये थे और उनके आश्रम के महत्वपूर्ण नियमों में से एक यह है कि सब प्रकार की राजनीति से अलग रहा जाय। यह बात नहीं है कि श्रीअरविन्द को संसार की गतिविधि में रस नहीं था, बल्कि इसलिये कि आजकल राजनीति एक बहुत निम्न कोटि की और भद्दी चीज है जो पूरी मिथ्यात्व, चालाकी, अन्याय, शक्ति का दुरुपयोग आदि से भरी है। राजनीति में भाग लेने के लिये कपट, धोखेबाजी और बेतहाशा महत्वाकांक्षा पैदा करने की जरूरत है।

‘‘हमारे योग का आधार है सच्चाई, ईमानदारी, अहंकार का निषेध, भागवत कार्य के लिये नि:स्वार्थ आत्म-दान, चरित्र की उदात्तता और ऋजुता। जो लोग इन आधारभूत गुणों को अपने जीवन में नहीं लाते वे श्रीअरविन्द के शिष्य नहीं हैं और इस आश्रम में उनके लिये स्थान नहीं है। इसलिये मैं आश्रम पर किये गये उन मूर्खतापूर्ण और निराधार आक्षेपों का उत्तर देने से इंकार करती हूँ जो विकृत भावना अैर बुरे इरादे से किये जाते हैं।

श्रीअरविन्द हमेशा अपनी मातृभूमि से प्रगाढ़ प्रेम रखते थे, लेकिन वे चाहते थे कि वह महान्, उदात्त, पवित्र हो, संसार में अपने महान् लक्ष्य के अनुरूप हो। उन्हें यह स्वीकार न था कि वह गन्दे, अधम, अपरिष्कृत, अन्धे, स्वार्थपूर्ण और अज्ञान-भरे पूर्वाग्रहों के स्तर पर उतरे। इसीलिये हम उनकी इच्छा के साथ-साथ चलते हुए सत्य, प्रगति और मानव रूपान्तर की ध्वजा ऊंची उठाते हैं, उन सबकी परवाह न करते हुए जो अज्ञान, मूढ़ता, ईष्र्या और दुर्भावना के कारण उसे गन्दा करना या कीचड़ में घसीटना चाहते हैं - उसे ऊंचे से ऊंचा फहराते हैं, ताकि जिन्हें उससे प्रेम हो वे उसे देख सकें और उसके चारों ओर इकट्ठे हो सकें।’’

श्रीअरविंद ने चालीस वर्ष तक पांडिचेरी में रहकर पृथ्वी पर दिव्य जीवन के लिये प्रसार किया, इस दृष्टि को चरितार्थ करने के लिये उन्होंने अथक परिश्रम किया। इस अंधकार, अनिश्चितता और निराशा के युग में श्रीअरविंद प्रकाशवान और उज्जवल भविष्य की आशा और सन्देश लाते हैं।

श्रीअरविंद ने 5 दिसम्बर 1950 में अपना पार्थिव शरीर त्याग दिया, लेकिन उनके दिव्य दर्शन और आदर्श सारे संसार में लोगों को प्रेरित करते आ रहे हैं।

श्रीअरविन्द कौन थे? कौन हैं? इसका उत्तर श्रीमाँ के शब्दों में

‘श्रीअरविन्द Matter (जड़द्रव्य) की आत्मा हैं, पूरी मानवता की अभीप्सा हैं। वे Matter के भीतर के प्रकाश हैं या जड़ द्रव्य के भीतर आत्मा के अवतार हैं। श्रीअरविन्द ने उस परम परमात्मा से अपने आप को अलग किया, निश्चेतना और अज्ञान का बोझा अपनी पीठ पर ढोते हुये सशरीर जड़द्रव्य के भीतर डुबकी लगाई जिससे वह भागवत जीवन की ओर जागृत हो सके। इसके लिये उन्होंनें परम प्रभु से अपनी कृपा को नीचे उतारने के लिये प्रार्थना की है जिससे कि उनका कार्य पृथ्वी में पूरा हो। इसीलिये उनकी पुकार को सुनकर मैं मानव शरीर में जड़द्रव्य में उतरी, इस कष्ट, पीड़ा और मृत्यु के लोक में आई। हम दोनों के सम्मिलन से ही दुनिया भागवत जीवन के चमत्कार को देखेगी। उन्हीं के कारण मैं अवतरित हुई हूँ । उन्होंने जड़द्रव्य की प्रखर अभीप्सा को ऊपर भेजा और उश्रर में भागवत कृपा ऊपर से नीचे अवतरित हुई। कैसी मंगल वेला थी वह धरती के लिये!! यह अत्यधिक प्रगति करने का अवसर है जिसमें सारा विश्व अपनी सश्रा के लक्ष्य की ओर बड़े उत्साह और स्फूर्ति के साथ बढ़ सकता है। हमारी सहायता से भला ऐसी कौन सी चीज़ है जिसे उपलब्ध करना असंभव हो?’

‘It is only because of SriAurobindo that I can accomplish this work (of radiating divine vibration).He invites me, He opens the door and I enter into the depths of Inconscience and I kindle the light to illumine the atoms in the torpor of Inconscience. I put there a bit of force to awaken them and I give divine love so that they may aspire more.’ The Mother

‘यही वह कार्य है (नयी चेतना का बीज बोना) जिसे मैंने किया है यद्यपि इसे कभी किसी ने नहीं जाना, फिर भी यह कार्य बिना श्रीअरविन्द के, आगे नहीं बढ़ सकता था।’

श्रीमाँ ने बताया - ‘इस जगत के इतिहास में श्रीअरविन्द जिस चीज़ का प्रतिनिधित्व करते हैं वह कोई उपदेश नहीं है न ही वह कोई रहस्योद्घाटन है, वह तो सीधे भगवान द्वारा संचालित निर्णायक क्रिया; (Action) है।’

यह 'Action' शब्द श्रीअरविन्द की स्थिति को समझने के लिये बहुत महत्वपूर्ण है। श्रीमाँ ने इस शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुये बताया कि चूंकि श्रीअरविन्द प्रत्यक्ष रूप से जड़द्रव्य पर क्रिया कर रहे हैं (अर्थात् Supreme in matter ) इसलिये 'Action' शब्द का प्रयोग किया गया। यह क्रिया ‘ऊपर भगवान से सीधे नीचे आ रही है और श्रीअरविन्द इस शक्ति व क्रिया का प्रतिनिधित्व कर रहें हैं।’ स्पष्ट है कि श्रीअरविन्द स्वयं ही अतिमानस शक्ति (Supramental Power) के अवतार हैं।

अतयेव श्रीअरविन्द को जानना स्वयं उस सत्य को जानना है जिसे लेकर वे स्वयं धरती पर अवतरित हुये। प्रत्येक अवतार या विभूति उस समय का प्रतीक होता है जिसका वह प्रतिनिधित्व करता है। राम, कृष्ण, बुद्ध, शंकर, चैतन्य और रामकृष्ण आदि ने अपने अपने समय में जिस सत्य का प्रतिनिधित्व किया उसका उन्होंने अपने व्यक्तित्व में अवतरण भी कराया। सत्य इसी प्रकार अभिव्यक्त होता आया है। चन्द्रमा अपनी सारी कलाओं के साथ उदित न होकर प्रति रात एक नई कला का उद्घाटन करता है जब तक कि पूर्णिमा की रात वह पूर्ण चन्द्र नहीं बन जाता। सत्य भी इसी प्रकार धीरे धीरे विकास की क्रिया को अपनाते हुये उद्घाटित होकर एक दिन पूर्ण रूप में उद्घाटित हो पाता है। श्रीअरविन्द इस श्रृंखला में अभी तक के अंतिम प्रकाश स्तंभ हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित अतिमानस सत्य में अभी तक की सारी उद्घाटित कलायें समन्वित हैं इसीलिये उनके योग को सर्वांगीण योग का नाम दिया गया है।

माँ कहती हैं ‘श्रीअरविन्द के बिना मेरा अस्तित्व नहीं, मेरे बिना उनकी अभिव्यक्ति नहीं।’

उनका यह कथन पूरी स्थिति को स्पष्ट कर देता है। बिना ‘सत्’ के ‘चित्’ का अस्तित्व नहीं हो सकता लेकिन ‘चित्’ के बिना संसार में सत् की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। दोनों के मिलन से ही आनन्द ब्रह्म की अनुभूति होती है और सच्चिदानंद के रूप में परिणित करने के लिये परमात्मा सृष्टि को संचालित करता है।

श्रीअरविन्द योग की उपादेयता के बारे में श्रीमाताजी कहती हैं, ‘श्रीअरविन्द हमें यह बतलाने आये थे कि सत्य की खोज के लिये किसी को पृथ्वी छोडऩे की आवश्यकता नहीं, अपनी आत्मा की खोज के लिये किसी को जीवन का परित्याग करने की आवश्यकता नहीं, भगवान से सम्बन्ध स्थापित करने के लिये किसी को संसार छोडऩे की आवश्यकता नहीं, न ही उसे सीमित मान्यताओं के अन्दर रहने की आवश्यकता है। भगवान सर्वत्र हैं, प्रत्येक वस्तु में हैं और यदि वे छिपें हैं तो इसलिये कि हम उन्हें ढूंढ़ निकालने का कष्ट नहीं उठाते।’

अपनी पहली भेंट में श्री माँ ने लिखा - ‘कोई बात नहीं यदि सैकड़ों मानव गहनतम अज्ञान में डूबे हुये हों। वे, जिनके हमने कल दर्शन किये हैं, पृथ्वी पर हैं। उनकी यहाँ उपस्थिति ही इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि एक दिन आयेगा, जब अंधकार प्रकाश में रूपांतरित हो जायगा, जब भगवान का राज्य पृथ्वी पर सही रूप में प्रतिष्ठापित हो जायगा।’

अपने महानतम काव्य सावित्री में श्रीअरविन्द ने अपनी और श्री माँ की भूमिका को अप्रत्यक्ष रूप में अन्य नामों के माध्यम से दिया है। सावित्री में श्रीअरविन्द की दो भूमिकायें हैं - पृथ्वी की आत्मा सत्यवान के रूप में वे सनातन काल से कभी इस नाम से तो कभी उस नाम से आकर पृथ्वी की चेतना के विकास में अगला चरण जोड़ते रहे हैं; अश्वपति के रूप में उन्होंने ऊपर से विज्ञानमय चेतना का धरती पर अवतरण कराने और पृथ्वी में उसके लिये अभीप्सा पैदा करने के लिये इस युग में अवतार लिया। इसी प्रकार श्रीमाँ की भी दोहरी भूमिका रही है। सनातन सावित्री के रूप में वे भी सत्यवान के साथ पृथ्वी चेतना के विकास में जन्म जन्मान्तरों से यह योग करती रही हैं। वर्तमान में अश्वपति की पुकार के उश्रर में वरदान के रूप में वे अतिमानस शक्ति को ले कर धरती में अवतरित हुईं जिससे यहां अतिमानस की जाति का बीजारोपण हो सके।

God’s Labour नामक अपनी प्रसिद्ध कविता में श्रीअरविन्द ने अप्रत्यक्ष रूप से अपना ही परिचय एक अद्वितीय साधना के साधक के रूप में दिया है।

‘Coercing my Godhead, I have come

Here on the sordid earth

Ignorant labouring, human grown

Twixt the gates of death and birth …….’

श्रीमाँ ने अन्यत्र लिखा - ‘इस पृथ्वी के इतिहास के आरंभ से ही श्रीअरविन्द किसी न किसी रूप में इस या उस नाम से पृथ्वी के महत्वपूर्ण रूपांतरों का संचालन करते रहे हैं।’ 

‘श्रीअरविन्द परम प्रभु के प्रकाश की सतत धारा (emanation) थे। वे पृथ्वी पर भावी नयी जाति व नये जगत की अभिव्यक्ति सम्बन्धी घोषणा करने के लिये आये थे।’

‘हृदय की गुहा में नीचे धसते जाओ, धसते जाओ, जगतों के बाद जगतों में, चेतना के बाद दूसरी चेतना में - बिलकुल पेंदी में शुद्ध करने वाली लौ में श्रीअरविन्द का निवास है।’

श्रीमाँ ने आश्चर्य के साथ बताया था - ‘हम दोनों (श्रीअरविन्द और श्रीमाँ) ने परिपूर्ण भागवत जीवन को एक साथ लगातार 30 वर्ष तक पृथ्वी में जिया लेकिन आश्चर्य है कि लोग हम दोनों को यहाँ साथ साथ रहने के दैवी संयोग का, जो एक आश्चर्यमय अवसर था, लाभ नहीं उठा पाये। यह एक चमत्कारी कृपा थी जिसने चैत्य को ताले में तब तक बन्द रक्खा जब तक बाहर की चीज़ें तैय्यार नहीं हो गईं।’

श्रीअरविन्द ने यह कहकर सबको चौंका दिया, 'Humanity is not the last rung of the terrestrial creation. Evolution continues and man will be surpassed.  It is for each individual to know whether he wants to participate in the advent of this new species.' विकासवाद के इस सिद्धांत ने परम्परावादी जनमानस को हिला कर रख दिया। अभी तक के योग और दर्शन ने मनुष्य को विधाता की अन्तिम कृति माना पर उसे भी भवसागरी सृष्टि से विदा लेकर स्वर्गीय समाधि में लीन हो जाने का उपदेश दिया था। इसलिये इनके अनुयायियों के लिये चेतना का विकासवादी सिद्धान्त अग्राह्य हो गया। ऐसे लोगों ने श्रीअरविन्द के योग को भारतीय योगविद्या के प्रतिकूल मानकर विरोध किया और सत्य के नये अवतरण को स्वीकारने में आपश्रि की। इसी सन्दर्भ में माताजी ने कहा - ष्विश्व की सनातनता में प्रत्येक अवतार केवल घोषणा करने आता है, वह भविष्य की पूर्णतर उपलब्धि का अग्रणी होता है। फिर भी लोगों में हमेशा भविष्य के अवतारों के विरुद्ध पिछले अवतारों को ही मान्यता देने की प्रवृश्रि होती है। वर्तमान समय में पुन: श्रीअरविन्द संसार में कल के उपलब्धि की घोषणा करते हुये आये हैं और पुन: उनके सन्देश को उन्हीं विरोधों का सामना करना पड़ रहा है जिनका सामना उनके पूर्ववर्तियों को करना पड़ा था। लेकिन आने वाला कल इस बात की सत्यता को प्रमाणित कर देगा कि उन्होंने किस रहस्य का उद्घाटन किया तथा यह भी कि उनका कार्य पूरा होकर रहेगा।’

‘A truth of truths men fear and deny

The light of lights, they refuse

To ignorant Gods they lift their cry

Or a demon altar choose.’

श्रीअरविन्द का जीवन कभी ऊपरी तल पर रहा ही नहीं इसलिये उनके व्यक्तित्व के बारे में श्रीमाँ के सिवाय कोई भी ठीक ठीक नहीं कह सकता। किसी भी आत्मकथाकार को इसीलिये उन्होंने अपने बारे में लिखने की अनुमति नहीं दी। रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं कि उनका जीवन इतना बहुमुखी था कि उसे समेट पाना बहुत कठिन है। उनके व्यक्तित्व में योगी, कवि और दार्शनिक इन तीनों का समन्वय था और सब के सब एक ही लक्ष्य की ओर गतिशील थे इसलिये श्रीअरविन्द का ध्यान करते समय ऐसा भासित होता है मानो हम मानवता के महासूर्य को देख रहे हों। श्रीसुमित्रानन्दन पन्त लिखते हैं कि इस विषमतर मानसिक तथा भौतिक संघर्षों के वैज्ञानिक युग में श्रीअरविन्द नयी जीवनदृष्टि के व्याख्याता के रूप में आविर्भूत हुये। बाल गंगाधर तिलक ने श्रीअरविन्द के राजनीतिक जीवन के बारे में कहा था - आत्मत्याग, ज्ञान और सच्चाई में श्रीअरविन्द के समान और कोई नहीं है। यह तो ईश्वर की कृपा है कि श्रीअरविन्द जैसे लोग राष्ट्रीय कार्य की ओर आकर्षित हुये। पट्टाभि सीता रमैय्या ने कांग्रेस के इतिहास में लिखा - ‘भारत के क्षितिज में श्रीअरविन्द वर्षों तक एक अत्यन्त उज्ज्वल नक्षत्र के समान चमके।’ फ्रांस के नोबल पुरस्कार विजेता रोमारोला ने लिखा है ‘महान ऋषियों की शृंखला का यह अंतिम ऋषि अपने विशाल हाथों में निर्माण का धनुष धारण किये है।’ नोबल पुरस्कार की अन्य विजेता मैडम गैबरीला और मैडम पल्र्स एस. बक लिखती हैं ‘श्रीअरविन्द के हाथों में कविता स्वर्गीय संगीत व अनन्त की चिन्मयता का निर्झर यंत्र बन गई है।’

कवीन्द्र रवीन्द्र ने श्रीअरविन्द की स्तुति में कितने ही छन्द लिखकर अर्पित किये हैं। सुमित्रानन्दन पन्त ने उनकी सावित्री के बारे में लिखा - ‘सावित्री महाकाव्य में श्री अरविन्द ने अपने समस्त दर्शन के योगामृत को प्रकाश और सौन्दर्य के कलश में भर कर विश्व को अमर भेंट के रूप में प्रदान किया है।’

श्रीअरविन्द अपनी सावित्री का अन्तिम संशोधन पूरा करके तुरन्त एकाएक चले गये। भौतिक शरीर छोडऩे के कुछ ही दिन पहले उनके व श्रीमाँ के बीच इस बात पर मंत्रणा हुई थी कि दो में से किसी एक को कार्य को गति देने के लिये शरीर छोडऩा होगा। सुप्रामेण्टल शक्ति पृथ्वी की चेतना में मानवता में परिवर्तन के लिये नहीं ठहर पा रही थी क्योंकि मानव जाति अभी इस के लिये तैयार नहीं थी। दूसरे, सूक्ष्म भौतिक उसके उतरने में अवरोध पैदा कर रहा था। शरीर की अपनी सीमायें हैं इसलिये श्री अरविन्द ने शरीर को छोड़ कर सूक्ष्म शरीर द्वारा सूक्ष्म भौतिक में रहकर काम को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। श्रीमाँ के कथनानुसार ‘श्रीअरविन्द सूक्ष्म भौतिक में अमर हैं। नीचे प्रकाश में छिपे हैं। उनके पास मृदु, पुराणी, अमृता और चन्दूलाल हैं। इन शिष्यों के साथ वे पृथ्वी के लिये चीज़ें तैयार कर रहे हैं। वे एक जीवित शरीर में साकार होंगे।’ उनके जाने के तुरन्त बाद जब श्रीमाँ ने उनसे वापस लौटने का आग्रह किया तो उन्होंने कहा था कि वे उस शरीर में नहीं लौटेंगे, वे अतिमानसिक तरीके से तैयार किये गये अतिमानसिक शरीर (Divine body) में लौटेंगे।  ••-( जनकल्याण ट्रस्ट, मां मंदिर, महसूवाके वेबसाइट वाल से साभार )

Sunday, 14 August 2022

Every time you break sīla

💐Message💐


Every time you break sīla you justify it, and at the surface level you feel perfectly all right. 

1) You say to yourself, "I killed that fellow because he was bad." 

2) Or you may say, "Why should he have that? What was wrong with my taking it? I’m quite happy now." 

3) Or else you say, "I had sexual relations but I didn’t harm anybody; it was not a rape, we both consented. What is wrong with that?" 

4) Or again you say, "I took only a little glass of wine and I didn’t get intoxicated. What was wrong with that? 
After all, when I’m in society somebody offers me a glass of wine and by accepting it I am not disturbing the peace and harmony of society, I am helping it. Everybody’s happy." 

🌷  They are happy with the layer of ash covering the truth. 

They don’t know that they are burning deep inside and that they keep giving fuel to this burning." 

Every time you break any sīla you are giving more and more fuel to this fire and you become more and more miserable. 

This cannot be understood by arguments or discussions. 

Only when you go deeper can you realize that every vocal or physical action that breaks the law of nature simultaneously causes harm to yourself.

Wednesday, 10 August 2022

ईशावास्योपनिषद् :जिसने हमें जीने की राह दिखाई

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ईशावास्योपनिषद् :
जिसने हमें जीने की राह दिखाई
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ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधःकस्य स्विद्धनम्।।१।।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।२।।
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बहुत ही कम लोग जानते हैं कि यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय दधीचि ऋषि की वह आध्यात्मिक सम्पदा है, जो उन्होंने अपनी पार्थिवता और अपने कर्मसमुच्चय के साथ ही भगवान् को समर्पित कर दी थी। सम्पूर्ण यजुर्वेद में चालीस अध्याय हैं। ३९ अध्याय कर्मकाण्ड के हैं, केवल चालीसवाँ अध्याय ही ज्ञानकाण्ड से सम्बद्ध है,और इस पूरे अध्याय के ऋषि दधीचि हैं।

कालान्तर में यजुर्वेद का यही चालीसवाँ अध्याय ज्यों का त्यों "ईशावास्योपनिषद्" के रूप में स्वीकार किया गया, किन्तु वहाँ कहीं भी दधीचि का नामोल्लेख नहीं।

ईशावास्योपनिषद् में से होकर गुजरना, मतलब दधीचि ऋषि की उंगली पकड़कर चलना।

यह सबसे छोटा उपनिषद् है, मात्र१८ मंत्रों का संग्रह। इससे छोटी ऐसी कोई रचना संसार में नहीं है, जो जीवन को भगवान् से जोड़ने की अपूर्व क्षमता रखते हुए वह सारा रहस्य बता देती हो, जिससे समस्त वेद, उपनिषद्, गीता और भारतीयता का सम्पूर्ण वागर्थ ओतप्रोत है।

यह उपनिषद् हमारी आदर्श जीवनशैली का खाका प्रस्तुत करते हुए पहली बार हमें जीने की राह दिखाता है।

इस संसार में जो भी है, सब ईश्वर से भरा हुआ है। उसे अनदेखा करके भी उसीमें होने की नियति है हमारी। इसलिये जीवन का भरपूर उपभोग करो, किन्तु त्यागपूर्वक।जोड़ते जाओ, और छोड़ते भी जाओ। जो कुछ ग्रहण करते हो, वह भगवान् के प्रसाद के सिवा और कुछ भी नहीं। पराये धन की लालसा तुममें आलस भर देगी। कर्म करना ही होगा। कर्महीन जीवन भारस्वरूप है।

काम करते हुए भरपूर जीने की इच्छा करो। पूरे सौ साल जीना है परिश्रम करते हुए, न कि शैया पर पड़े हुए। काम करते जाओ, और उन्हें भगवान् को सौंपते चले जाओ, बस।

भगवान् को भूल जाओगे, तो वह भी तुम्हें भूल जायेगा। अज्ञान के अंधेरे में पड़े रहोगे, तो आत्महन्ता कहे जाओगे, और फिर मरकर भी अंधेरे में ही घिरे रहोगे।

ईश्वर अचल है,असीम है। वह तर्क की सीमा में नहीं आता। वह अपने भीतर सबको देखता है,और सबमें अपने को। वह हमारे अंदर-बाहर सर्वत्र है।

भगवान् ने हमें बुद्धि दी है। यह सबसे बड़ा शस्त्र है, जो उसने हमें दिया। यह शस्त्र मनुष्य के अभ्युदय के लिये हैं, किंतु यही शस्त्र मनुष्य का सर्वविनाश भी कर सकता है।

संसार में विद्या भी है,अविद्या भी। दोनों की पहचान करो। अविद्या को पहचान लेने से तुम मृत्यु को पार कर लोगे,और विद्या को पहचान कर अमृत तत्व को पा जाओगे।

दधीचि ऋषि हमें निरंतर अपने हृदय में झाँक कर देखते रहने का परामर्श देते हैं।हृदय में गुण-दोष का विवेचन करते रहने वाले का चित्त शुद्ध बना रहता है।

विश्व में सत्य छिपा हुआ है। वह कई तरह के आवरणों से ढँका हुआ है। माया-मोह सहित अनंत आवरण हैं,जिनके पीछे छिपा हुआ सत्य बाहर आना चाहता है। उसे मनुष्य की अखंड तपस्या ही बाहर ला सकती है।

हमें भयमुक्त हो जाना चाहिए, क्योंकि ईश्वर सबको प्रेरणा देता है,सबका पालन-पोषण करता है,और सबका नियमन करता है। दधीचि ऋषि हममें यह भरोसा जगाते हैं कि ईश्वर जिस प्रकार पूर्ण है, सुंदर और ऐश्वर्यशाली है, उसी प्रकार हम भी पूर्ण हैं,सुंदर हैं और ऐश्वर्यशाली हैं। जो ईश्वर है, वही मैं हूँ। सोऽहम्।

हमारी प्रार्थना होनी चाहिए कि हमारे प्राण अमृत-तत्व में विलीन हों, हमारे स्थूल तत्व दिव्य अग्नि को समर्पित हों, जिससे भगवान् हमें स्मरण रखे,हमारे कर्मों को स्मरण रखे। अंततः हम और हमारे कर्म भगवान् को ही समर्पित हों।

अंत में ऋषि हमें एक प्रार्थना देते हैं- हे भगवान्! तू हमें अपनी चेतना में रहने दे। हमें सरल मार्ग पर ले चल। हमें वक्रमार्ग पर जाने से रोक ले। हमारी पापवृत्ति को दूर कर दे। हमारे जीवन में शान्ति को जगह दे।

🍁मुरलीधर

अरहंत सोपाक

🌷अरहंत सोपाक🌷
सोपाक नाम का एक पुत्र चार माह की अवस्था में ही अनाथ हो गया। पिता चल बसे । चाचा ने बड़े बेमन से उसे पाला । गरीबी के कारण बालक उसके लिए बोझ-स्वरूप था। चाचा बड़े क्रुद्ध स्वभाव का था। इस अनाथ बच्चे के कारण उसका चिड़चिड़ापन बढ़ता चला गया । 

सोपाक जब सात वर्ष का हुआ, तो किसी एक अप्रिय घटना को लेकर चाचा उसे श्मशान ले गया और एक मुर्दे शव के साथ निर्दयतापूर्वक बांध दिया, ताकि मुर्दे को खाते हुए सियार उसे भी चीर-फाड़ कर खा जायँ। बच्चे के करुण-क्रंदन का उस पाषाण-हृदय पर कोई असर नहीं हुआ। 

परंतु भगवान  बुद्ध ने यह घटना देखी, तो करुणा-विगलित होकर सोपाक को छुड़ा कर विहार में ले  आने को कहा l वहीं उसकी प्रव्रज्या और फिर उपसंपदा हुई। आगे चल कर सोपाक  अरहंत हुए। 

उस समय के उनके उद्गार हैं -
*"जातिया सत्तवस्सोहं, लद्धान उपसम्पदं"*
जीवन के सातवें वर्ष में मुझे उपसंपदा मिली।

*"धारेमि अन्तिमं देहं"*
आज मैं जीवन्मुक्त हूं, क्योंकि यह मेरा अंतिम शरीर है। अब पुनर्जन्म होने वाला नहीं है।

अरहंत सोपाक की वाणी में प्रसन्नता और कृतज्ञता झलक पड़ी जब उन्होंने कहा-
*"अहो धम्मसुधम्मता" - अहो! धर्म की सुधर्मता तो देखो!*

समाधान : ध्यान में उबासी, आंख से पानी

🌷 समाधान : ध्यान में उबासी, आंख से पानी 🌷
✍️ .....यह जो कभी-कभी ध्यान में बैठते ही उबासी आ जाती है और आंख में पानी आने लगता है, यह अच्छे लक्षण हैं। दिनभर के लोक-संपर्क और काम-काज का जो प्रभाव ऊपर-ऊपर पड़ा होता है, वह साधना में बैठते ही किसी-न-किसी रास्ते निकल कर मुक्त हुआ चाहता है। ऐसी अवस्था में उबासी और आंखों से पानी आना बहुत स्वाभाविक है। उसे आने देना चाहिए, रोकने की जरा-भी कोशिश नहीं करनी चाहिए...... 🙏🙏🙏

📃 वाराणसी से एक नये साधक का पत्र -
"...मेरा अभ्यास चल रहा है पूर्वाह्न और अपराह्न प्रायः प्रतिदिन आनापान और विपश्यना कर रहा हूं। कभी दिनचर्या व्यस्त रहती है और थकान आ जाती है तो आनापान करके ही उठ जाता हूं, उबासी आने लगती है और आंख से पानी आने लगता है। ध्यान स्थिर नहीं हो पाता, ऐसे में जबर्दस्ती बैठे रहना नहीं बनता। 

एक अंतर आया है - प्रतापगढ़ में मैं जहां घंटों भी थोड़ा हिलडुल कर एक अधिष्ठान में बैठा रह सका, वहां अब पंद्रह मिनट से ज्यादा नहीं बैठ पा रहा हूं। ऐसा नहीं कि बैठ सकता ही नहीं, लेकिन बैठ नहीं रहा हूं। आनापान स्थिर होने पर एक बार पूरी काया की अनुपश्यना होने पर प्रायः उठ जाता हूं...."

उपरोक्त पत्र का पूज्य गुरुजी की ओर से उत्तर -

🌷 “आप अपने अभ्यास की नियमितता न टूटने दें। प्रथम एक-डेढ़ वर्ष तक भिन्न-भिन्न प्रकार की बाधाएं आती हैं जो कि नियमितता नहीं रहने देती। किसी प्रकार भी उन बाधाओं का सामना करते हुए साधक अपना अभ्यास कायम रखता है तो स्थिरता स्वयमेव आ जाती है। फिर अधिक कठिनाइयां नहीं रहतीं। 

यह जो कभी-कभी ध्यान में बैठते ही उबासी आ जाती है और आंख में पानी आने लगता है, यह अच्छे लक्षण हैं। दिनभर के लोक-संपर्क और काम-काज का जो प्रभाव ऊपर-ऊपर पड़ा होता है, वह साधना में बैठते ही किसी-न-किसी रास्ते निकल कर मुक्त हुआ चाहता है। ऐसी अवस्था में उबासी और आंखों से पानी आना बहुत स्वाभाविक है। उसे आने देना चाहिए, रोकने की जरा-भी कोशिश नहीं करनी चाहिए। 

जब उबासियां आनी बंद हो जायं और पानी आना बंद हो जाय, उसके बाद ही अच्छा ध्यान लगेगा, परंतु जितनी देर यह क्रम चल रहा हो उसे रोककर ध्यान करना चाहेंगे तो कठिनाई पैदा होगी। यह जो ऊपरी-ऊपरी सतह पर नये-नये तनाव-खिंचाव पैदा हुए उनको सुबह-शाम निकाल लेना ही हमारे लिए कल्याण की बात है। प्रारंभिक दस-पंद्रह मिनट यदि इन्हीं से उलझना पड़े तो कोई हर्ज नहीं। उसके बाद ही ध्यान ठीक से लगता है। अतः उकताकर पंद्रह मिनट में ही उठ जाना उचित नहीं है....।”
🙏🙏🙏

पुस्तक: लोकमत (भाग-2)
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥ 

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       ✺भवतु सब्ब मंङ्गलं✺
       ✺भवतु सब्ब मंङ्गलं✺
       ✺भवतु सब्ब मंङ्गलं✺
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 🌷🙏🌷🙏🌷🙏🌷🙏🌷

Monday, 8 August 2022

अहम्-शून्यता

अहम्-शून्यता

श्रीमाँ सारा जीवन निर्विचार कृपा किये गईं। कितने ही पतित, स्त्री-पुरुषों को उन्होंने गोद में खींच लिया। कितने ही अभागों और अकिंचनों  को मुक्ति दे दी‌। उनकी कृपा
अहैतुकी थी, बदले में उन्होंने कुछ भी नहीं चाहा। केवल एक बात वे अपनी संतानों से चाहती थीं और वह यह थी कि वे लोग सब अवस्थाओं में उन्हें मन में बनाए रखें।...

एक 'साधु-शिष्य' उत्तराखंड के दुर्गम तीर्थों का भ्रमण करके श्रीमाँ के चरण-दर्शन करने उपस्थित हुये। माँ ने पूछा , "तुम कहां कहां घूम आए ?" 
उन्होंने कहा,-- "केदारनाथ, बद्रीनारायण, गंगोत्री, यमुनोत्री
,यह सब।"
श्रीमाँ ने सभी तीर्थों को हाथ जोड़कर प्रणाम किया।फिर पूछा ,"जहां-जहां गए ,वहां क्या मेरे उद्देश्य से एक-एक अंजुलि जल दिया? शिष्य, सिर झुका कर चुप हो गए‌। उनका ह्रदय पछतावे से दग्ध हो उठा।
माँ ने कहा--,"जहां ,जहां जाओ,;मेरे उद्देश्य से तीन तीन अंजली जल देना ,-- बस इतना ही तो उन्होंने अपनी संतानों से चाहा था।"...

श्रीमाँ ने अपने जीवन से अहं को पूरी तरह मिटा डाला था। दक्षिणेश्वर में ठाकुर के साथ जीवन के तेरह वर्ष नौबतखाने में बिताकर, उनकी सेवा और सानिध्य के माध्यम से ,उनमें 'श्रीरामकृष्ण-तल्लीनता' का जो भाव आया था ,वही उनके 'अहं-नाश' में सहायक बना। ठाकुर ही सर्वमय हैं ‌। सारे देवी-देवता, गुरु ,इष्ट,--सब कुछ वे ही हैं।.. सारदादेवी 'श्रीरामकृष्ण-पर्याप्तकाम' हो गयी थीं।.. 
श्रीमाँ ने शत-शत लोगों को दीक्षा दी ,पर सबके सामने श्रीरामकृष्ण को ही 'जाज्वल्यमान' रखा। कहा,.."ठाकुर ही गुरु है ,ठाकुर ही इष्ट हैं, ठाकुर को पुकारो, ठाकुर को पकड़ो।"...

श्रीमाँ उस समय 'बागबाजार-मठ' में थीं। एक दिन उनकी भतीजी 'नलिनी' ने पूछा ; "अच्छा बुआ, तुम्हें लोग जो अंतर्यामिनी कहते हैं ,सो क्या तुम सचमुच ही अंतर्यामिनी हो ?.. सुनकर श्रीमाँ जरा हँस पड़ीं। फिर भक्तों को लक्ष्य करते हुए कहने लगीं  "मैं क्या हूं भला? ठाकुर ही तो सब कुछ हैं । तुम लोग ठाकुर के पास यही कहो (हाथ जोड़कर उन्होंने ठाकुर को प्रणाम किया) कि मुझमें अहं-भाव न
 आये।"...
हजारों लोग श्रीमाँ को देवी-ज्ञान से पूजते थे । तुम भगवती हो ,जगज्जननी हो ,रुद्राणी हो ,--यह कह-कह कर ,उनके चरणों पर लोटते थे ,पर आश्चर्य उनमें तनिक भी अहंकार नहीं था। इतना मान सम्मान पचा पाना क्या मनुष्य की शक्ति में है ? उनका वह 'भगवतीत्व' इस 'अहं-नाश' में ही है।...

ॐ,

Sunday, 7 August 2022

ईश्वर सब सुनते हैं !

ईश्वर सब सुनते हैं !! 
मीरा जी भगवान कृष्ण के लिए गाती थीं तो भगवान बड़े प्यार से सुनते थे। 

सूरदास जी जब पद गाते थे तब भी भगवान सुनते थे। 

और कहाँ तक कहूँ कबीर जी ने तो यहाँ तक कह दिया- चींटी के पग नूपुर बाजे वह भी साहब सुनता है। 

एक चींटी कितनी छोटी होती है अगर उसके पैरों में भी घुंघरू बाँध दे तो उसकी आवाज को भी भगवान सुनते हैं। 

यदि आपको लगता है कि आपकी पुकार भगवान नहीं सुन रहे तो ये आपका वहम है या फिर आपने भगवान के स्वभाव को नहीं जाना। 

कभी प्रेम से उनको पुकारो तो सही, कभी उनकी याद में आंसू गिराओ तो सही। 

संत तो यहाँ तक कहते हैं कि केवल भगवान ही है जो आपकी बात को सुनता है। 

एक छोटी सी कथा संत बताते हैं-

एक भगवान जी के भक्त हुए थे, उन्होंने 20 साल तक लगातार भगवत गीता जी का पाठ किया। 

अंत में भगवान ने उसकी परीक्षा देते हुए कहा- अरे भक्त! सोचता है कि मैं तेरे गीता के पाठ से खुश हूँ, तो ये तेरा वहम है। मैं तेरे पाठ से बिल्कुल भी प्रसन्न नहीं हुआ। 

जैसे ही भक्त ने सुना तो वो नाचने लगा, और झूमने लगा। 

भगवान ने बोला- अरे! मैंने कहा कि मैं तेरे पाठ करने से खुश नहीं हूँ और तू नाच रहा है। 

वो भक्त बोला- भगवान जी आप खुश हो या नहीं हो ये बात मैं नहीं जानता। 

लेकिन मैं तो इसलिए खुश हूँ कि आपने मेरा पाठ कम से कम सुना तो सही, इसीलिए मैं नाच रहा हूँ। 

ये होता है भाव.... 

थोड़ा सोचिए द्रौपदी जी ने भगवान कृष्ण को पुकारा तो क्या भगवान ने नहीं सुना? भगवान ने सुना भी और लाज भी बचाई। 

जब गजेन्द्र हाथी ने ग्राह से बचने के लिए भगवान को पुकारा तो क्या भगवान ने नहीं सुना? 

बिल्कुल सुना और भगवान अपना भोजन छोड़कर आये। 

कबीरदास जी, तुलसीदास जी, सूरदास जी, मीराबाई जी जाने कितने संत हुए जो भगवान से बात करते थे और भगवान भी उनकी सुनते थे। 

इसलिए जब भी भगवान को याद करो उनका नाम जप करो तो ये मत सोचना कि भगवान आपकी पुकार सुनते होंगे या नहीं? 

कोई संदेह मत करना, बस हृदय से उनको पुकारना, तुम्हें खुद लगेगा कि हाँ, भगवान आपकी पुकार सुन रहे हैं ..!! 

ॐ नमो नारायण 🌷🙏🥀🥀

This day, the 7th of August

This day, the 7th of August!
These precious photos & the light patterns in them!
This astounding story by the photographer Anjali Singh! 
Oh wow! 

With Anjali’s permission, I am sharing them today, on Aug 7th - the date on which, 29 years ago in 1993, Swami Chinmayananda's mortal remains returned to New Delhi from San Diego. 

Do read what Anjali writes about how the photos were taken, and about the unique light patterns that you see in the photos. 

Horripilating experience!!! Jai Gurudev!
- Ramaa Bharadvaj (Aug 7, 2022)

***
The Sublime Mahasamadhi of a Saint
by Anjali Singh

After returning from the Sidhbari May camp 1993, Gurudev had to wait for two hours at the Delhi airport lounge before he could change flights. This turned out to be my last meeting with him. “You said I would have rare photographs on August 7, but you are not even taking me with you!” I said.

He affirmed, “Yes. You would have rare photographs.” This was his last sentence to me before his wheelchair was taken into the security section, after which I never saw Gurudev again.

He had called me to his room in Sidhbari eleven months to a year in advance and found a way to communicate and impress upon my mind the date of August 7.

It so happened that his body arrived in New Delhi on August 7, 1993 after his Mahasamadhi in San Diego on August 3, 1993.

Today is 29 years since these photos were taken. Among the 14 ‘rare’ photos that I got to take on August 7, 1993, are the following three. Each of the 14 had a different light pattern behind his head. There were NO such lights placed in the shed. There was NO digital photography.

Today, a pratima of Gurudev adorns that very spot in the Samadhi Mandir at Chinmaya Centre of World Understanding, New Delhi. 

(From the forthcoming Book 6 of the book series: On Higher Flights with Swami Chinmayananda.)

***
NOTE: Anjali's son, television producer & anchor Jujhar Singh adds:
"I was in fact on the flight that brought His body to Delhi on 7 August 1993. The date is etched in my memory. The play of lights in these photographs is remarkable. There was just normal lighting there. No white or blue shafts of lights - as have appeared in these photographs. No other pics taken that day have these shafts of light. These pics really are inexplicable."

*** 

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#Chinmayananda #saintsofindia #photostory #sublimeexperience #storyofasaint #jaigurudev

Priya Narthakii Sahanav Sai Ramesh Siva Bharadvaj Swetha Lakshmi Arbuckle Hema Minakshi Uma Suresh Jujhar Singh Sriram Sivasankaran

Friday, 5 August 2022

House Holder Devotees

House Holder Devotees
For the householders Sri Ramakrishna did not prescribe the hard path of total renunciation. He wanted them to discharge their obligations to their families. Their renunciation was to be mental. 

Spiritual life could not he acquired by flying away from responsibilities. A married couple should live like brother and sister after the birth of one or two children, devoting their time to spiritual talk and contemplation. He encouraged the
householders, saying that their life was, in a way, easier than that of the monk, since it was more advantageous to fight the enemy from inside a fortress than in an open field. He insisted, however, on their repairing into solitude every now and then to strengthen their devotion and faith in God through prayer, japa, and meditation. He prescribed for them the companionship of sādhus. He asked them to perform their worldly duties with one hand, while holding to God with the other, and to pray to God to make their duties fewer and fewer so that in the end they might cling to Him with both hands. He would discourage in both the householders and the celibate youths any lukewarmness in their spiritual struggles. He would not ask them to follow indiscriminately the ideal of non-resistance, which ultimately makes a coward of the unwary.

- The Gospel of Sri Ramakrishna.

मां ,मैं यहां हूं.

मां ,
मैं यहां हूं.

एक बार ठाकुर, मथुरबाबू के कोलकाता स्थित निवास में 
रह रहे थे। रात के 2:00 बजे उन्होंने सहसा मथुरबाबू से कहा," मैं दक्षिणेश्वर वापस जाना चाहता हूं। 
मथुर ने कहा," बाबा इस समय मैं गाड़ी कहां से पाऊंगा?
भोर होने पर आप जा सकते हैं।  
ठाकुर ने कहा, "यदि तुम गाड़ी नहीं ले आओगे, तो मैं अभी पैदल ही चला जाऊंगा। मथुरबाबू बाध्य होकर अपने गाड़ीवान के पास गए और उसे ठाकुर को लेकर दक्षिणेश्वर जाने के लिए तैयार होने को कहा। 
कालीमंदिर पहुंचकर ठाकुर ने कहा ,"मां मैं यहां हूं।" जगन्माता ही उनकी सर्वस्व थीं। 

ठाकुर ऐसे भाव में रहते थे कि जगन्माता को समर्पित किए बिना कुछ ग्रहण नहीं कर सकते थे। यदि कोई ठाकुर को 
नया वस्त्र उपहार में देता तो वे पहले उसे मंदिर में मां को अर्पित करते और फिर प्रसादस्वरूप ग्रहण करते थे। इस प्रकार ठाकुर ने दिखाया कि इस संसार में रहते हुए भी योग में कैसे स्थित रहा जा सकता था।

ठाकुर कहते थे ,"गौरांग और मैं एक ही हैं। एक बार वे गुनगुनाते हुए 'गौर' 'गौर' का उच्चारण कर रहे थे। एक व्यक्ति ने पूछा,‌"महाराज, 'मां' का नाम उच्चारण करने के बजाय आप 'गौर' 'गौर' क्यों कह रहे हैं ? ठाकुर ने उत्तर दिया,' मैं क्या कर सकता हूं?  तुम लोगों के पास पत्नी, पुत्र, पुत्री, 
धन, घर ,आदि अनेक संबल हैं। परंतु मेरे तो एकमात्र संबल भगवान ही हैं । इसी कारण मैं कभी गौर ,कभी मां ,तो कभी राम ,कृष्ण ,काली ,शिव ,कहता हूं । इसी प्रकार मेैं अपना समय बिताता हूं।"..

ठाकुर ने शास्त्रों में वर्णित सत्स्वरूप परब्रह्म की एक या दो बार ही नहीं अपितु सर्वदा अनुभूति की थी। हम लोगों ने ठाकुर के साथ रहकर उन्हें चौबीसों घंटे ध्यानपूर्वक देखा है। वे ईश्वरीय-बोध से कभी वियुक्त नहीं रहते थे। रात में बिस्तर पर लेटे हुए भी वे माँ, माँ का उच्चारण करते थे। उनको बहुत कम नींद आती थी। वे कभी भी लगातार 15 से 30 मिनट 
से अधिक नहीं सोते थे। किसी साधारण जीवकोटि ईश्वरद्रष्टा के लिए ऐसा संभव नहीं है। उन्होंने घोषणा की कि उनकी 
देह में सच्चिदानंद प्रभु ही अभिव्यक्त हुए हैं। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा, " ईशा, चैतन्य और मैं एक ही सत्ता है।"...
ॐ,
मास्टर महाशय की स्मृतिकथा
(श्रीरामकृष्णदेव जैसा हमने उन्हें देखा;
 स्वामी चेतनानंद )

Tuesday, 2 August 2022

Mansa Devi

#NaagPanchami Mansa Devi
Mansa Devi is the Goddess of Siddhas & Yogis,  the Great Goddess of Serpents, the reliever of Naga Doshas, healer of snake bites and poisons. As per the Bramha Vaivarta Purana, She appeared from the mind of Rishi Kashyapa, Mansa means who plays with or controls the mind. Rishi Kashyapa regarded her as the Mantradhisthatri, or the mother of Mantras as out of his tapas/intense mediation he received divine knowledge in the form of mantras in his mind, so she came to be known as Mansa. As when mind is under control of the consciousness the snake like movements of the prana Shakti or the Kundalini can be experienced, so she is adorned with snakes. 

Mansa Devi is also known as Nageshvari and Siddhayogini. She was the one who protected the serpents from perishing in the Nagayeshthi Yagna performed by King Janmejaya, after the death of his father parikshit. She is regarded as the sister to Nagas/serpents as she holds the secrets behind all forms of poisons & venoms and has the power to remove the ill effects from them. As a Siddhayogini, she is the master of all forms of Yogas and possesses the immense wisdom of vedas. She is also aware of the Great Secrets of Mritasanjeevani, a method which can revive the dead back to life. She is a master of mind, body and all actions which can take one forward to attaining the greatest awareness. 

She was the wife of a Great Sage known as Jaratkaaru, who was considered as an amsha of Lord Vishnu. She is the Mother of Astika, the ruler of Nagas, with whose efforts Janmejaya ended his Yagna sacrifice of serpents. 

To relive one from Danger of Snakes and to attain her blessings, one must recite the twelve names of Goddess Mansa.

ॐ नमो मनसायै । जरत्कारु जगद्गौरी मनसा सिद्धयोगिनी । वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी तथा ॥ १॥ जरत्कारुप्रियाऽऽस्तीकमाता विषहरीती च । महाज्ञानयुता चैव सा देवी विश्वपूजिता ॥ २॥ द्वादशैतानि नामानि पूजाकाले च यः पठेत् । तस्य नागभयं नास्ति तस्य वंशोद्भवस्य च ॥ 

ōṁ namō manasāyai . jaratkāru jagadgaurī manasā siddhayōginī . vaiṣṇavī nāgabhaginī śaivī nāgēśvarī tathā ..  ॥  jaratkārupriyā’’stīkamātā viṣaharītī ca . mahājñānayutā caiva sā dēvī viśvapūjitā ..  ॥  dvādaśaitāni nāmāni pūjākālē ca yaḥ paṭhēt . tasya nāgabhayaṁ nāsti tasya vaṁśōdbhavasya ca ..  ॥ 

Mansa Devi is worshipped on the first day of the month of Ashada and the Panchmi/fifth day of the lunar month. The day of Naga Panchmi is also specially attributed for her worship. May the blessings of Nagabhagini Nageshvari Devi grant us intelligence for transcendence, and that mental stability to realize the true nature of oneself. 

#mansadevi #serpent #worship #goddess

Monday, 1 August 2022

Sri Ramakrishna offering Boon to Kalipada Ghosh

Sri Ramakrishna offering Boon to Kalipada Ghosh🔻

Kalipada Ghosh came as an immoral drunkard when he started visiting Sri Ramakrishna and was transformed by His golden touch. His faith in Sri Ramakrishna was matchless and firmly believed that Sri Ramakrishna is a God and has the capacity to grant him liberation. He was awaiting an opportune time to obtain the boon of liberation from Sri Ramakrishna Himself.

When the Master saw Kalipada He said that He had just been thinking of going to Calcutta. Kalipada told Him that his boat was at the landing ghat and that he would be glad to take Him there. Sri Ramakrishna immediately got ready and left with Latu (later Swami Adbhutananda) and Kalipada. As they got in the boat, however, Kalipada privately instructed the boatman to steer the boat to the middle of the river. Then Kalipada knelt down and clasped the Master’s feet, saying: ‘Sir, you are the saviour. Please save my life.’ ‘Oh, no, no!’ said Sri Ramakrishna. ‘Chant the name of the Lord. You will get liberation.’ 

Kalipada then said: ‘Sir, I am a wicked man and a drunkard. I do not even have time to chant the Lord’s name. You are the ocean of mercy. Kindly save a ruffian such as I, who is devoid of discipline and righteousness.’

Meanwhile, Kalipada firmly held on to the Master’s feet. Sri Ramakrishna could find no other way out of this predicament, so he asked Kalipada to stick out his tongue and then wrote a mantra on it. 

The Master said, ‘Henceforth your tongue will automatically repeat this mantra.’ But Kalipada was not happy. He said to the Master, ‘I don’t want this.’ ‘Then what do you want?’ asked Sri Ramakrishna. ‘When I leave this world,’ replied Kalipada, ‘I shall see darkness all around, and that terrible darkness will fill me with horror. My wife, children, and other relatives won’t be able to help me then. At that terrible time you will be my only saviour. You will have to take me, holding a light in your left hand and me with your right hand. I shall always be with you then. You will have to fulfil this prayer of mine.’ With His heart full of compassion, the Master said: ‘All right, all right. Your prayer will be fulfilled. My goodness! You have brought me to the middle of the Ganga and have created such a scene.’

Sri Ramakrishna had promised thrice in Swami Adbhutananda’s presence that at the time of Kalipada’s death He would take him, holding him by His right hand. Just as Kalipada breathed his last he raised his right hand. Swami Premananda was present at that time. 

Hearing the news of Kalipada’s death from Swami Premananda, Swami Adbhutananda said to some devotees: ‘Look, the Master came to Kalipada at his last moment. Holding Kalipada’s hand, the Master guided him away. Brother Baburam saw it clearly. Whatever the Master said to anyone is bound to be fulfilled.’ 

Picture : Ramakrishna Math & Mission, Vrindavan

अफजल खां का वध

20 नवम्बर, 1659 ई. - अफजल खां का वध :- बीजापुर की तरफ से अफजल खां को छत्रपति शिवाजी महाराज के खिलाफ भेजा गया। अफजल खां 10 हज़ार क...